जम्मू। कश्मीर घाटी (Kashmir Valley) एक बार फिर सुलग उठी है, सेब के बागों से बारूदी गंध (smell of gunpowder from apple orchards) उठने लगी है और केसर की क्यारियों में इंसानों का लहू बहने लगा है। दहशतगर्द (Terrorist) एक बार फिर आतंक का माहौल (atmosphere of terror) पैदा करने के लिए लोगों को चुन-चुनकर मारने लगे हैं। पिछले छब्बीस दिनों में टारगेट किंलिंग (चुन-चुनकर हत्या) की नौ घटनाएं हो चुकी हैं। घाटी से कश्मीरी पंडित एक बार फिर पलायन करने के लिए मजबूर हुए हैं। लोगों के जेहन में यह आशंका है कि कहीं फिर से 1990 के दशक का हिंसक दौर न लौट आए।
यह सब क्यों हो रहा है और इससे निपटने के क्या उपाय हैं, इसे समझने के लिए अतीत के उन स्याह दिनों की तरफ मुड़ना होगा। जब 1990 के दशक में पाकिस्तान ने घाटी में आतंक के दौर को प्रायोजित किया था, तो उसके तीन लक्ष्य थे। पहला, घाटी के माहौल को इतना बिगाड़ दो कि आम कश्मीरियों का दिल्ली की सरकार पर से बिल्कुल भरोसा हट जाए। दूसरा घाटी में 99 से सौ फीसदी मुस्लिम आबादी रहे और वहां अशांति बनी रहे।
तीसरा लक्ष्य उसका यह था कि जब घाटी में 99 फीसदी मुस्लिम आबादी हो जाएगी और वहां अशांति रहेगी, तो वह दुनिया को बता सकेगा कि कश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते। इन्हीं उद्देश्यों के तहत उसने कश्मीर में आतंकवाद के दौर को प्रोत्साहित किया था। खैर, अब तीस साल बाद लगता है कि घड़ी की सुई फिर से उल्टी घूमने लगी है। इसकी वजह है कि इस दौरान दिल्ली में जो सरकारें थीं, उस पर स्थानीय कश्मीरी नेताओं का दबाव था कि आप जिस तरह से कश्मीर की मदद करते हैं, वह करते रहिए, तभी जनता आपके साथ आएगी।
अनुच्छेद 370 को खत्म करने के बाद घाटी के स्थानीय नेताओं की कमाई खत्म हो गई। इसलिए कश्मीर के स्थानीय दलों के नेताओं ने अनुच्छेद 370 को हटाने का एजेंडा बनाया है। पिछले तीस वर्षों से घाटी में जो हालात खराब हुए हैं, उसमें सिर्फ सीमा पार आतंकवादियों का ही हाथ नहीं रहा है, बल्कि स्थानीय नेता भी चाहते थे कि हालात खराब रहें, ताकि उन्हें भारत सरकार की तरफ से पैसा मिलता रहेगा। और ऐसा किसी एक पार्टी की सरकार ने नहीं, बल्कि सभी सरकारों ने किया है।
जम्मू और कश्मीर में अशांति के पीछे पाकिस्तान का हाथ तो स्पष्ट रहा ही है। चीन भी हमेशा से चाहता है कि भारत कश्मीर में उलझा रहे, ताकि चीन जो लद्दाख क्षेत्र में कर रहा है, उस पर ध्यान न दे सके। इसके अलावा, चीन भारत की प्रगति से ईर्ष्या करता है, इसलिए चाहता है कि कश्मीर में अशांति रहे। मौजूदा सरकार का कहना है कि हम जम्मू और कश्मीर में हालात सामान्य बनाना चाहते हैं।
लेकिन इससे उनका क्या तात्पर्य है, कि वहां चुनाव जीत सकें और अपनी सरकार का गठन करें या यह है कि वहां के लोग शांति पूर्वक रोजी-रोटी कमा सकें, स्वतंत्र एवं निर्भय होकर घूम-फिर सकें? अभी जो हिंसा हो रही है, उसमें सिर्फ पाकिस्तानी आतंकवादियों का ही हाथ नहीं है, बल्कि सूत्रों से ऐसी खबरें मिल रही हैं कि आतंकवादियों का अंतरराष्ट्रीय गुट भी कश्मीर में आ चुका है, जो स्थानीय छोटे-मोटे आतंकवादियों को लोगों को मारने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है।
इसके पीछे भी वही लक्ष्य है, जो 1990 के दशक में लक्ष्य था। पिछले तीस वर्षों में जम्मू और कश्मीर में जो बच्चे पैदा हुए और बड़े हुए हैं, उन्होंने लड़ाई-झगड़े, कर्फ्यू के सिवा कुछ देखा ही नहीं है। भले ही दिल्ली की सरकार का यह मानना हो कि कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने और चुनाव कराने से दुनिया को यह संदेश जाएगा कि कश्मीर में कोई अशांति नहीं है, लेकिन यह सिर्फ दिल बहलाने की बातें हैं। सिर्फ चुनाव कराकेआप लोगों के दिलों को नहीं जीत सकते।
आम आदमी को बुनियादी तौर पर रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए और अपने ढंग से रहने, जीने, घूमने की स्वतंत्रता। जैसा कि एक बार मुझसे एक वरिष्ठ कश्मीरी नेता ने कहा था कि घाटी में आजादी का नारा लगाने का मतलब यह नहीं है कि वे भारत से अलग होने की बात करते हैं, बल्कि उन्हें घूमने, खरीदारी करने, जीने की स्वतंत्रता चाहिए। डर और खराब माहौल से भी लोग आजादी चाहते हैं। लोगों को सरकार से सुविधाएं मिलेंगी, तभी वे आतंकियों का सहयोग करना बंद करेंगे।
जहां तक कश्मीरी पंडितों की बात है, तो उन्हें रिफ्यूजी कैंप बनाकर जम्मू के आसपास रखा गया था। उन्हें भरोसा दिया गया था कि जैसे ही माहौल सुधरेगा, उन्हें वापस घाटी में बसा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जो कश्मीरी पंडित होशियार थे, उन्होंने राजनीतिक वर्ग पर भरोसा करने के बजाय अपना रोजगार शुरू किया, सरकारी नौकरियां पकड़ीं और जीवन में आगे बढ़ गए। इतने वर्षों में सरकार को आतंकवादियों की हरकतों पर नियंत्रण कर लेना चाहिए था।
अगर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है, तो सरकार को कम से कम कश्मीरी पंडितों को यह बताना चाहिए कि हम आतंकियों से लड़ते रहेंगे, और उनके कल्याण के लिए कार्यक्रम चलाएंगे। कश्मीरी पंडितों को रिफ्यूजी कैंपों में रखने के बजाय जम्मू में अच्छी कॉलोनी बनाकर रहने के लिए तो दिया जा सकता था। सरकार को सबसे पहले तो कश्मीरी पंडितों को अतिरिक्त सुविधाएं प्रदान करनी चाहिए। इन लोगों के लिए सुरक्षित एवं सुविधाजनक जगह पर कॉलोनी बनानी चाहिए।
वहां की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करनी चाहिए एवं आधारभूत सरंचनाएं विकसित करनी चाहिए; और जहां इन आधारभूत संरचनाओं के निर्माण में श्रमिक लगे हैं, उनको सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए। सिर्फ राजनेताओं और कश्मीरी पंडितों को ही नहीं, सभी नागरिकों के जीवन की सुरक्षा सरकार का दायित्व है। यह अच्छी बात है कि सरकार ने वाल्मीकि, गोरखा, पाकिस्तान से आए शरणार्थियों और जनजाति समुदाय के लोगों को सुविधा प्रदान करने के लिए कदम उठा रही है, लेकिन सरकार को घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के लिए भी स्कूल, अस्पताल जैसी सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए, ताकि उनके मन में जलन न पैदा हो।
इसके अलावा, जिस तरह से परिसीमन में घाटी की सीटें कम की गई हैं और जम्मू की सीटें बढ़ाई गई हैं, उससे तो घाटी के मुस्लिमों का गुस्सा ही बढ़ेगा। बेशक पहले शेख अब्दुल्ला ने भी 1980 के आसपास इसमें काफी छेड़छाड़ की थी, और मुस्लिमों के अलावा बाकी समुदाय की उपेक्षा की थी। मौजूदा हालात में सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि क्या आप घाटी में चुनाव जीतना चाहते हैं या वहां के माहौल को सामान्य बनाना चाहते हैं।
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