– सियाराम पांडेय ‘शांत’
गुनाहों की कोई निर्जरा नहीं होती। एक न एक दिन व्यक्ति को अपने कर्मों की सजा जरूर मिलती है। गुनाहों पर चाहे जितनी भी पर्दादारी कर ली जाए लेकिन उसकी परिणति से बचा जाना मुमकिन नहीं है। अपराध किया है तो सजा मिलेगी ही। आज नहीं तो निश्चय कल। किसने सोचा था कि सरकारी मेहमान बन चुका प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के मुखिया यासीन मलिक को उम्रकैद की सजा मिलेगी, लेकिन मोदी राज में वह पकड़ा भी गया और उसे उसके गुनाहों की सजा भी मिली। टेरर फंडिंग और आतंकवादी गतिविधियों में यासीन की संलिप्तता की वजह से कोर्ट ने उसे उम्रकैद की सजा सुनाई है। यह सजा कम है या अधिक, यह बहस का विषय हो सकता है। एनआईए ने भी कोर्ट से यासीन मलिक को फांसी देने की मांग की थी लेकिन कोर्ट ने उसे उम्रकैद की सजा दी। भारतीय लोकतंत्र में कोर्ट के निर्णय को सर्वोपरि माना जाता है। उसका स्वागत किया जाता है।
यह और बात है कि देश में बहुतेरे लोग ऐसे हैं जो पटियाला हाउस की एनआईए कोर्ट के इस फैसले को सजा कम-माफी ज्यादा मान रहे हैं। यासीन मलिक के गुनाहों का टोकरा इतना बड़ा है कि अगर उसे कई बार फांसी दी जाए तो भी उसकी सजा पूरी नहीं होगी। लेकिन पाकिस्तान को इस फैसले के बाद जिस तरह मिर्ची लगी है, उससे उसके भारत विरोधी नजरिए का पता चलता है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ जहां यासीन मलिक को जम्मू-कश्मीर की आजादी का प्रतीक मान रहे हैं, वहीं यह भी कह रहे हैं कि भारत सरकार यासीन मलिक के शरीर को कैद कर सकती है, जम्मू-कश्मीर की आजादी के उसके विचारों को कैद नहीं कर सकती। पाकिस्तान की सेना और वहां के एकाध खिलाड़ियों ने भी अदालत के फैसले पर आपत्ति जताई है। इस निर्णय को भारतीय लोकतंत्र का काला दिन बताया है। इस बात से किसी को भी गुरेज नहीं हो सकता कि यासीन मलिक भारत में रहकर, यहां के अन्न-जल, वायु का सेवन करके भी दिल से पाकिस्तान के साथ था।
कहते हैं न कि राक्षस के प्राण हिरामन तोते में बसते थे। इस आतंकवादी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कश्मीर को भारत से अलग कर पाकिस्तान को सौंप देना ही इस आतंकवादी का सपना रहा है। यह और बात है कि वह अपने मकसद में कभी सफल नहीं हो पाया। वह कश्मीरी पंडितों के पलायन और हत्या का अपराधी है। एक सरकारी बस चालक का बेटा पाकिस्तान से मिलकर अलगाववादी नेता हो गया, आतंकवादियों का सहयोगी हो गया, कश्मीरी पंडितों की जान का प्यासा हो गया। वायु सेना के जवानों का दुश्मन हो गया। भारत के अमन-चैन में खलल डालने लगा। तिस पर तुर्रा यह कि वह गांधी की राह पर 1994 से चल रहा है। भारत के सात प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है। मुल्क के दुश्मन को जिस तरह कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों ने सम्मान दिया, उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखा, उसे मुल्क से गद्दारी नहीं तो और क्या कहा जाएगा?
80 के दशक में ताला पार्टी का गठन और 1983 में भारत-वेस्टइंडीज के मैच के दौरान पिच खोदने की उसकी कोशिशों के दौरान ही अगर उसके नापाक इरादों को भांप लिया गया होता तो उसके आतंकों की विषबेल इतनी बढ़ती ही नहीं। लेकिन वह इस अपराध में जेल तो गया लेकिन जल्दी ही छूट भी गया। हर अपराधी अपने लिए एक शानदार बहाना तलाशता है। यासीन मलिक इसका अपवाद तो नहीं है। उसने तर्क दिया कि जम्मू-कश्मीर के लोगों पर सेना के जुल्म-ज्यादती के खिलाफ उसने हथियार उठाए हैं।
वर्ष 1986 में उसने ताला पार्टी का नाम बदल लिया और उसके संगठन का नया नाम हो गया इस्लामिक स्टूडेंट्स लीग। इस आतंकी संगठन से अशफाक मजीद वानी, जावेद मीर, अब्दुल हमीद शेख सरीखे खूंखार दहशतगर्द जुड़े रहे हैं। एक साल बाद ही उसने 1987 में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का गठन किया। इस नए संगठन के बैनर पर चुनाव लड़ रहे यूसुफ शाह यानी आज के सैयद सलाहुद्दीन जिसने बाद में हिजबुल मुजाहिदीन जैसा खूंखार आतंकी संगठन बनाया, उसका पोलिंग एजेंट भी बना। 1988 में वह जेकेएलएफ से बतौर एरिया कमांडर जुड़ गया। इससे पहले उसने पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकी ट्रेनिंग ली थी। कुछ आतंकवादियों को छुड़ाने के लिए उसने तत्कालीन गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद का अपहरण भी अपने साथियों के साथ मिलकर किया। टाडा कोर्ट ने इस मामले में उसे आरोपी भी बनाया था। उसे जेल भी हुई थी।
बाद में उसने हुर्रियत नेताओं के साथ मिलकर जॉइंट्स रेजिस्टेंस लीडरशिप का गठन किया और इसके जरिये वह कश्मीर के लोगों को विरोध-प्रदर्शन करने, हड़ताल करने, शटडाउन करने और रोड ब्लॉक करने के लिए भड़काता रहा। टेरर फंडिंग उसे पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों से होती रही। भारत में अफजल गुरु को फांसी दिए जाने पर उसने पाकिस्तान में हाफिज सईद के साथ भूख हड़ताल की थी और भारत का विरोध किया था।
कहना न होगा कि जिस यासीन मलिक को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने आवास पर बुलाया था, उसी यासीन मलिक ने 2007 में सफर-के-आजादी के नाम से कैम्पेन शुरू किया और दुनिया भर में भारत के खिलाफ जहरीला भाषण दिया था। ऐसा व्यक्ति महात्मा गांधी का अनुयायी कैसे हो सकता है? घाटी से कश्मीरी पंडितों को भगाने, कश्मीर में रक्तपात करने, वायु सैनिकों पर गोलियां बरसने वाला देश का दुश्मन है। वह दया का अधिकारी तो बिल्कुल भी नहीं है।
उम्रकैद की सजा की कल्पना तो खुद मलिक ने भी नहीं की थी। सजा के बाद वह जिस तरह अपने वकील के गले लग गया, उससे उसकी प्रसन्नता का पता चलता है। उसे लगा होगा कि चलो जान बची। दूसरों की निर्ममतापूर्वक हत्या करने वाला अपनी सजा को लेकर कितना खौफजदा था, कोर्ट में उसके चेहरे को देख कर सहज ही जाना समझा जा सकता था। सवाल यह भी है कि इतना बड़ा देश का दुश्मन किस तरह सरकारी मेहमान बनता रहा। अपने को गांधीवादी कहता रहा। इस तुष्टिकरण की राजनीति की देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। सेना के कितने अधिकारी व जवान अलगाववादी-आतंकवादी घटना की भेंट चढ़े, यह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे आतंकी रहम के पात्र हरगिज नहीं है।
नीति भी कहती है कि फोड़े को पकने से पहले फोड़ देना चतुराई है और शत्रु को जीता छोड़ देना बुराई है। यासीन मलिक को सजा के बाद जिस तरह उसके घर पर तैनात सुरक्षा बलों पर पथराव किया गया, उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता।इसलिए अभी समय है कि इस तरह के जितने भी अलगाववादी नेता हैं जो भारत में रहकर भारत के खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं, उन्हें बेनकाब भी किया जाए और दंडित भी ताकि भविष्य में भारत के खिलाफ देखने और सोचने वालों के हौसले पस्त हो जाएं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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