– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने दक्षिण पूर्व एशिया के 12 देशों को अपने साथ जोड़कर एक नया आर्थिक संगठन खड़ा किया है, जिसका नाम है, ‘भारत-प्रशांत आर्थिक मंच (आईपीईएफ)’। टोक्यो में बना यह 13 देशों का संगठन बाइडन ने जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ घोषित किया है। वास्तव में यह उस विशाल क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी संगठन (आरसीईपी) का जवाब है, जिसका नेता चीन है। इस 16 राष्ट्रों के संगठन से अब भारत ने नाता तोड़ लिया है। इसके सदस्य और इस नए संगठन के कई सदस्य एक जैसे हैं।
जाहिर है कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा इतनी तगड़ी है कि अब चीन द्वारा संचालित संगठन अपने आप कमजोर पड़ जाएगा। बाइडन ने यह पहल भी इसीलिए की है। इस क्षेत्र के राष्ट्रों को जोड़ने वाले ट्रांस पेसिफिक पार्टनरशिप संगठन (टीपीपी) से पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपना हाथ खींच लिया था, क्योंकि अमेरिका की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति में इन सदस्य राष्ट्रों के साथ मुक्त व्यापार उसके लिए लाभकर नहीं था।
अब इस नए संगठन के राष्ट्रों के बीच फिलहाल कोई मुक्त व्यापार का समझौता नहीं हो रहा है लेकिन ये 13 ही राष्ट्र आपस में मिलकर डिजिटल अर्थव्यवस्था, विश्वसनीय सप्लाई शृंखला, स्वच्छ आर्थिक विकास, भ्रष्टाचार मुक्त उद्योग आदि पर विशेष ध्यान देंगे। ये लक्ष्य अपने आप में काफी ऊंचे हैं। इन्हें प्राप्त करना आसान नहीं है लेकिन इनके पीछे असली इरादा यही है कि इस क्षेत्र के राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं को चीन ने जो जकड़ रखा है, उससे छुटकारा दिलाया जाए।
बाइडन प्रशासन को अपने इस लक्ष्य में कहां तक सफलता मिलेगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि वह इन सदस्य राष्ट्रों को कितनी छूट देगा। बाइडन प्रशासन पहले से ही काफी दिक्कत में है। अमेरिका में महंगाई और बेरोजगारी ने उसकी अर्थव्यवस्था की गति को धीमा कर दिया है और बाइडन प्रशासन की लोकप्रियता पर भी इसका असर पड़ा है। ऐसी हालत में वह इन दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्रों के साथ कितनी रियायत कर पाएगा, इसका अंदाज लगाया जा सकता है।
अमेरिका को यह बात तो अच्छी तरह समझ में आ गई है कि शीतयुद्ध काल का वह जमाना अब लद गया है, जब सीटो और सेंटो जैसे सैन्य-संगठन बनाए जाते थे। उसने चीन से सीखा है कि अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए आर्थिक अस्त्र ही सबसे ज्यादा कारगर है लेकिन अमेरिका की समस्या यह है कि वह लोकतांत्रिक देश है, जहां विपक्ष और लोकतंत्र दोनों ही सबल और मुखर हैं जबकि चीन में पार्टी की तानाशाही है और लोकमत नामक कोई चीज वहां नहीं है। जो भी हो, इन दोनों महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता में भारत को तो अपना राष्ट्रहित साधना है। इसीलिए उसने बार-बार ऐसे बयान दिए हैं, जिनसे स्पष्ट हो जाता है कि भारत किसी (चीन) के विरुद्ध नहीं है। वह तो केवल आर्थिक सहकार में अमेरिका का साथी है।
चीन से विवाद के बावजूद उसका आपसी व्यापार बढ़ता ही जा रहा है। इस नए संगठन के जरिए उसका व्यापार बढ़े, न बढ़े लेकिन इसके सदस्य राष्ट्रों के साथ भारत का आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग निरंतर बढ़ता ही जा रहा है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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