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    मोटे नहीं, पौष्टिक हैं ये अनाज

  • May 01, 2022

    – कुलभूषण उपमन्यु

    हमारे देश में अनाजों की विविधता की संस्कृति रही है। चावल, गेहूं के अतिरिक्त ज्वार, बाजरा, कोदरा (रागी), कंगनी, चीणा, स्वांक ( झंगोरा) आदि कई अनाज उगाये जाते थे और उनके पोषक तत्वों के ज्ञान के आधार पर उनका मौसम या तासीर के हिसाब से भोजन में उपयोग किया जाता रहा है। दुर्भाग्य से हरित क्रांति के दौर में न जाने कहां से यह भ्रमपूर्ण विचार फैल गया कि गेहूं-चावल ही उत्कृष्ट अन्न हैं और बाकी को मोटा अनाज कहकर हीन दृष्टि से देखा जाने लगा। कुछ लोग तो अज्ञानवश यह सोचने लग पड़े कि मोटा अन्न गरीबों का भोजन हैं। अत: इन अनाजों की न केवल अनदेखी हुई बल्कि इन्हें हिकारत की दृष्टि से देखा जाने लगा। किन्तु एक जानकार वर्ग इनके संरक्षण और गुणवत्ता के ज्ञान का रक्षक बना रहा और आज फिर से इन अनाजों के प्रति चेतना फैलना शुरू हुई है।

    इन अनाजों को रासायनिक खादों और दवाइयों की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि इनमें कीड़ा नहीं लगता और ये कम उपजाऊ जमीन में भी बढ़िया पैदावार देते हैं। यह पौष्टिक भोजन और और चारा भी देते हैं। यदि इनके मुकाबले में गेहूं और चावल के पोषक तत्वों को देखें तो इनमें 4-5 गुणा ज्यादा पौष्टिक पाए जाते हैं। प्रति सौ ग्राम कोदरा-रागी में धातु: कोदरा- 2.7 ग्राम, कंगनी- 3.3 ग्राम, स्वांक-झंगोरा-4.4 ग्राम, चावल- 0.7 ग्राम, गेहूं- 1.5 ग्राम। आयरन: कोदरा- 3.9 मिली ग्राम, कंगनी- 2.8 मिली ग्राम, झंगोरा- 15.2 मिली ग्राम, गेहूं- 5.3 मिली ग्राम, चावल- 0.7 मिली ग्राम, कैल्शियम: कोदरा और रागी-344 मिली ग्राम, कंगनी- 31 मिली ग्राम, झंगोरा-11 मिली ग्राम, गेहूं-10 मिली ग्राम, चावल- 41 मिली ग्राम, रामदाना-159 मिली ग्राम, फाइबर: कोदरा- 3.6 ग्राम, कंगनी- 8 ग्राम, स्वांक और झंगोरा-10.1 ग्राम, गेहूं- 1.2 ग्राम, चावल- 0.2 ग्राम, जौ- 15.6 ग्राम। इससे साफ है कि जरूरी पौष्टिक तत्वों के मामले में इन अनाजों की अनदेखी करके हम अपने ही स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।

    हमें इन पौष्टिक तत्वों की कमी होने की सूरत में बनावटी दवाइयों के रूप में इन पौष्टिक तत्वों को डॉक्टर के कहने पर खाना पड़ता है। गेहूं और चावल की खेती में तो रासायनिक दवाइयों की भरमार हो रही है। ये मोटे अनाज तो बिना दवाइयों और रासायनिक खादों के ही हो जाते हैं। रासायनिक जहर मानव शरीर के लिए खतरनाक है। रासायनिक खेती की वजह से पंजाब की बठिंडा पट्टी तो कैंसर पट्टी के नाम से मशहूर हो गई है। इस क्षेत्र में हर घर में कोई न कोई कैंसर रोग से पीड़ित मिल जाएगा। खेती विरासत मिशन जैसी संस्थाएं इन क्षेत्रों में प्राकृतिक खेती को वैज्ञानिक तरीके से करने का प्रचार कर रही हैं। उन्हें समाज से भी अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। हम जलवायु परिवर्तन के दौर में प्रवेश कर चुके हैं।

    गर्मी बढ़ने के साथ-साथ इसमें वर्षा भी अनिश्चित हो जाएगी। इसका सामना करना भी पड़ रहा है। यह क्रम बढ़ता जाएगा। इससे खेती के लिए पानी का संकट भी बढ़ता जाएगा, क्योंकि बारिशों के दिन कम हो जाएंगे और बौछार बढ़ जाएगी। भारत में पहले ही 80 प्रतिशत बारिश मनसून के तीन महीनों में ही हो जाती है। शेष वर्ष पानी की कमी बनी रहती है। इसके चलते अन्तर्राज्यीय टकराव और अंतर व्यावसायिक टकराव भी बढ़ते जाएंगे। उद्योगों और घरेलू प्रयोग के लिए भी पानी की मांग लगातार बढ़ रही है। खेती में हम जिन फसलों को अपना रहे हैं वे सब ज्यादा पानी की मांग करती हैं। जबकि ये पौष्टिक मोटे अनाज थोड़े पानी में भी अच्छी फसल दे जाते हैं। गन्ने को इन पौष्टिक अनाजों के मुकाबले पांच गुणा, और धान को तीन गुणा पानी चाहिए। जैसे वर्ष में कुछ महीने ही हमारे देश में पानी की बहुतायत होती है, वैसे ही क्षेत्रवार भी हमें काफी असमानता झेलनी पड़ती है।

    सतही जल के 71 प्रतिशत जल संसाधन 36 प्रतिशत क्षेत्र को ही उपलब्ध हैं और 64 प्रतिशत क्षेत्र 29 प्रतिशत साधनों पर निर्भर है। देश में 56.7 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा आधारित खेती पर निर्भर है। इसलिए बहुत तेज गति से भूजल दोहन बढ़ा है। भारतवर्ष दुनिया का सबसे बड़ा भू-जल उपयोगकर्ता बन गया है। 75.80 प्रतिशत सिंचाई भूजल से हो रही है। इससे भूजल स्तर भी तेजी से घट रहा है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में भूजल स्तर 2002-2008 के आकलन के मुताबिक प्रतिवर्ष 33 सेंटीमीटर की दर से घट रहा है। अबतक यह दर और भी बढ़ चुकी होगी। इसी कारण देश के 33 प्रतिशत जिले भूजल की दृष्टि से असुरक्षित घोषित है चुके हैं। दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी हमारे देश में बसती है और सतही जल के 4 प्रतिशत संसाधन ही हमारे पास हैं। प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष जल उपलब्धता 1170 घन मीटर ही है जबकि 1700 घन मीटर से कम जल उपलब्धता जल संकट माना जाता है। इस वस्तुस्थिति को देखते हुए कृषि जैसी जीवनोपयोगी गतिविधि को टिकाऊ बनाकर रखने की चुनौती देश के सामने है, और पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाने की महती जिम्मेदारी भी। अत: सब तरह से पौष्टिक अन्न उगाना जिनकी मोटे अनाज कह कर अनदेखी की गई, समय की मांग है। पौष्टिक अन्न और जहर मुक्त वैज्ञानिक खेती इस समय का घोष वाक्य होना चाहिए।

    (लेखक, पर्यावरणविद् और जल-जंगल-जमीन के मुद्दों से जुड़े हैं।)

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