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    साहित्य में समाज के महानायक

  • May 01, 2022

    – गिरीश्वर मिश्र

    साहित्य की दुनिया में गोष्ठी, व्याख्यान और विमर्श नई बात नहीं है। वह निरंतर चलते रहते हैं । आलोचना और समीक्षा के दौर साहित्यकारों के जीवन के प्राणभूत हैं । साहित्य विधाओं में भी अनेक प्रयोग होते रहे हैं और बौद्धिक ‘वादों’ के पुरोधा अक्सर विवाद के इर्द-गिर्द उपस्थित रहते हैं । अब रचना की जगह मत की पुष्टि या विरोध और रचनाकार के प्रति आग्रह तथा दुराग्रह के उत्सव सोशल मीडिया में भी खूब मनाए जा रहे हैं । इन सब के बीच साहित्य का समकालीन सरोकार घोरतर रूप में तात्कालिक होता जा रहा है । यह भी है कि अब सभ्यता, समाज और संस्कृति के व्यापक सरोकार यदि उठाए जाते हैं तो वे बाजार में स्थित उपभोक्ता व्यक्ति के मनोजगत की परिधि में ही जीवित होते हैं ।

    साहित्य यथार्थ का आईना बन कर ऊबड़- खाबड़ जिंदगी का अक्स हाजिर कर कृतार्थ हो रहा है और यह यथार्थप्रियता उसकी उल्लेखनीय और विशिष्ट उपलब्धि है । परंतु साहित्य का यह आंशिक पक्ष ही है और बहुत हद तक साहित्यिक आलोचना की पश्चिमी दृष्टि की देन है । भारतीय साहित्य दृष्टि में समग्रता , संवाद और पुरुषार्थ की दिशा में प्रेरणा देना मुख्य उद्देश्य है । साहित्य शब्द ही स्वयं में ‘सहित’ अर्थात साथ लेना और हित के साथ चलने की ओर उद्यत करता है । काव्य प्रयोजनों की चर्चा में भी ‘शिव’ यानी कल्याणकारी की प्रतिष्ठा एक प्रमुख प्रयोजन के रूप में परिगणित है ।

    इसी अर्थ में नायक पर विस्तृत चर्चा मिलती है और काव्य रचना में धीरोदात्त नायक को आदर्श रूप में पहचाना गया है । समूह और समाज केंद्रित दृष्टि वाली संस्कृति में नायक की ओर सभी की निगाह होती है और उस श्रेष्ठ व्यक्ति के पद-चिह्न सामान्य जन के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं । इसीलिए आधुनिक साहित्य में भी ऐसी युगांतरकारी प्रतिभाओं को लेकर औपन्यासिक रचनाएं हुई हैं और पाठकों में लोकप्रिय भी हुई हैं । इस तरह के प्रयास भारत की लगभग सभी भाषाओं के साहित्य में मिलते हैं ।

    यद्यपि ये समाज की मानसिकता और मूल्यबोध को दिशा देते हैं तथापि साहित्य-संस्कृति की वर्तमान प्रथा की धारा अति यथार्थ की ओर इस तरह आकृष्ट दिखती है कि उदात्त सामाजिक – सांस्कृतिक रचनाशीलता पृष्ठभूमि में चली जाती है । विगत वर्षों में अनेक नगरों में साहित्य उत्सव या लिटरेरी फेस्टिवल ( संक्षेप में लिट फेस्ट !) के आयोजन की प्रथा चल पड़ी है जिसके अपने आशय और लाभ हैं । दिल्ली की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी का भी आयोजन प्रतिवर्ष होता है । ऐसी स्थिति में कदाचित प्रचलित धारा के विपरीत जाते हुए वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय द्वारा एक अद्भुत कार्य हुआ। यहां समाज के महानायकों पर रचित विभिन्न भाषाओं के उपन्यासों पर रचना केंद्रित विमर्श आयोजित किया गया ।

    वर्धा साहित्य महोत्सव की यह संकल्पना कुलपति प्रोफेसर रजनीश कुमार शुक्ल की अभिनव और सार्थक पहल कगी । प्रोफेसर कृष्ण कुमार सिंह के संयोजकत्व में एक प्रकार के अंतर भारती संवाद को आधार बनाते हुए ‘साहित्य में समाज के महानायक’ विषय पर एकाग्र त्रिदिवसीय विमर्श का 28 अप्रैल को समापन हो गया । विश्वविद्यालय के अमृतलाल नागर सृजन पीठ के तत्वावधान में ‘वर्धा साहित्य महोत्सव’ शीर्षक इस आयोजन में हिंदी , संस्कृत , मराठी , उड़िया , मलयालम , गुजराती , कन्नड़ , बांग्ला समेत आठ भारतीय भाषाओं के साहित्य के 21 महत्वपूर्ण उपन्यासों पर गहन चर्चा हुई । जिन लेखकों की रचनाएं सम्मिलित की गईं उनमें रांगेय राघव , प्रतिभा राय , विष्णु पण्ड्या , एसी विजय कुमार , अभिराज राजेंद्र मिश्र , विश्वास पाटील, नरेंद्र कोहली , अमृतलाल नागर, मनु शर्मा, एनएस इनामदार, वृन्दावन लाल वर्मा , श्यामल गंगोपाध्याय, दिनकर जोशी, गंगाधर गड़गिल , शिवाजी सावंत, वीरेंद्र कुमार जैन, गिरिराज किशोर, राजेन्द्र भटनागर, भगवान सिंह, सुधाकर अदीब, मोहन दास नेमिशारण्य उल्लेख्य हैं ।

    संस्कृति, सृजनधर्मिता, भाषा, शिल्प, कथ्य , मूल्यवत्ता आदि विविध आयामों पर हुआ यह अखिल भारतीय संवाद साहित्य और समाज के पारस्परिक सम्बन्धों को बौद्धिक जगत में देखने पहचानने की एक नई संस्कृति का संकेत है । यह एक सुखद आश्चर्य रहा कि विविध प्रकार के दबावों से जूझती दुनिया में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, दाराशिकोह, मीरा बाई, आदि शंकर, सरदार पटेल, बाबा साहब अम्बेडकर, कस्तूरबा, विवेकानंद, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, रानी लक्ष्मीबाई, कश्मीर की रानी कोटा, भारतेंदु हरिश्चन्द्र आदि अनेक सांस्कृतिक चरित्रों की गाथा कहने वाली कथा- रचनाओं का आलोचनात्मक पाठ और सजग विमर्श किया गया । इस आयोजन का एक महत्व पूर्ण पक्ष यह भी रहा कि विमर्श में अनेक रचनाओं के मूल लेखक भी उपस्थित रहे और व्याख्या करने वाले सहृदय अध्येता कई पीढ़ियों के थे । यह अनुभव और भी आश्वस्त करने वाला है कि चर्चा मुंहदेखी स्तुति या प्रशस्ति न होकर प्रश्नाकुलता और बौद्धिक साहस पर केंद्रित रही ।

    इस परिचर्चा में कई वरिष्ठ लेखक और विचारक भी सम्मिलित हुए। उनमें उल्लेखनीय हैं गोविंद मिश्र, प्रणव पण्ड्या, अभिराज राजेंद्र मिश्र , केसी अजय कुमार, प्रेमशंकर त्रिपाठी, दामोदर खड़से, रामजी तिवारी, अग्नि शेखर, श्रीराम परिहार, टीवी कट्टीमनी, रमेश पोखरियाल निशंक, नीरजा गुप्त, योगेन्द्र शर्मा ‘अरुण’, बलवंत शांतिलाल जानी और प्रकाश बरतूनिया। विश्वविद्यालय के अनेक प्राध्यापकों ने भी विमर्श में सक्रिय रूप से भाग लिया और करोना पश्चात विश्वविद्यालय की शैक्षिक जीवंतता को प्रमाणित किया। पूरा आयोजन यू ट्यूब पर प्रसारित रहने से दूरस्थ लोगों के लिए भी उपलब्ध रहा । समाज के लिए आलोक स्तंभ सदृश चरित्र स्मरण में रहने से राह सूझती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है । इस तरह के आयोजन यह भी स्थापित करते हैं कि साहित्य का संस्कृति और संस्कार के साथ भी गहन रिश्ता है । राष्ट्र की जीवंतता और आत्मनिर्भरता का यह साहित्य राग अनेक संभावनाओं वाला है जिधर कम ही ध्यान जाता है पर अच्छे मनुष्य के निर्माण के लिए साहित्य का कोई विकल्प नहीं है । भाषा और संस्कृति से जुड़े विश्वविद्यालय की साहित्य को लोक से जोड़ने की यह पहल स्तुत्य प्रयास है। इस साहित्य उत्सव की उपलब्धि के रूप में विमर्शों को पुस्तकाकार प्रकाशित करना समीचीन होगा।

    (लेखक, साहित्यकार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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