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परदादा लाए थे अफ्रीकी शेर, ज्योतिरादित्य सिंधिया लाएंगे अफ्रीफन चीते, फिर दोहराएगा इतिहास

April 28, 2022

भोपाल । कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है, मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के श्योपुर जिले (Sheopur District) स्थित कूनो पालपुर के घने जंगलों के भीतर ठीक 118 साल के बाद इतिहास में दोहराव का ऐसा रोमांचक, रोचक संयोग बनने जा रहा है, जिसके बारे में जानकर आप हैरान हो जाएंगे. इस इतिहास की पहली इबारत ग्वालियर के सिंधिया राजवंश के महाराज माधौराव सिंधिया ने 1904-05 में लिखी थी. अब उस इतिहास के दोहराव में उनकी चौथी पीढ़ी के वंशज ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) सहभागी बन रहे हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय माधौराव सिंधिया स्वयं सरकार थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार का हिस्सा हैं. संयोगों से भरा इतिहास यह है कि माधौराव सिंधिया को जूनागढ़ के नवाब ने गिर के एशियाई शेर देने से इनकार कर दिया था. तब सिंधिया ने दक्षिण अफ्रीका से शेर लाकर उन्हें सबसे पहले कूनो घाटी के जंगलों में बसाया था. उन्हें रखने के लिए डोब कुंंड के पुरातात्विक महत्व के वन क्षेत्र में 20-20 फीट ऊंचे कई पिंजरे बनवाए थे.

अब स्व. माधौराव की चौथी पीढ़ी के वशंज ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्रीय उड्डयन मंत्री के रूप में अफ्रीफन चीते लाकर कूनो के जंगलों में बसाने के लिए चल रही कवायद का हिस्सा हैं. उन्होंने बीते दिनों अफ्रीकी चीतों को भारत लाने की तैयारी को लेकर केंद्रीय श्रम एवं पर्यावरण मंत्री से चर्चा भी की थी.


बता दें कि कूनो नेशनल पार्क की स्थापना गिर गुजरात के एशियाई शेरों को लाकर बसाने के लिए की गई थी. इसका प्रोजेक्ट 26 साल पहले यानी 1996 में शुरू हुआ था, तब जंगल में रहने वाले दो दर्जन से ज्यादा गांवों के डेढ़ हजार से ज्यादा परिवारोंं को विस्थापित किया गया था. इन परिवारों के 5 हजार से अधिक लोगों को अपना जल-जंगल और जमीन छोड़ना पड़ा था. विस्थापित होने वालों की 90 फीसदी आबादी सहरिया आदिवासियों की थी, उनसे जंगल छिने तो आजीविका अपने आप ही छिन गई. नेशनल पार्क में शेर तो अब तक नहीं आ पाए, अलबत्ता सहरिया आदिवासियों की जिंदगी बदहाल होती गई, और वह और गरीब, मजलूम व बेसहारा होते गए. खैर शेर न सही, दक्षिण अफ्रीका से आ रहे चीतों से अब कूनो के जंगल को आबाद करने की कवायद चल रही है.

संयोगों की श्रृंखला
गुजरात और मप्र के बीच गिर के एशियाई शेरों को बसाने के लिए बरसों-बरस बात-विवाद-कवायद चलती रही है. मामला अदालत की चौखट तक जा पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने भी गुजरात सरकार को शेर मप्र को देने के लिए कहा, फटकार भी लगाई, गुजरात सरकार ने मप्र को शेर देने से इनकार तो कभी नहीं किया, लेकिन शेर दिए नहीं, तरह-तरह के बहाने बनाकर मामले को उलझाए रखा गया. इसके पीछे संभवतः मंशा यह है कि गुजरात एशियाई गिर के शेर की वजह से मिली राज्य की पहचान को बांटना नहीं चाहता. बता दें कि एशियाई शेर केवल गुजरात के गिर वन क्षेत्र में ही पाए जाते हैं.

यह भी एक संयोग है कि गुजरात का मध्य प्रदेश को शेर देने से कोई पहली बार इनकार नहीं किया है. ऐसा वो तब कर चुका है, जब देश आजाद नहीं था. गिर क्षेत्र जूनागढ़ की रियासत का हिस्सा था. तब भी जूनागढ़ के नवाब ने ग्वालियर राजघराने के महाराज माधौराव सिंधिया के आग्रह के बावजूद शेर देने पर टाल-मटोल करते हुए दक्षिण अफ्रीका से शेर मंगवाने का सुझाव दिया था,

गिर के शेर न मिलने पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की मंजूरी के बाद अफ्रीका से चीते मध्य प्रदेश में लाने के लिए पिछले 3 साल से प्रोजेक्ट चल रहा है. 5 साल के वक्त और 75 करोड़ की लागत वाला यह प्रोजेक्ट कोरोना की वजह से 2 साल अटका रहा. अब बात आगे बढ़ी है. कुल 20 अफ्रीकन चीते लाने का प्लान है, जिनमें से 10 नर और 10 मादा चीते लाए जाएंगे. जिन्हें दो चरणों में कूनो वन्य प्राणी राष्ट्रीय अभ्यारण्य में छोड़ा जाएगा.

इसमें संयोग यह है कि पहली बार अफ्रीकन शेरों को कूनो लाने की पहल सिंधिया राजघराने के वंशज माधौराव सिंधिया ने की थी, 118 साल बाद सरकार की कोशिश में सहभागी उसी सिंधिया राजघरानेे की चौथी पीढ़ी के वंशज ज्योतिरादित्य सिंधिंया हैं. केंद्रीय उड्डयन मंत्री के रूप में ज्योतिरादित्य नेे इन चीतों को सफलतापूर्वक ग्वालियर तक लाने और फिर कूनो तक पहुंचाने के लिए पिछले साल केंद्रीय श्रम व पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव से मुलाकात और चर्चा की थी.

हाल ही महात्मा गांधी सेवाश्रम में गोरूर्बन कैंप में शामिल युवाओं का दल श्योपुर से 52 किलोमीटर दूर गोरस श्यामपुर मार्ग पर दायीं ओर के घने जंगलों के भीतर 3 किलोमीटर दूर डोब कुंड क्षेत्र पहुंचा तो ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरे लोहे के पिंजरों को देख कुछ हैरान हुआ.

दल के साथ श्योपुर जिले के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति के ज्ञाता कैलाश पाराशर भी शामिल थे. उन्होंने कूनो के जंगल में शेर के आने और विशाल पिंजरों की पूरी कहानी बताई. उन्होंने बताया कि कूनो राष्ट्रीय उद्यान का पूरा वनक्षेत्र महाराजा ग्वालियर और जागीरदार पालपुर का प्रसिद्ध शिकारगाह रहा है. ग्वालियर रियासत के गजेटियर 1902 के अनुसार सन् 1904 में लार्ड कर्जन ग्वालियर के महाराज सिंधिया के निमंत्रण ग्वालियर शिकार के लिए आए थे. वह कूनो घाटी में पालपुर के वनक्षेत्र को देखकर बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने ही ग्वालियर नरेश को सिंह लाकर रखने की सलाह दी.

आज की तरह एक सदी पहले भी सिंह केवल जूनागढ़ के गिर वन क्षेत्र से ही मिल सकते थे. महाराज सिंधिया ने जूनागढ़ के नवाब से सिंह प्राप्त करने के जो भी प्रयास अपने स्तर पर किए वह सफल नहीं हुए. लार्ड कर्जन ने भी सहायता करने की कोशिश की, लेकिन नवाब टाल मटोल करते रहे. लार्ड कर्जन ने महाराजा सिंधिया को अफ्रीका में आबीसीनिया (वर्तमान इथोपिया) के शासक के नाम पत्र दिया, ताकि वहां से सिंह लाकर कूनों पालपुर में छोड़े जा सकें.

सिंधिया ने यह काम डीएम जाल नामक एक पारसी विशेषज्ञ को सौंपा, इसके लिए उस समय यानी 1905 में एक लाख रुपये का बजट रखा. जाल 10 सिंह लाने में सफल हो गए. जिसमें तीन बंबई बंदरगाह पहुुंचते-पहुंचते मर गए. 7 सिंह बचे जिसमें 3 नर और 4 मादा थीं. उन्हें खुद महाराजा सिंधिया ने बंबई जाकर रिसीव किया था. उन्होंने इसका नामकरण क्रमशः बुंदे, बांके, मजन, रमेली, रामप्यारी, बिजली और गेंदी रखा.

दशकों से खाली पड़े शेरों के पिंजरे क्या फिर होंगे आबाद?
अपने पालतू शेरों को नैसर्गिक वातावरण प्रदान करने के लिए 5 पिंजरे बनवाए. लगभग 20 फीट ऊंचे इन पिंजरों का द्वार लोहे की मोटी सलाखों से बना है. इसके आगे एक दीवार और बनी है. इन दरवाजों के बीच लोहे का एक सरकाने वाला दरवाजा है, इसके द्वारा शेरों को भोजन पहुंचाया जाता था. दरवाजे के अंदर शेरों को रखने के लिए स्थान का क्षेत्रफल कम रखा गया है. ताकि शेर भाग न सकें. पाराशर बताते हैं कुछ अरसे तक अफ्रीकी शेर यहां रहे. बाद में इन्हें श्योपुर के कूनो के बदले शिवपुरी के मोहना के जंगल में छोड़ा गया था. बता दें कि कूनो पालपुर का वनक्षेत्र 750 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है.

अब सबको इंतजार है अफ्रीकन चीतों का
कूनो वन्य प्राणी अभयारण्य में एशियाई शेर भले न आ पाए हों, लेकिन अब अफ्रीकी चीते आने की खबर से सब खुश हैं. अगले कुछ ही महीनों में कूनो के जंगलों में अफ्रीकी चीतों की दहाड़ सुनाई दे सकती है.श्योपुर जिले की कराहल तहसील के कूनो पालपुर मार्ग पर पड़़ने वाले गांवों के लोगों को लग रहा है कि अब पर्यटकों के आने-जाने से रौनक बढ़ेगी, उनका रोजगार भी बढ़ेगा, उनकी जिंदगी बदल जाएगी. देश में इलाके की अलग पहचान होगी, क्योंकि अफ्रीकी चीतों की बसाहट करने वाला कूनो पालपुर अभयारण्य इकलौता अभ्यारण्य बन जाएगा.

“श्योपर जिले की कराहल तहसील के कूनो पालपुर मार्ग पर पड़़ने वाले गांवों के लोगों को लग रहा है कि अब पर्यटकों के आने-जाने से रौनक बढ़ेगी. उनका रोजगार भी बढ़ेगा, उनकी जिंदगी बदल जाएगी. देश में इलाके की अलग पहचान होगी, क्योंकि अफ्रीकी चीतों की बसाहट करने वाला कूनो पालपुर अभ्यारण्य इकलौता अभ्यारण्य बन जाएगा.” – कैलाश पाराशर, संस्कृति, इतिहासविद् श्योपुर

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