– रमेश ठाकुर
पानी के पहरेदार लंबे समय से चेतावनी दे रहे हैं कि दुनिया में पानी के लिए भी भविष्य में युद्ध हो सकता है। लोग बूंद-बूंद के लिए कट मरेंगे। महानगरों में तो ऐसे हालात बनने भी लगे हैं। भूमिगत जलस्तर तेजी से नीचे जा रहा है। जमीन से पानी सूख रहा है। पानी का संकट और बड़ा हो रहा है। जितना बचा है वह वह धीरे-धीरे धरातल में समा रहा है। कभी तराई क्षेत्र में पानी बहुतायत में था। अब वहां भी जमीन बंजर होने लगी है। नमीयुक्त तराई क्षेत्र में कभी एकाध फीट नीचे ही पानी दिखता था। अब वहां जलस्तर कईफीट नीचे खिसक चुका है। राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में पानी का जलस्तर तो पाताल में घुस चुका है।
यह गंभीर मसल है। बावजूद यह चुनावी मुद्दा नहीं बनता है। यह बात दीगर है कि ‘विश्व जल दिवस’ पर घड़ियाली आंसू बहाकर इस चिंता की सुर्खियां पाई जाती हैं। चिंतन, मनन और विमर्श अगले दिन भुला दिया जाता है। ऐसे काम नहीं चलने वाला। जीवन को बचाने के लिए पानी अति जरूरी है। इसलिए कोई कारगर विकल्प खोजना ही होगा। पानी की भयावहता को लेकर किसी को कोई परवाह नहीं? सरकारें आती हैं। चली जाती हैं। योजनाएं बनती हैं। ‘विश्व जल दिवस’ के खास मौके पर दिनभर पानी सहेजने को लंबे-चौड़े भाषण होते हैं। अगली सुबह सबकुछ भुला दिया जाता है। यह प्रवृत्ति नहीं बदली तो वह कहावत कभी भी चरितार्थ हो सकती जो बे-पानी पर कही गई है-रहिमन पानी राखिए, पानी बिन सब सून’ पानी गए न उबरे, मोती मानस सून।
याद करिए कुछ दशक पहले के गांव, कस्बे और शहर। सब जगह तालाब और कुआं होते थे। नदी-नाले तो प्रकृति प्रदत्त हैं। अब तालाब और कुएं नजर नहीं आते हैं। कुछके बचे हैं तो वह खुद पानी को तरस रहे हैं। सूखे पड़े हैं। सरकारी आंकड़ा भयावह है। वह साफ करता है कि बीते एकाध दशक में करीब 10-15 हजार नदियां गायब हो गई हैं। करीब इतने ही छोटे-बड़े नालों का पानी सूख चुका है। अब यह जलस्रोत सिर्फ बारिश के दिनों में ही गुलजार होते हैं। नदी और तालाबों के सूखने से बेजुबान जानवरों और पक्षियों को भी भारी नुकसान हुआ है। इस कारण अब ग्रामीण क्षेत्रों में दुर्लभ पक्षी दिखाई नहीं पड़ते। ऐसे पक्षियों की संख्या असंख्य है जो बिन पानी के मर चुके हैं। कालांतर से लेकर प्राचीन काल तक दिखाई देने वाले पक्षी बिना पानी के ही मौत के मुंह में समाए हैं। ऐसी प्रजातियों के खत्म होने अकेला कारण पानी का न होना है।
दूषित पानी को लेकर एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि स्वच्छ जल के बिना लोग गंभीर बीमारियों से भी घिरते जा रहे हैं। जल संरक्षण की जिम्मेदारी सिर्फ सरकारों के भरोसे छोड़ देने से समस्या का समाधान नहीं होगा? सामाजिक स्तर पर भी हम सबको सामूहिक प्रयास करने होंगे। जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट भी सोचने पर मजबूर करती है। मानसून में भी देश के तकरीबन जलाशय सूखे रहे। यह तब है जब बीते दो वर्षों में बारिश अच्छी हुई है। वर्षा का पानी भी अगर हम बचा लें तो संभावित खतरों से लड़ सकते हैं। मगर बात वहीं आकर रुक जाती है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे तो बांधे कौन? पानी अगर यूं ही खत्म होता रहा तो उससे पृथ्वी का वातावरण में खराब होगा।
समूचे हिंदुस्तान के 76 विशालकाय जलाशयों में कुछेक को छोड़ दें तो बाकी मृत्यु के कगार पर हैं। उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध, रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर, तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित, कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी, ऊपरी तापी, राजस्थान का राण प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, ओडिशा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी और कंग्साबती जलाशय सूखने के कगार पर हैं। पूर्ववर्ती सरकारों ने जलाशयों से बिजली बनाने की भी योजना भी बनाई पर वह कागजों में दम तोड़ गई। शायद वह वक्त ज्यादा दूर नहीं, जब हमें पानी और बिजली की भयावहता का सामना करना पड़ेगा। मशहूर शायर बशीर बद्र लिख भी चुके हैं-अगर फुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना/हर इक दरिया हजारों साल का अफसाना लिखता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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