– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जापान के नए प्रधानमंत्री फ्यूमियो किशिदा ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना, यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। भारत और जापान के बीच कुछ दिन पहले चौगुटे (क्वाड) की बैठक में ही संवाद हो चुका था लेकिन इस द्विपक्षीय भेंट का महत्व इसलिए भी था कि यूक्रेन-रूस युद्ध अभी तक जारी है। दुनिया यह देख रही थी कि जो जापान दिल खोलकर भारत में पैसा बहा रहा है, कहीं वह यूक्रेन के सवाल पर भारत को फिसलाने की कोशिश तो नहीं करेगा लेकिन भारत सरकार को हमें दाद देनी होगी कि मोदी-किशिदा वार्ता और संयुक्त बयान में वह अपनी टेक पर अड़ी रही और अपनी तटस्थता की नीति पर टस से मस नहीं हुई।
यह ठीक है कि जापानी प्रधानमंत्री ने अगले पांच साल में भारत में 42 बिलियन डाॅलर की पूंजी लगाने की घोषणा की और छह मुद्दों पर समझौते भी किए लेकिन वे भारत को रूस के विरुद्ध बोलने के लिए मजबूर नहीं कर सके। भारत ने राष्ट्रों की सुरक्षा और संप्रभुता को बनाए रखने पर जोर जरूर दिया और यूक्रेन में युद्धबंदी की मांग भी की लेकिन उसने अमेरिका के सुर में सुर मिलाते हुए जबानी जमा-खर्च नहीं किया। अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने पहले तो यूक्रेन को पानी पर चढ़ा दिया। उसे नाटो में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया और रूस ने जब हमला किया तो सब दुम दबाकर बैठ गए।
यूक्रेन को मिट्टी में मिलाया जा रहा है लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों की हिम्मत नहीं कि वे रूस पर कोई लगाम कस सकें। किशिदा ने मोदी के साथ बातचीत में और बाद में पत्रकारों से बात करते हुए रूस की काफी भर्त्सना की लेकिन मोदी ने कोरोना महामारी की वापसी की आशंकाओं और विश्व राजनीति में आ रहे बुनियादी परिवर्तनों की तरफ ज्यादा जोर दिया। जापानी प्रधानमंत्री ने चीन की विस्तारवादी नीति की आलोचना भी की। उन्होंने दक्षिण चीनी समुद्र का मुद्दा तो उठाया लेकिन गलवान घाटी की भारत-चीन मुठभेड़ का जिक्र नहीं किया।
भारत सरकार अपने राष्ट्रहितों की परवाह करे या दुनिया भर के मुद्दों पर फिजूल की चौधराहट करती फिरे ? चीनी विदेश मंत्री वांग यी भी भारत आ रहे हैं। चीन और भारत, दोनों की नीतियां यूक्रेन के बारे में लगभग एक-जैसी हैं। भारत कोई अतिवादी रवैया अपनाकर अपना नुकसान क्यों करें? भारत-जापान द्विपक्षीय सहयोग के मामले में दोनों पक्षों का रवैया रचनात्मक रहा।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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