– योगेश कुमार गोयल
रूस और यूक्रेन की जंग, दिन बीतने के साथ तबाही की नई तस्वीर पेश कर रही है। इस जंग में दोनों देशों के सैनिकों के अलावा काफी आम लोग भी मारे जा चुके हैं। एक भारतीय छात्र नवीन शेखरप्पा की गोलीबारी के कारण और एक की ब्रेन हेमरेज से मौत हुई है जबकि एक छात्र गोलियां लगने से घायल हुआ है। वैसे यूक्रेन पर रूस ने पहली बार हमला नहीं किया है बल्कि 2014 में भी उसने यूक्रेन का हिस्सा रहे शहर क्रीमिया पर हमला कर उसे कब्जा लिया था और तब रूस का कहना था कि उसने रूसी लोगों की सुरक्षा के लिए ही क्रीमिया पर कब्जा किया है।
पिछले 8 साल में यूक्रेन में सरकार तथा रूसी समर्थक अलगाववादियों के बीच संघर्ष में करीब 15 हजार लोग मारे जा चुके हैं। हालांकि यूक्रेन की राजधानी कीव को ‘रूसी शहरों की मां’ कहा जाता रहा है और रूस तथा यूक्रेन के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक संबंध रहे हैं, ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल यही है कि आखिर क्या कारण रहे कि रूस ने पूरी दुनिया की धमकियों और प्रतिबंधों की परवाह किए बिना यूक्रेन पर हमला बोल दिया? क्यों दो पड़ोसी देश एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गए?
यूक्रेन रूस की आंखों में तब से खटक रहा है, जब 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अस्तित्व में आया और उसने तब अपनी आजादी का ऐलान करते हुए रूसी प्रभाव से मुक्ति पाने के लिए पश्चिमी देशों से नजदीकियां बढ़ानी शुरू की थी। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए यूक्रेन नाटो में शामिल होना चाहता था और अपनी भौगौलिक स्थिति का लाभ उठाते हुए अमेरिका से मांग कर रहा था कि उसे भी नाटो का सदस्य बनाया जाए। यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनने से रोकने के लिए पुतिन ने उस पर दबाव बनाने के लिए कुछ महीनों से यूक्रेनी सीमा पर अपने लाखों सैनिकों को तैनात रखा और तभी से यूक्रेन पर रूस के संभावित हमले की चर्चाएं शुरू हो गई थी।
हालांकि कई महीनों तक रूसी राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन पर हमले की किसी भी योजना से इनकार करते रहे किन्तु रूस जिस प्रकार पिछले एक साल से यूक्रेन की घेराबंदी करने में जुटा था, उससे पूरी दुनिया को रूस के अगले कदम का भली-भांति अहसास हो गया था। हालांकि यूक्रेन पर 24 फरवरी को शुरू किए गए हमलों को रूस उस पर कब्जा करने के लिए किया जा रहा युद्ध नहीं बता रहा है बल्कि उसका दावा है कि वह यूक्रेन के लोगों को अत्याचार से मुक्ति दिलाना चाहता है। रूस का दावा है कि वह यूक्रेन के लोगों को आजाद कराने के लिए ये हमले कर रहा है और उसकी यूक्रेनी शहरों पर कब्जा करने की कोई मंशा नहीं है।
यूक्रेन के राष्ट्रपति लादिमीर जेलेंस्की ने दिसम्बर 2021 में नाटो की सदस्यता लेने की घोषणा की थी लेकिन रूस किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि यूक्रेन नाटो के साथ जुड़े। यही रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े भयानक युद्ध का प्रमुख कारण बना। यूक्रेन पर बढ़ता अमेरिकी और यूरोपीय देशों का प्रभाव लंबे समय से रूस की आंखों की किरकरी बना था और यही कारण रहा कि रूस ने उसे नाटो का सदस्य बनने से रोकने के लिए दुनिया के बड़े-बड़े देशों से नाराजगी मोल लेते हुए भी उसके साथ साधे तौर पर युद्ध की शुरूआत कर दी।
वैसे भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन बरसों से कहते रहे हैं कि यूक्रेन कभी एक स्वतंत्र राष्ट्र था ही नहीं। रूस की यूक्रेन के साथ दो हजार किलोमीटर से भी ज्यादा लंबी सीमा है और यदि यूक्रेन नाटो में शामिल हो जाता है तो इस रूसी सीमा तक नाटो सेनाओं की पहुंच बहुत आसान हो जाएगी। फिलहाल पश्चिमी देशों से रूसी राजधानी मास्को की जो दूरी करीब 1600 किलोमीटर है, वह रूसी सीमा तक उनकी आसान पहुंच के कारण घटकर महज 640 किलोमीटर रह जाएगी।
दूसरी ओर यूरोप में रूस के बढ़ते दबदबे को रोकने के लिए अमेरिका तथा यूरोपीय देश यूक्रेन का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहे हैं। रूस तो यूक्रेन को खुलेआम पश्चिमी दुनिया की कठपुतली बताता रहा है और कहता रहा है कि अमेरिका सहित नाटो के सदस्य देश यह लिखित गारंटी दे कि वे पूर्वी यूरोप तथा यूक्रेन में अपनी सैन्य गतिविधियां नहीं करेंगे।
दरअसल नाटो के जरिये अमेरिका रूस की घेराबंदी करने के प्रयासों में जुटा रहा है। नाटो में फिलहाल तीस देश हैं और नाटो देशों के बीच यह समझौता है कि यदि नाटो के किसी भी देश पर कोई दूसरा देश हमला करता है तो उसे नाटो के सभी सदस्य अपने ऊपर हुआ हमला मानेंगे और उस हमले का अपनी मिली-जुली सैन्य शक्ति से जवाब देंगे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका तथा सोवियत रूस के बीच कट्टर प्रतिद्वंदिता रही। 1991 में सोवियत संघ को 15 हिस्सों में बांटकर अमेरिका पूरी दुनिया की अगुवाई करने वाला देश बन गया। उसके बाद से ही अमेरिका नाटो के जरिये सोवियत संघ से अलग हुए देशों को अपने प्रभाव में लेने में जुट गया। नाटो की आड़ में यूरोप में बढ़ती अमेरिकी गतिविधियों के दौर में 1999 में रूस की राजनीति में व्लादिमीर पुतिन का पदार्पण हुआ, जिसके बाद से ही वह सोवियत संघ के पुराने गौरव को हासिल करने में जुटे रहे और बहुत जल्द रूस को दुनिया की एक प्रमुख सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित करने में सफल हुए। 1999 में ही उन्होंने चेचन्या को रूस में मिला लिया था। 2008 में भी उन्होंने सोवियत संघ का हिस्सा रहे जॉर्जिया के दो राज्यों को भी स्वतंत्र देश की मान्यता देते हुए वहां अपना सैन्य अड्डा बना लिया था।
हालांकि 2004 में अमेरिका को सोवियत संघ से अलग हुए तीन देशों लातविया, लिथुआनिया और इस्टोनिया को नाटो का सदस्य बनाने में सफलता मिल गई। बाल्टिक क्षेत्र स्थित इन तीनों देशों की सीमाएं भी रूस से लगती हैं, जिससे अमेरिका की पहुंच इन सीमाओं तक आसान हो गई।
रूस समर्थित विक्टर यानुकोविच 2010 में यूक्रेन के राष्ट्रपति बने, जिनके रूस के साथ बेहद करीबी संबंध रहे और उन्होंने तब यूरोपियन यूनियन के साथ जुड़ने के यूक्रेन के निर्णय को खारिज कर दिया था। यूक्रेन में उनके उस फैसले का कड़ा विरोध हुआ, जिसके चलते 2014 में उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा।
तब राष्ट्रपति बने पेट्रो पोरोशेंको ने यूरोपियन यूनियन के साथ डील पर हस्ताक्षर किए, जिसके बाद से रूस और यूक्रेन के बीच तनाव बढ़ता गया। 2014 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला कर क्रीमिया पर कब्जा कर लिया, तब से अमेरिका यूक्रेन को नाटो में मिलाने की कोशिशें कर रहा है। दरअसल अमेरिका का मानना है कि यदि रूस को नहीं रोक गया तो यूक्रेन का स्वतंत्र अस्तित्व भी खतरे में आ सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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