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    उत्तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्य

  • January 31, 2022

    – वीरेन्द्र सिंह परिहार

    होने को तो उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, उत्तराखण्ड, मणिपुर और गोवा में भी विधानसभा के चुनाव सम्पन्न होने जा रहे हैं। पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सिर्फ उत्तर प्रदेश के लोगो में ही नहीं, पूरे देश के लोगो में एक विशेष तरह की उत्सुकता है। इसकी एक बड़ी वजह यह हो सकती है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटों के चलते दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है।

    चुनाव परिणामों को लेकर अभीतक जो 8 चैनलों के सर्वे आये हैं, उसमें सात भाजपा को और मात्र एक चैनल सपा को जिता रहा है। निष्पक्ष पर्यवेक्षकों का कहना है कि आयेंगे तो योगी ही, यह बात अलग है कि इसबार भाजपा की विधानसभा में सीटे 2017 की तुलना में कम आयेंगी। ऐसा मानना है कि भाजपा की जहाँ 50 के आसपास सीटें कम हो सकती हैं, वहीं सपा 50 से लेकर 100 सीटों तक बढ़ सकती है।

    गौर करने का विषय यह कि ऐसा क्यों है कि भाजपा को पिछली बार की तुलना में कम सीटें आयेंगी, जबकि मुख्यमंत्री योगी को लेकर लोगो में कोई आक्रोश जैसी स्थिति नहीं है। अधिकांश लोग योगी सरकार में कानून-व्यवस्था की स्थिति को लेकर संतुष्ट नजर आते हैं। विगत 5 वर्षाें में विकास की दृष्टि से उत्तर प्रदेश ने कई कीर्तिमान कायम किये हैं। इसलिये पहले राष्ट्रीय स्तर पर बहुत पीछे रहते हुये कई मामलों में उत्तर प्रदेश पहले और दूसरे स्थान पर आ गया है। जहां पहले पर्याप्त बिजली सिर्फ तीन जिलों को मिलती थी, वहीं अब प्रचुर मात्रा में पूरे प्रदेश को मिल रही है।

    वस्तुतः 2017 के चुनाव में अखिलेश सरकार के सत्ता विरोधी कारक और मोदी फैक्टर के चलते भाजपा को लोगों ने एकतरफा वोट दिया। इसबार कुछ कारणों से स्थितियां अलग हैं। पहली बड़ी बात तो यह कि इसबार बसपा पूरी तरह अप्रासंगिक और मुकाबले से बाहर हो चुकी है। पिछली बार जहाँ उसे 23 प्रतिशत मत मिले थे, वहीं अब वह अधिक से अधिक 12-13 प्रतिशत मत ही जुटा सकने की स्थिति में है। इसका बड़ा कारण यह कि पिछले चुनाव में ही सपा के 47 के मुकाबले बसपा को मात्र 19 सीटें मिली थी। ऐसी स्थिति में भाजपा विरोधी मतदाता बसपा को छोड़कर सपा के साथ हो लिये हैं।

    पिछली बार जहाँ मुसलमानों का एक तबका बसपा के साथ था, वह भाजपा को हराने की दृष्टि से सपा के साथ आ चुका है। यद्यपि उत्तर प्रदेश में आईएमआई के ओवैसी फैक्टर को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में यदि ओवैसी के पक्ष में मुसलमानों का एक बड़ा तबका गोलबंद हुआ तो भाजपा का रास्ता आसान हो जायेगा।

    भाजपा की सीटें कम होने का दूसरा बड़ा कारण यह कि पिछली बार जाट मतदाताओं ने एकतरफा ढंग से भाजपा का साथ दिया था, लेकिन इस बार कृषि कानूनों और कुछ जयंत के चौधरी चरण सिंह के पौत्र होने के कारण सहानुभूति के चलते जाटों का बड़ा हिस्सा सपा आरएलडी के साथ जाने की संभावना बन गई है। यद्यपि जिस ढंग से गृहमंत्री अमित शाह इस दिशा में जुट गये हैं और जिसका असर दिखना शुरू हो गया है। बड़ी बात यह कि 2012 के मुजफ्फरपुर दंगों को लेकर जाटों और मुसलमानों में व्याप्त दूरियां अभी पट नहीं सकी हैं, फिर उत्तर प्रदेश में सपा उम्मीदवारों और उनके समर्थकों द्वारा जिस ढंग से जाटों और दूसरे हिन्दुओं को धमकाया जा रहा है- जमीन पर उसका असर दिखना शुरू हो गया है।

    समस्या यह है कि भाजपा जहाँ अपनी नीतियों एवं कार्यों के आधार पर मतदाताओं का समर्थन जुटा रही है, सपा विशुद्ध जातीय एवं साम्प्रदायिक आधार पर उत्तर प्रदेश की सत्ता पाना चाहती है। इसी के चलते अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के कई छोटे-छोटे जातीय दलों से गठबन्धन किया। इस दिशा में उत्तर प्रदेश के ब्राम्हणों को भी खूब बरगलाने की कोशिश की गई। विकास दुबे और कुछ ब्राह्मण जाति के माफिआओं के एन्काउन्टर और कठोर कार्रवाई के चलते विरोधी दलों ने इसे योगी सरकार के विरोध में ब्राह्मण विरोधी बतौर प्रचारित किया। ब्राह्मण को अपने पाले में लाने के लिये जहाँ मायावती प्रबुद्ध सम्मेलन करने लगीं, वहीं अखिलेश परशुराम मंदिर बनाने की बातें करने लगे। लेकिन ब्राह्मणों को यह अच्छी तरह पता है कि सपा और बसपा जाति-विशेष की पार्टियां हैं। इसलिये जो सर्वे आ रहे हैं, उसमें कम से कम दो तिहाई ब्राह्मण मतदाता तो भाजपा के साथ खड़ा दिखाई ही देता है। अन्ततः अखिलेश और मायावती को स्वतः ब्राह्मणों से कोई खास उम्मीद नहीं रह गई है। इसलिये आनुपातिक रूप से उन्हें बहुत कम उम्मीदवारी दी गई है।

    मुस्लिम समुदाय को पूरी तरह अपने पाले में करने के लिये अखिलेश यादव ने बहुत सारे बाहुबली और कुख्यात अपराधियों को सपा का टिकट दिया है। इसमें सबसे उल्लेखनीय नाम नाहिद हसन का है, जिसे कैराना से उम्मीदवार बनाया गया है। उल्लेखनीय है कि यह वही व्यक्ति है, जिसके चलते कैराना से 2016 में हिन्दुओं को पलायन करना पड़ा था। इसके अपराधों की लम्बी सूची है और यह फरार घोषित था पर नामांकन करते वक्त पुलिस द्वारा पकड़ा गया। इसी तरह से हापुड़ के धौलाना सीट से सपा प्रत्याशी असलम चौधरी पर भी कई गम्भीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। आजम खान जो विगत वर्षाें से जेल में बंद हैं और उनके विरुद्ध सैकड़ों मुकदमे हैं। जैसा कि गृहमंत्री शाह कहते हैं कि आजम को लेकर तो आईपीसी की धाराएं ही कम पड़ गई है। इसी तरह से अखिलेश ने दूसरे समुदायों से उम्मीदवारी में बाहुबलियों और अपराधियों को प्राथमिकता दी है।

    विभिन्न चैनलों के सर्वे में मुख्यमंत्री पद भी पसंद की दौड़ में भी योगी आदित्यनाथ सबसे आगे हैं। उन्हें जहाँ करीब 45 प्रतिशत लोग मुख्यमंत्री पद के लिये पसंद करते रहे हैं, वहीं अखिलेश का आकड़ा अधिकतम 35 प्रतिशत तक ही जाता है। यह बताना प्रासंगिक होगा कि सपा का समर्थन जहाँ मुस्लिम और यादव तथा एक हद तक जाट कर सकते हैं, वहीं भाजपा के पक्ष में अधिकतम स्वर्ण, गैर-यादव, पिछड़ी जातियाँ और गैर-जाटव अनुसूचित जाति के लोग हैं। कांग्रेस पार्टी तो पहले ही परिदृश्य से गायब है। इसबार बसपा भी गायब है।

    यह अत्यन्त दुर्भाग्य का विषय है कि सपा जैसी पार्टी का जनाधार जातीय और साम्प्रदायिक ताकते हैं, पर कुछ भी हो हमारा लोकतंत्र कुल मिलाकर परिपक्व हो चला है। यह कहने में कोई झिझक नहीं कि 10 मार्च को जब नतीजे खुलेंगे तो देश-दुनिया को योगी आदित्यनाथ पुनः मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते दिखाई पड़ेंगे।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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