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    पद्म पुरस्कारों पर बेवजह की अशोभनीय राजनीति

  • January 28, 2022

    सियाराम पांडेय ‘शांत’

    गणतंत्र दिवस समारोह चुनाव के मौसम में मनाया जाए और उस पर राजनीति न हो, यह कैसे मुमकिन है? जिस तरह शेर से शाकाहार की उम्मीद नहीं की जा सकती, उसी तरह विरोधी से प्रशंसा की अपेक्षा व्यर्थ है। इस गणतंत्र दिवस समारोह पर भी कुछ वैसा ही हुआ।

    भारत की शान में चार चांद लगाने वाली गणमान्य हस्तियों को पद्म पुरस्कार देने की परंपरा 1954 से चली आ रही है। सम्मान-पुरस्कार देने का यह अनुष्ठान हर साल होता है। हर बार सरकार इस बहाने कुछ नया और चौंकाने वाला काम करती है। यह साल भी इसका अपवाद नहीं रहा। अयं निजः परो वेति के फर्क को पाटते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने इस बार देश की 128 हस्तियों का पद्म पुरस्कारों के लिए चयन किया।

    पहले इन पुरस्कारों पर सत्तारूढ़ दल के नेताओं का वर्चस्व हुआ करता था। अपनों को उपकृत करने-कराने के लिए किस तरह सिफारिशें की और कराई जाती थीं, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सिफारिश का स्वरूप ही बदल दिया। अब कोई भी भारतीय किसी का नाम संस्तुत कर सकता है। यह अपने आप में बड़ी बात है। इसे पारदर्शिता और निष्पक्षता की रोशनी में देखना ज्यादा मुनासिब होगा। राष्ट्रीय पुरस्कार तो देश की राय के अनुरूप ही दिया जाना चाहिए।

    केंद्र सरकार ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान देने वाली 128 हस्तियों को पद्म पुरस्कार देने की घोषणा की। जनरल बिपिन रावत, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, राधेश्याम खेमका और प्रभा अत्रे को पद्म विभूषण। गुलाम नबी आजाद, बुद्धदेव भट्टाचार्य, सुंदर पिचाई, सत्य नडेला, साइरस पूनावाला समेत 17 विभूतियों को पद्मभूषण और 107 को पद्मश्री सम्मान देने की घोषणा की गई है। जाहिर है, यह राजनीति से ऊपर उठकर किया गया है। यह विरोधी विचारधारा के नेताओं को भी उनके काम के आधार पर सम्मानित और गौरवान्वित करने का प्रयास है। पूरे देश की गणमान्य हस्तियों को इस सूची से जोड़ने की कोशिश की लेकिन इसके बाद भी इस पर राजनीति का होना समझ से परे है।

    पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पद्मभूषण पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया है। जबकि जी-23 में शामिल वरिष्ठ कांग्रेस नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने इस पुरस्कार को तहेदिल से स्वीकार किया है। इस पर जयराम रमेश ने बुद्धदेव भट्टाचार्य की प्रशंसा की है कि उन्होंने पुरस्कार लेने से इनकार कर गुलाम रहने की बजाय आजाद रहना पसंद किया है। उनका तंज निश्चित रूप से गुलाम नबी आजाद पर है।

    ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की छटपटाहट पहले ही सामने आ गई थी कि वाम नेताओं के बहाने भाजपा पश्चिम बंगाल में अपनी जड़ें जमाना चाहती है। पश्चिम बंगाल की एक और गायिका ने पद्मश्री पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया है। उनकी बेटी का तर्क है कि यह सम्मान उनके कद के अनुरूप नहीं है।

    यह उनकी अपनी सोच हो सकती है। वैसे मेरा मानना है कि इस बार जिन विभूतियों का नाम सम्मान के लिए चुना गया है, उससे पुरस्कार का भी मान बढ़ा है। बुद्धदेव भट्टाचार्य की पत्नी ने जो कहा है, उससे उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता का पता चलता है। उन्होंने कहा है कि उनके पति बीमार हैं, शारीरिक रूप से कमजोर हैं लेकिन मानसिक रूप से अपने विचारों के प्रति बेहद दृढ़ हैं। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा है कि वामपंथी पुरस्कार के लिए जनसेवा नहीं करता। यह अच्छी बात है लेकिन वामपंथियों ने कोई पुरस्कार लिए ही न हों, यह तो नहीं कहा जा सकता।

    यह और बात है कि यूपीए सरकार में ज्योति बसु को भी पद्म पुरस्कार देने की पेशकश की गई थी, जिससे उन्होंने इनकार कर दिया था।केरल के पूर्व मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद भी पद्म अवार्ड लेने से इनकार कर चुके हैं। दूसरी विचारधारा की सरकार पुरस्कार दे तो उसे लेकर अपनों के बीच नजरें क्यों चुराना। सरकार तो सबका साथ, सबका विकास के अपने नारे पर जन सहमति की मुहर लगाना चाहती है।विपक्ष क्यों न इसमें नफा-नुकसान देखे। पुरस्कार लौटाने में बहुधा उसे पाने से ज्यादा प्रसिद्धि मिल जाती है।

    रही बात संदेश की तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हर काम में राजनीतिक संदेश छिपा होता है। उन्होंने कमलपुष्प वाली उत्तराखंडी टोपी गणतंत्र दिवस पर पहन ली तो उसे उत्तराखंड को महत्व देने से जोड़कर न केवल देखा गया बल्कि उसका कुछ इसी तरह का प्रचार भी हुआ। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव है। उन राज्यों की झांकियां राजपथ पर प्रमुखता से दिखीं, इसे भी चुनाव से जोड़कर देखा गया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा की स्थापना हो या 23 जनवरी से गणतंत्र दिवस समारोह की घोषणा, यह बंगाली भावना को अपने से जोड़ने की केंद्र सरकार की कवायद तो कही ही जा सकती है।

    गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर भारत सरकार की ओर से वाराणसी की 6 हस्तियों, गीता प्रेस गोरखपुर के अध्यक्ष और सनातन धर्म की प्रसिद्ध पत्रिका कल्याण के संपादक राधेश्याम खेमका को मरणोपरांत पद्म विभूषण, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व प्रति कुलपति व न्याय शास्त्र के विद्वान प्रो. वशिष्ठ त्रिपाठी, बीएचयू के मेडिसिन विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ. कमलाकर त्रिपाठी, 125 वर्षीय योग गुरु शिवानंद स्वामी, बनारस घराने के ख्यातिप्राप्त सितार वादक पं. शिवनाथ मिश्र और जानी-मानी कजरी गायिका अजीता श्रीवास्तव को पद्मश्री पुरस्कार दिया गया है। जाहिर है कि इसे भी राजनीतिक चश्मे से देखने-परखने की कोशिश होगी।

    गणतंत्र दिवस समारोह और पद्म पुरस्कारों में भी राजनीतिक उत्स तलाशने वालों को इस अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा की गई एक देश-एक चुनाव पर सोचने की नसीहत पर भी गौर करना चाहिए। ऐसे तो हर साल चुनाव होते ही रहेंगे और विकास कार्य भी बाधित होते रहेंगे। गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता तब है जब हम जाति, धर्म और राजनीति के भंवर से ऊपर उठ सकें और अपने को एक अच्छा इंसान, अच्छा भारतीय मानने और तदनुरूप व्यवहार करने की आज से ही शुरुआत करें।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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