– कुलभूषण उपमन्यु
वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से पैदा हुए खतरों से दुनिया परिचित हो चुकी है। आज यह कोई वैज्ञानिक भविष्यवाणी मात्र न रह कर एक सच्चाई की तरह विभिन्न प्राकृतिक दुर्घटनाओं के रूप में सामने आ रही है। बाढ़, सूखा, समुद्री तूफ़ान, अंधड़, बेमौसमी बर्फबारी, ग्लेशियर पिघलने के कारण आसन्न जल संकट जैसे कितने ही बदलाव दृष्टि गोचर हो रहे हैं। समुद्री तटों से लगते इलाके और देश, बढ़ते समुद्र तल के कारण डूबने के खतरे में घिर सकते हैं। इन खतरों के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ लगातार पहल कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन इस दिशा में आधारभूत सम्मेलन है। 1992 में इस सम्मेलन के निष्कर्षों पर 197 देशों ने हस्ताक्षर किए और 21 मार्च 1994 से इस समझौते को लागू माना गया।
इस समझौते की मूल बात यह है कि इसके द्वारा यह माना गया कि जलवायु परिवर्तन एक समस्या है और इसके समाधान के लिए कुछ किया जाना चाहिए। जिसका मूल कारक हरित प्रभाव गैसें हैं जो वैश्विक तापमान वृद्धि का कारण हैं। ये गैसें उर्जा उत्पादन के लिए मुख्यतः कोयला या खनिज तेल जलाने के कारण पैदा हो रही हैं और वातावरण में जमा हो रही हैं। इसी वृद्धि से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इस समझौते द्वारा विभिन्न पक्षों से यह अपेक्षा की गई कि वे हरित-प्रभाव-गैसों के मानव-जनित उत्सर्जन को इस सीमा के भीतर नियंत्रित करेंगे जिससे जलवायु तन्त्र पर खतरनाक प्रभाव न पड़े।
इस लक्ष्य की घोषणा हो ताकि एक शुरुआत हो और आगे चल कर विस्तृत, विशिष्ट समझौते किए जा सकें। इसमें जलवायु के सन्दर्भ में साझी किन्तु जिम्मेदारियों के सन्दर्भ में अलग-अलग जिम्मेदारियों की संकल्पना की गई। जिसका अर्थ यह है कि विकासशील देशों से यह उम्मीद की जाती है कि वे जलवायु परिवर्तन रोकने में योगदान करेंगे किन्तु विकसित देश जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए पहलकदमी करेंगे क्योंकि ये देश ऐतिहासिक रूप से पहले ही बहुत ज्यादा हरित-प्रभाव-गैसों का उत्सर्जन कर चुके हैं।
विकासशील देशों में खासकर और वैश्विक स्तर पर आमतौर पर टिकाऊ आर्थिक विकास पर बल देने की बात की गई। इस दिशा में विकासशील देशों की उपलब्धि व प्रदर्शन को विकसित देशों द्वारा तकनीक हस्तान्तरण और आर्थिक सहायता से जोड़ा गया। इस समझौते में सभी देशों द्वारा हरित प्रभाव गैसों के उत्सर्जन की मात्रा की घोषणा करने और विकसित देशों द्वारा हरित प्रभाव गैसों के उत्सर्जन को कम करने से संबंधित नीतियों की घोषणा करने की भी अपेक्षा की गई। इसके बाद लगातार सम्मेलन होते रहे जिन्हें संबंधित पक्ष सम्मेलन कहा गया।
इन सम्मेलनों में क्योटो सम्मेलन पहला महत्वपूर्ण सम्मेलन है जहां क्योटो प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर हुए। इस प्रोटोकॉल द्वारा पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन के आशयों को लागू करने के लिए नियम बनाए गए। रूस द्वारा मान्यता देने के बाद 2005 में इसे लागू माना गया। किन्तु हरित गैसों के उत्सर्जक बड़े देश अमेरिका ने इस प्रोटोकोल को मान्यता नहीं दी क्योंकि विकासशील देश होने के कारण पहले दर्जे के हरित गैस उत्सर्जक चीन और तीसरे दर्जे के उत्सर्जक भारत पर कोई नियन्त्रण इस प्रोटोकॉल में नहीं सुझाए गए थे।
जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन में यह अपेक्षा की गई थी कि जलवायु परिवर्तन की प्रक्रिया को उस स्तर के भीतर रोकना होगा जिससे परिस्थिति तंत्र स्वयं को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल ढाल सके और टिकाऊ विकास और कृषि उत्पादन पर घातक प्रभाव न पड़े। इस प्रोटोकॉल में 37 औद्योगिक देशों के लिए उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए गए। 1990 के स्तर से 5% उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य रखा गया। अमेरिका ने इसे भेदभाव पूर्ण मानते हुए इसे मान्यता नहीं दी, अन्य 184 देशों ने इसे मान्यता दे दी। विकासशील देशों के लिए कोई लक्ष्य इस तर्क पर निर्धारित नहीं किया गया कि जिन विकसित देशों ने जलवायु को पहले ही अधिक नुकसान पहुंचाया है, उन्हें पहल करनी चाहिए। उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य की पूर्ति न करने पर आर्थिक दंड का भी प्रावधान किया गया।
पेरिस समझौता इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें सभी देशों को अपने अपने उत्सर्जन स्तर में कमी करने के वादे दायर करने का प्रावधान है। इसे राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान कहा गया है। हर 5 वर्ष में इसका पुनरावलोकन व आकलन करने की वैश्विक स्तर पर व्यवस्था है। यह समझौता 2015 में किया गया। इसमें तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति के समय के तापमान से 2 डिग्री सेंटीग्रेड के नीचे रोकने का लक्ष्य रखा गया है। कोशिश यह करनी है कि तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेंटी. से कम पर ही रुक जाए। वैश्विक स्तर पर नेट जीरो उत्सर्जन स्तर 2050 तक हासिल करना है।
नेट जीरो उत्सर्जन का अर्थ है कि हरित प्रभाव गैसों का उत्सर्जन उतना ही होगा जितनी मात्रा में हरित प्रभाव गैसों का उत्सर्जन कुछ अन्य गतिविधियों द्वारा घटा लिया गया है। इसे जलवायु तटस्थ या कार्बन तटस्थ स्थिति भी कहा गया है। देशों ने अपने लक्ष्य स्वयं निर्धारित किये हैं फिर भी ट्रम्प प्रशासन के अंतर्गत अमेरिका ने समझौते से किनारा कर लिया था हालांकि अब बाईडन प्रशासन ने फिर समझौते को मान्यता दे दी है। पेरिस समझौता आर्थिक, तकनीकी और क्षमता निर्माण के लिए ढांचा बनाने की व्यवस्था करता है ताकि समझौते की पूर्ति के लिए जरूरत मंद देशों को सहायता दी जा सके।
इसी कड़ी में जलवायु परिवर्तन से संबंधित पक्षों का 26 वां सम्मेलन ग्लास्गो यूके में 31 अक्तूबर से 12 नवंबर 2021 तक संपन्न हुआ। जिसमें पेरिस समझौते के लक्ष्यों तक पहुंचने और समय पर इन लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में निर्णय लिए। 153 देशों से नेट जीरो उत्सर्जन स्तर हासिल करने के वादे प्राप्त हुए। इसमें मुख्य चार लक्ष्यों पर निर्णय लिए गए-
1. न्यूनीकरण:- हरित प्रभाव गैसों के उत्सर्जन को 2030 तक नेट जीरो लक्ष्य प्राप्त करके कम करने के वादे किए गए। अलग-अलग देशों ने इसमें छूट लेते हुए समय सीमा को बढ़ा कर भी घोषित किया। कुछ ने 2040 तक, कुछ ने 50 तक और भारत ने 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन स्तर हासिल करने का वादा किया।
2. अनुकूलन:- जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने के प्रयासों को बढ़ावा देने का निर्णय हुआ। 80 देश अनुकूलन योजनाओं में सम्मिलित हो गए हैं। जलवायु परिवर्तन जनित प्रमुख प्रभावों का समाधान ढूँढ़ने की व्यवस्था होगी। जलवायु प्रभावों से निपटने के लिए आर्थिक व्यवस्थाओं की योजना भी बना ली गई है।
3. आर्थिक सहयोग:- विकसित देशों ने हरित प्रभाव गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए विकासशील देशों को आर्थिक सहायता देने के लिए 2023 तक 100 बिलियन डालर फंड इकट्ठा करने की दिशा में प्रगति की है। 34 देशों और 5 वित्तीय संस्थाओं ने खनिज इंधन से बिजली बनाने की परियोजनाओं को आर्थिक सहायता बंद करने का निर्णय लिया है। उत्सर्जन कम करने और अनुकूलन गतिविधियों को पर्याप्त आर्थिक सहयोग संभव बनाने के लिए 2025 तक 500 बिलियन डालर फंड इकट्ठा करने का लक्ष्य निर्धारित हुआ है।
4. सहयोग:- सरकारों के बीच स्वच्छ हरित उर्जा, विद्युत् चालित वहन, जहाजरानी, शून्य उत्सर्जन स्टील निर्माण, हाइड्रोजन फ्यूल आदि क्षेत्रों में तकनीकी और आर्थिक सहयोग द्वारा जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने पर सहमति बनी है।
इस समय चीन 27% उत्सर्जन द्वारा पहले स्थान पर, अमेरिका 11% उत्सर्जन द्वारा दूसरे स्थान पर और भारत 6.5% उत्सर्जन द्वारा तीसरे स्थान पर हैं। ये तीनों देश कितनी गंभीरता से इस मुद्दे को लेते हैं उसी पर बहुत हद तक जलवायु परिवर्तन त्रासदी से निपटने के प्रयासों की सफलता निर्भर होगी। हालांकि भारत ने सौर उर्जा और विद्युत् चालित वाहनों को बढ़ावा देने की दिशा में अच्छी प्रगति के संकेत दिए हैं, उसकी उपलब्धि भी सराहनीय है, किन्तु नेट जीरो के मामले में 2070 का लक्ष्य थोड़ा हैरान करने वाला है। आशा की जाती थी कि भारत इससे बेहतर पहल कर सकता। शायद चीन और भारत मिल कर सलाह करके आपसी समझ उत्सर्जन कम करने के लिए विकसित करें तो बेहतर परिणामों की उम्मीद की जा सकती है।
लगता है चीन अमेरिका से प्रतिस्पर्धा के चक्कर में और भारत चीन की प्रतिस्पर्धा के चक्कर में विकास की गति को थोड़ा भी रुक कर देखने से बच रहे हैं। किन्तु सोचने वाली बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों से कोई भी बच नहीं सकता। फिर गलती चाहे किसी ने भी की हो। यह तो पूरे विश्व का साझा भविष्य है जिसमें इकट्ठे ही तैरना या डूबना है।
(लेखक जाने-माने पर्यावरणविद् हैं।)
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