– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
भारतीय संगीत की अनेक विधाएं हैं। इसमें कथक नृत्य का विशेष महत्व है। इसके साथ किसी कलाकार का नाम सदा सर्वदा के लिए जुड़ना विलक्षण होता है। पद्म विभूषण पंडित बिरजू महाराज को इसका गौरव हासिल हुआ। देश-विदेश में जब भी कथक की चर्चा होगी उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाएगा। बचपन में ही उन्होंने कथक की साधना प्रारंभ की थी। आजीवन इसके प्रति समर्पित रहे।
कथक उनके जीवन में रच-बस गया था। उनकी सामान्य वार्ता में भी गजब की भाव-भंगिमा हुआ करती थी। नृत्य की बात तो अलग है। उनमें हथेलियों की भाव-भंगिमा से अभिव्यक्त की अद्भुत क्षमता थी। ऐसा करते समय वह एक शब्द भी बोलते नहीं थे। हथेलियों से सब कुछ समझा देते है। भोर होना, चिड़ियों की उड़ान,उनके द्वारा अपने बच्चों तक दाना पहुंचना, फूलों का खिलना आदि सब हथेलियों के माध्यम से जीवंत हो जाता है। इसी प्रकार वह नृत्य किये बिना ही अनेक दृश्यों को साकार कर देते थे। इसमें वीर रस से लेकर श्रृंगार रस के प्रसंग भी होते थे। नृत्य में यंत्रवत प्रदर्शन। सब कुछ नपा तुला। साथ में भावनाओं की अभिव्यक्ति।
उनके चाहने वालों में एक साथ कई पीढ़ी के लोग थे। उन्होंने तेरह वर्ष की अवस्था में ही कथक में महारथ हासिल की थी। उस दौर में भारतीय संगीत बहुत लोकप्रिय हुआ करता था। बिरजू महाराज ने उस समय अपना विशिष्ट मुकाम बनाया था। पाश्चात्य संगीत का प्रभाव बढ़ने के बाद भी उनकी लोकप्रियता कायम रही। वर्तमान पीढ़ी में भी उनकी पसंद करने वाले कम नहीं है। उन्होंने सत्यजीत राय की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में संगीत दिया। इस फिल्म के दो गानों के नृत्य पर गायन किया था। करीब दस वर्ष पहले बनी फिल्म देवदास के गाने-काहे छेड़ छेड़ मोहे- का नृत्य संयोजन किया था। फ़िल्म डेढ़ इश्किया उमराव जान, बाजी राव मस्तानी में भी कथक नृत्य का निर्देशन किया था। करीब सात वर्ष पहले फ़िल्म बाजीराव मस्तानी के गाने मोहे रंग दो लाल के नृत्य निर्देशन के लिये उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। इसके पहले उन्हें पद्म विभूषण संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा कालिदास सम्मान आदि अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं खैरागढ़ विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि मानद मिली थी।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में लखनऊ घराने के विशेष महत्व है। कथक सम्राट पद्मविभूषण बिरजू महाराज ने इसे बुलंदियों पर पहुंचाया। लखनऊ के विद्यांत शिक्षण संस्थान का नाम आते ही वह भावुक हो जाते। बिरजू महाराज ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा यहीं से ग्रहण की थी। उन्होंने एक बार स्वयं बताया था कि बचपन से ही शिक्षा के संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। क्लास और स्कूल में भी मौका मिलने पर वह नाचते थे। विद्यांत स्कूल के बाहर के दुकानदारों तक उनके विलक्षण हुनर की चर्चा पहुंच गई थी। होनहार विरवान के होत चिकने पात।
बिरजू महाराज ने बताया था कि उन्हें पतंग उड़ाने का शौक था। वह स्कूल के बाहर पतंग लेने जाते थे। वहां लोग उनके नृत्य के मुरीद थे। फरमाइश होने लगती थी। उनके नन्हे कदम थिरकने लगते थे। दुकानदार उन्हें बिना पैसा लिए पतंग दे दिया करते थे। बिरजू महाराज को सब याद था। अक्सर वह लखनऊ आते थे। एक बार मुलाकात में उनसे विद्यांत स्कूल की चर्चा छेड़ी, ऐसा लगा जैसे वह अपने बचपन में लौट गए हो। जब वह नृत्य के बदले पतंग ले लिया करते थे। तब किसी को यह कल्पना नहीं रही होगी कि यह बालक कथक के शिखर पर आसीन होगा।
बिरजू महाराज के देश में अनगिनत शिष्य हैं। देश के अनेक हिस्सों में जाकर वह शिष्यों और कथक कलाकारों की नृत्य की बारीकियां समझते रहे। लखनऊ का कालिका बिन्दादिन ड्योढ़ी में कत्थक का केंद्र था। बिरजू महाराज के दो चाचा व ताऊ, शंभु महाराज एवं लच्छू महाराज भी कथक के साधक थे। उनके पिता अच्छन महाराज थे। जिन्होंने बिरजू महाराज को संगीत शिक्षा दी। बिरजू महाराज ने कथक नृत्य में नए रंग जोड़े। इन्होंने पन्द्रह सौ से अधिक ठुमरियों का कम्पोजिशन किया। लखनऊ घराना कथक नृत्य शैली में छोटे टुकड़ों का महत्व होता है। नृत्य के बोलों के अतिरिक्त पखावज की परने और परिमलु के बोल भी नाचे जाते हैं। बिरजू महाराज ने इन सभी को नए रूप में सँवारा। उनको आकर्षक बनाया। वह अनवरत इस साधना में लगे रहे।
उनका जन्म 4 फ़रवरी, 1938 को लखनऊ के कालका बिन्दादीन घराने में हुआ था। पहले उनका नाम दुखहरण रखा गया था। लेकिन यह नाम जमा नहीं। इसलिए उनका नाम बृजमोहन नाथ मिश्रा रखा गया। लेकिन यह नाम भी उनके साथ जुड़ नहीं सका। वह देश दुनिया में बिरजू मगराज के नाम से ही प्रख्यात हुए। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र थे। वह भी अच्छन महाराज के नाम से संगीत जगत में विख्यात थे। अच्छन महाराज ने ही सर्वप्रथम अपने इस पुत्र की प्रतिभा को पहचाना था। वह इनके प्रथम संगीत गुरु थे। उन्होंने संगीत दीक्षा प्रारंभ की थी। बिरजू महाराज जब नौ वर्ष के थे तभी पिता अच्छन महाराज का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद उनके चाचा शंभू महाराज व और लच्छू महाराज ने इस दायित्व का निर्वाह किया। इन्होंने गोवर्धन लीला, माखन चोरी, मालती माधव, कुमार संभव व फाग बहार इत्यादि की रचना की। तबला, पखावज, ढोलक, नाल और तार वाले वाद्य वायलिन, स्वर मंडल व सितार आदि में भी वह पारंगत थे।
बीस-बाइस वर्ष पूर्व उन्होंने संगीत समारोहों में सक्रियता कम कर दी थी। लेकिन संगीत से अलग होना इनके लिए संभव ही नहीं था। उन्होंने संगीत भारती, भारतीय कला केंद्र में अध्यापन किया। दिल्ली के कथक केंद्र के प्रभारी भी रहे। इन्हें प्रसिद्ध कालिदास सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड एसएनए अवार्ड व संगम कला अवार्ड भी प्राप्त हुआ था। इन्हें नेहरू फैलोशिप प्रदान की गई थी। उन्होंने मात्र तेरह वर्ष की आयु में नई दिल्ली के संगीत भारती में नृत्य की शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था। उसके बाद दिल्ली में ही भारतीय कला
केन्द्र, कथक केन्द्र संगीत नाटक अकादमी की एक इकाई में भी संगीत शिक्षा देते रहे। वह संकाय के अध्यक्ष व निदेशक भी रहे। यहां से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने दिल्ली में कलाश्रम नाट्य विद्यालय स्थापित किया था।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved