– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने अपने राज्य के मुख्यमंत्री को एक ऐसी बात कह दी है, जो आज तक किसी राज्यपाल ने किसी मुख्यमंत्री को नहीं कही होगी। प्रायः हम राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच चलते हुए कई अप्रिय विवादों के बारे में सुनते आए हैं लेकिन भारतीय राजनीति के इतिहास में यह पहली घटना है जबकि राज्यपाल अपने मुख्यमंत्री को अपना अधिकार सौंपने का आग्रह कर रहे हैं। आरिफ खान ने अपने मुख्यमंत्री पिनराई विजयन से कहा है कि वे केरल के विश्वविद्यालयों के कुलपति का पद छोड़ने को तैयार हैं। यह पद विजयन सम्हाल लें ताकि वे उप-कुलपति के पदों पर अपने मनचाहे लोगों को नियुक्त कर सकें।
वर्तमान कानून और परंपरा के मुताबिक किसी भी विश्वविद्यालय में उप-कुलपति की नियुक्ति का अंतिम अधिकार राज्यपाल (कुलपति) का होता है लेकिन मुख्यमंत्री लोग ऐसे नामों की सूची भी राज्यपालों के पास भिजवा देते हैं, जिनमें योग्यता कम और दूसरे कारण ज्यादा होते हैं। यह समस्या कई अन्य राज्यों में भी आ रही है। मेरे सामने कुछ राज्यपाल मित्रों को मैंने ऐसी समस्याओं से उलझते हुए देखा है। या तो वे झुक जाते हैं या मुख्यमंत्री झुक जाते हैं और कोई बीच का रास्ता निकल आता है।
बात छिपी की छिपी रह जाती है लेकिन आरिफ खान एक साहसी और सत्यनिष्ठ नेता रहे हैं। वे प्रधानमंत्रियों से दबे नहीं तो वे अपने मातहत रहनेवाले मुख्यमंत्री से कैसे दब सकते हैं? उन्होंने शाह बानो के मामले में राजीव गांधी के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर एतिहासिक कदम उठाया था और तीन तलाक के सवाल पर भी उन्होंने दो-टूक रवैया अपनाया था। जातीय जनगणना के विरोध में उन्होंने ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन में मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था। अब केरल के राज्यपाल की हैसियत में उन्होंने कन्नूर वि.वि. के उपकुलपति प्रो. गोपीनाथ रवींद्रन, मलयालम विभाग में प्रिया वर्गीज की नियुक्तियों और अन्य विश्वविद्यालयों में चल रही अनियमितताओं के खिलाफ मुख्यमंत्री को पत्र लिखा है कि वे एक अध्यादेश बनाकर ले आएं, जिसमें ये सारे अधिकार वे स्वयं ले लें तो राज्यपाल उस अध्यादेश पर सहर्ष हस्ताक्षर कर देंगे।
जाहिर है कि ऐसा दुस्साहस कोई मुख्यमंत्री नहीं कर सकता। अन्य राज्यपालों की तरह रोजमर्रा के सिरदर्द से बचने की यह दवा सबसे मुफीद साबित होनी चाहिए। सिर्फ विजयन को ही नहीं, इससे अन्य मुख्यमंत्रियों को भी सबक मिलेगा कि शिक्षा के मंदिरों को अपने क्षुद्र स्वार्थों और राजनीति से बचाकर रखना जरूरी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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