– ललित गर्ग
वर्तमान में भारत की परिवार-संस्था का अस्तित्व एवं अस्मिता खतरे में हैं। तथाकथित आधुनिकतावादी जीवनशैली के दौर में संबंधों का अंत, भावनाओं का अंत तथा पारिवारिक रिश्तों के अंत की चर्चा व्यापक स्तर पर सुनने को मिल रही है। यह एक विरोधाभास ही तो है कि वसुधैव कुटुंबकम् में आस्था रखने वाला समाज एवं राष्ट्र, जो सारी दुनिया को अपना परिवार मानने में विश्वास रखता हो, अब वह स्वार्थ, सुविधावाद और व्यक्तिवादिता के मूल्य में विश्वास करने लगा है। हम आर्थिक ऊंचाइयों की ओर बढ़ने का प्रयास करते हुए पारिवारिक रिश्तों को भुलते जा रहे हैं। हम केवल पर्यावरण, भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराध का शोर मचा रहे हैं, लेकिन परिवार टूट रहे हैं- कोई परवाह नहीं, कोई चर्चा नहीं। हम खुलेपन और आज़ादी की एक ऐसी सीमा लांघ रहे हैं, जिसके आगे गहरी ढलान है। व्यक्ति केवल अपनी सोच रहा है, परिवार नाम का शब्द उसने शब्दकोश में वापिस डाल दिया। तने के बिना शाखाओं का और शाखाओं के बिना फूल-पत्तों का अस्तित्व कब रहा है? परिवार कुछ व्यक्तियों का समूह नहीं है, खून और आत्मीय संबंधों के ताने-बाने से गुंथा एक पवित्र वस्त्र है। ‘मैं’ की भावना ने ‘हम’ की भावना को तार-तार कर दिया है। शायद यही कारण है कि परिवार और विवाह जैसी संस्थाएं आज चुनौती का सामना कर रही हैं। पिछले कुछ समय से संपत्ति विवाद को लेकर परिवारों में निकट संबंधियों की हत्याओं एवं व्यक्तिगत सुख एवं आधुनिकतावादी मनोवृत्ति में तलाक के मामलों में वृद्धि देखी जा रही है। इन विकट होती स्थितियों पर चिन्तन-मंथन जरूरी है। विश्वभर में जब मानवीय उदात्तताएं हाशिए पर जा रही हैं तब नैतिक एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित भारतीय स्वस्थ परिवार की रूपरेखा एवं परम्परा को नवजीवन दिये जाने की आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृृति में परिवार संस्था एक आदर्श रहा है, सुखी जीवन का आधार रहा है। उसी के अन्तर्गत संस्कार, मूल्य, प्रथाएं, त्योहार सब कुछ पल्लवित एवं पुष्पित होते रहे हैं। लेकिन जीवनशैली में आये बड़े बदलाव के बाद वे केवल दिखावा और औपचारिकता रह गए हैं। परिवार और विवाह संस्था, जो सुरक्षा की गारंटी देते थे आज उनकी यह भूमिका हाशिए पर है। माना कोविड महामारी ने लोगों को बड़ी संख्या में बेरोजगार कर दिया है, उनमे असुरक्षा की भावना और भय उत्पन्न हो गया है और इसके परिणामस्वरूप भी संपत्ति विवाद की घटनाएं परिवारों में सामान्य हो गई हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति में प्रारंभ से ही परिवार हर तरह की असुरक्षा से अपने सदस्यों को सुरक्षा देता आया है, अपनों के लिए संघर्ष करता आया है, हर समस्या में उनका साथ देता आया है। लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है, एकल परिवार परम्परा बढ़ रही है, एकल परिवार से भी आगे व्यक्तिगत जीवन पनप रहा है।
”परिवार“ संस्था की कुण्डली में सदैव संघर्ष का योग रहता आया है। पर यह सर्व स्वीकृत है कि जो संघर्ष करता है वही जीवित रहता है, वही जीवन को सार्थक एवं सफल बना पाता है। लेकिन संघर्ष मूल्यों के लिए हो, परिवार को जोड़ने के लिये हो, न कि तोड़ने के लिये। नया भारत-सशक्त भारत निर्मित करते हुए हमें उसका आधार मनुष्यता एवं मानवीय रिश्तों को बनाना होगा। परिवार के नए स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने का यही वक्त है। ”परिवार संस्था“ को टूटने से बचाना कठिन जरूर है पर सुख-समृद्धि इसी जमीन पर उगते हैं। नयी परिवार संस्था में अनुशासन आरोपित न हो अपितु व्यक्ति से आविर्भूत हो। एक समय था जब परिवार के सदस्य एक-दूसरे के लिए त्याग करने को तत्पर रहते थे और आज संपत्ति, जमीन या पैसों के लिए एक-दूसरे की हत्या करने से भी नहीं चूकते। यही कारण है कि आज चारों तरफ समाज में अविश्वास, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, धोखा, हिंसा, तनाव दिखाई देता है। ऐसे में किसी देश का प्रसन्नता सूचकांक, जनतांत्रिक सूचकांक, भूख सूचकांक, मानव विकास सूचकांक में स्थान अग्रिम पंक्ति में कैसे हो सकता है?
बाजार की जरूरतों से पहले हमें इंसानियत को समझना होगा। बाजार का केवल एक ही उद्देश्य होता है- अधिक से अधिक लाभ कमाना। लाभ कमाने के लिए केवल वस्तुओं का क्रय-विक्रय नहीं होता, अब तो भावनाओं, रिश्तों, संबंधों का भी क्रय-विक्रय होने लगा है, रिश्तों की बुनावट भी बाजार ही तय करने लगा है। हर चीज बाजार में तैयार माल के रूप में उपस्थित है, सिर्फ जेब में पैसे होने चाहिए। इस बाजार ने सच कर दिखाया कि बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया। इसी मानसिकता ने घर-घर में दूरियां बढ़ा दी है, रिश्तों में दरारें डाल दी है, एक दूसरे चाहे बाप-बेटा हो, मां-बेटी हो, सास बहू हो, भाई-भाई हो- रिश्तों की बुनियाद केवल घन आधारित हो गयी है। जब तक समाज सर्वाेपरि था तब तक सामूहिकता और त्याग की भावना, संयुक्त परिवार, परार्थवादिता, रिश्तों की कद्र, भावनाएं व्यक्ति के लिए महत्त्व रखती थीं, लेकिन जबसे बाजार सर्वाेपरि हो गया है, यह सब बेमानी हो गए हैं।
समाचार पत्रों में आजकल पारिवारिक सम्पत्ति के कारण हिंसा एवं हत्या की खबरें आम बात हो गयी है। लुधियाना में भी संपत्ति के विवाद के कारण छोटे भाई को गोली मार कर हत्या कर दी। बरेली के मीरगंज क्षेत्र में एक एडवोकेट ने संपत्ति विवाद के चलते अपने माता-पिता की गोली मार कर हत्या कर दी। अयोध्या में एक भांजे ने संपत्ति विवाद के चलते अपने मामा-मामी सहित उनके तीनों बच्चों की गला रेत कर हत्या कर दी। हैदराबाद के वारंगल कस्बे में एक व्यक्ति ने संपत्ति विवाद को लेकर अपने भाई और दो अन्य रिश्तेदारों की बेरहमी से हत्या कर दी। बिहार के बेगूसराय में भूमि विवाद में वृद्ध किसान की गला रेत कर हत्या कर दी गई।
गाजियाबाद के सैंथली गांव में संपत्ति हथियाने के लिए एक व्यक्ति ने अपने बड़े भाई की हत्या कर उसकी पत्नी से शादी कर ली। ये घटनाएं तो केवल नमूना भर हैं। इनदिनों तो धन की लालसा से संबंध बनते हैं और शादी होते ही तलाश की चर्चा शुरु हो जाती है। कहां आ गयी है हमारी पारिवारिक मानसिकता, कितना बिखर गया है आपसी रिश्तों का ताना-बाना। भौतिकतावादी जीवन और पैसों की लालसा व्यक्ति में इतनी हावी है कि अपनों का प्यार, आपसी संबल और त्याग उसे नहीं दिखाई देता। वह सिर्फ आज में जीता है, भविष्य में उसके साथ क्या होगा, नहीं सोचता। क्योंकि उसके लिए दिखावा, स्टेटस और ऐशो-आराम बहुत जरूरी हो गया है फिर इसकी कीमत भले ही उसका परिवार ही क्यों न हो। कोई भी ऐसा रिश्ता नहीं, जो दागदार नहीं हुआ हो। जिन्दगी एक नशा है उन लोगों के लिये जो जीने का सही अर्थ नहीं जानते। गलत आदतें, बुरी वृत्तियां, अनैतिक मूल्य एवं सुविधावादी दृष्टिकोण ने परिवार के अस्तित्व को धुंधला दिया है। आदमी भ्रम में जीता है। जो सुख शाश्वत नहीं है, उसके पीछे मृगमरीचिका की तरह भागता है। धन-दौलत, जर, जमीन, जायदाद कब रहे हैं इस संसार में शाश्वत। हमारी सोच ही विकृत हो गयी है, ऐसे माहौल में परिवार में विश्वास एवं प्रगाढ़ता कैसे कायम हो सकता है? यह सोचने का विषय है। क्योंकि स्वस्थ परिवारों पर ही स्वस्थ और खुशहाल समाज एवं राष्ट्र की नींव रखी जा सकती है। चूंकि ऐसा नहीं हो रहा है, इसलिए खुशहाली सूचकांक में भारत का स्थान हर साल नीचे गिरता जा रहा है। किसी से छिपा नहीं है कि समृद्ध, खुशहाल और शांतिप्रिय देश में अब तनाव, निराशा, क्रोध, एकाकीपन, हिंसा, पारिवारिक बिखराव जैसे पक्ष हावी होने लगे हैं।
”परिवार“ को सुदृढ़ एवं स्वस्थ बनाना होगा। परिवार को स्वस्थ बनाना कोई उत्पाद नहीं है, यह तो जीवन है, इसे जीवन्त बनाना होगा। लेखकों, विचारकों, मनीषियों से लेकर संस्थाओं तक, नेताओं से लेकर धर्म-गुरुओं तक, समाज सुधारकों से लेकर न्यायालयों तक, राजनेताओं से लेकर समाज-निर्माताओं तक और बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक एक सम्मिलित प्रयास कर ”परिवार“ की संस्कृति को बचाना होगा। इसमें हमें कट्टरवादिता का पाखण्ड नहीं पालना है और व्यक्ति की आजादी भले हो लेकिन उसे अमर्यादित भी नहीं होने देना है। अपनी संस्कृति को काल क्षेत्र के अनुरूप ढालना है। परिवार के सदस्य परस्पर समझौतावादी दृष्टिकोण लेकर चलें और विचार-फर्क की कठिन स्थितियों में संवाद बंद न होने दे। नेगोसिएशन… की प्रणाली समस्याओं के समाधान में नई दिशा दे सकती है।
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