– आरके सिन्हा
शायद ही देश में कोई ऐसी प्रतियोगी परीक्षा आयोजित होती होगी, जिसमें बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा के नौजवान बढ़-चढ़कर भाग न लेते हों और उसमें अभूतपूर्व सफलता दर्ज न करते हों। इन कठिन परीक्षाओं में सफल होकर बिहारी नौजवान देश के प्रतिष्ठित कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में दाखिला लेते हैं या सरकारी नौकरियों को सफलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं। यहां तक तो सब ठीक है। इनकी सफलता में इनके माता-पिता और परिवार के बाकी सदस्यों का बलिदान भी कम अहम नहीं होता। लेकिन, इसके चलते बिहार की प्रतिभा का एक बड़ा हिस्सा राज्य से बाहर चला जाता है।
बहरहाल, अब बिहारी नौजवानों को नौकरी के आगे भी तो सोचना होगा। वे सिर्फ नौकरी करके ही अपना जीवन व्यतीत करने के संबंध में नहीं सोच सकते। उन्हें उद्यमी बनना होगा। उन्हें सोचना होगा कि वे किसी के मातहत काम करने के बजाय खुद के बॉस बनें और अन्य नौजवानों को भी रोजगार दें। वे सरकारी बाबू, टीचर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, बैंकर, पत्रकार आदि सब तरह की जॉब तो कर ही रहे हैं। वे अपनी जॉब के साथ न्याय भी कर रहे हैं। उनमें ज्ञान और प्रतिभा भी भरपूर है। वे जहां भी जाते हैं, वहां छा जाते हैं। पर वे कहीं न कहीं उद्यमी बनने से डरते या बचते हैं। उनमें रिस्क लेने का माद्दा नहीं है। यह उनकी गलती भी नहीं है। उन्हें बचपन से ही कोई अच्छी-सी नौकरी करने की घुट्टी घर और समाज में पिलाई जाती है। लेकिन, उन्हें अब कारोबारी दुनिया में आना ही होगा। इधर नई इबारत लिखनी होगी।
हैरानी की वजह यह है कि बिहार में लोग आर्थिक उदारीकरण के बाद भी नहीं बदले। देश में आर्थिक उदारीकरण की बयार के तीस साल हो चुके हैं। लेकिन वह बयार बिहार तक कायदे तक पहुंच ही नहीं पाई है। वहां अब भी पहले वाली मानसिकता समाज में बनी हुई है। बिहारी समाज को लगता है कि उनका बेटा या बेटी किसी तरह से सरकारी नौकरी को हासिल कर ले। इतना ही काफी है। समझ नहीं आता कि सारी दुनिया की खबर रखने वाला बिहारी समाज क्यों नहीं जान पा रहा है कि अब उद्यमी बनने का दौर चल रहा है। अगर आपके पास कोई फड़कता हुआ आइडिया है, तो आप भी आने वाले समय के एन. नारायणमूर्ति (इंफोसिस), सचिन-बिन्नी बंसल (फ्लिपकार्ट), शिव नाडार ( एचसीएल) बन सकते हैं। ये सभी आर्थिक उदारीकरण के बाद ही सामने आए या इनके कारोबार का तेजी से विस्तार हुआ। ये सब के सब पहली पीढ़ी के उद्यमी हैं। ये अब हजारों लोगों को रोजगार दे रहे हैं। सचिन-बिन्नी बंसल ने अपनी कंपनी अमेजन को बेचकर हजारों करोड़ रुपए कमा लिए हैं। अब ये नए क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं।
बिहार के उद्योग जगत पर नजर रखने वाले जानते हैं कि यहां से गुजरे कई दशकों के दौरान सिर्फ अनिल अग्रवाल (वेदांत समूह), एल्केम फार्मा और अरिस्टो फार्मा ने ही बड़े स्तर पर अपनी जगह बनाई है। अति विनम्रता से कहना चाहता हूं कि मेरे द्वारा स्थापित एसआईएस समूह भी सेवा क्षेत्र में देश का एक अहम नाम है। हो सकता है कि इस सूची में कुछ नाम और भी शामिल किए जा सकते हों। ये सभी बिहार के समूह आर्थिक उदारीकरण के दौर से पहले ही शुरू हो चुके थे। इन्होंने तब अपने कारोबार को आरंभ किया था जब देश में इंस्पेक्टर राज था। उस दौर में सरकारी दफ्तरों से एक-एक फाइल को एक टेबुल से दूसरे टेबुल तक पहुँचाने के लिए दसियों चक्कर लगाने पड़ते थे। बिना घूस दिए सरकारी बाबू आप से बात करके भी राजी नहीं होते थे। लेकिन, आर्थिक उदारीकरण के बाद भी बिहार या बिहारी कहां बदला।
बिहारी अब भी उद्यमी बनने के लिए तैयार नहीं है। उसे अब भी सिर्फ एक अदद नौकरी की तलाश है। सरकारी नौकरी मिल जाये तो अच्छा नहीं तो मोटी पगार वाला कुछ भी। उसे लगता है कि एक नौकरी मिल जाए जिधर वह जीवनभर काम करता रहे। वहां से चंदन की माला गले में डलवाकर रिटायर हो जाये। पढ़े-लिखे बिहारी परिवारों के नौजवानों को ओला कैब्स के भविश अग्रवाल, मेक माई ट्रिप के दीप कालड़ा, जोमेटो के दीपेंद्र गोयल जैसे दर्जनों उद्यमी प्रेरित क्यों नहीं कर पा रहे हैं। इनकी कामयाबी को बिहारी निर्विकार भाव से ले रहे हैं। उनसे प्रेरित होकर उद्यमी बनने की राह पर नहीं बढ़ रहे हैं। सिर्फ नौकरी करने की बिहारियों की मानसिकता को कोई बहुत आदर्श सोच तो नहीं माना जा सकता। अब जब नौकरियों में स्थायित्व नहीं रहा तो उन्हें कुछ अपना करने के संबंध में तो सोचना ही होगा।
दरअसल मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगाकर किसी उत्पाद का उत्पादन करना तो कठिन काम है। उसके लिए बड़ी पूंजी की आवश्यकता भी सदैव बनी रहती है। बिहार के लोग सेवा क्षेत्र में तो आ ही सकते हैं। इसमें तो वे एक छोटे से दफ्तर से अपना काम शुरू कर सकते हैं। उन्हें किसी नए आइडिया के साथ अपने काम को ईमानदारी और मेहनत से शुरू करना होगा। एक बार काम शुरू कर लिया तो सफलता तो फिर मिलेगी ही। आपके पास सिर्फ एकलव्य दृष्टि होनी चाहिए।
देखा जाए तो बिहार का यह दुर्भाग्य ही रहा कि यहां के लोग न उद्यमी बनने के बारे में सोचते हैं और न ही बड़े औद्योगिक घरानों ने अपनी कोई इकाई बिहार में लगाने की योजना बनाई है। टाटा, रिलायंस, महिन्द्रा, गोयनका, मारूति जैसे किसी भी बड़े समूह ने बिहार में निवेश करना अबतक उचित नहीं समझा। जब किसी जगह कोई बड़ा कारखाना लगता है तो उसे माल देने के लिए कई छोटी इकाइयां आसपास खुल जाती हैं। उन्हें स्थानीय लोग ही खोलते हैं। पर चूंकि कोई मशहूर समूह यहां नहीं आया तो बिहार के लोगों को उद्यमी बनने का मौका भी नहीं मिला।
आप दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरू, लुधियाना समेत देश के किसी भी शहर में चले जाइये। वहां आपको बिहारी नौजवान हर तरह की नौकरी करते हुए मिलेंगे। इनमें से अगर दस फीसद भी अपने बिहार में कोई अपना काम करने लगें तो ये बिहार के लिए बहुत बेहतर होगा। इससे राज्य का विकास होगा। राज्य में उद्यमशीलता के वातावरण को बल मिलेगा। वक्त का तकाजा है कि बिहार का समाज नौकरी से आगे भी कुछ करने के बारे में विचार करे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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