• img-fluid

    मध्यप्रदेश की नैसर्गिक विरासत है जनजातीय संस्कृति

  • November 13, 2021

    – लक्ष्मीनारायण पयोधि

    जनजातीय आबादी के मान से देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है। सच कहें तो यह संस्कृति इस प्रदेश की नैसर्गिक विरासत है,जिसमें निश्छल जीवन का आह्लाद और संघर्ष प्रतिबिंबित हैं।जनजातीय जीवन-शैली में आलोकित आनंद समूचे प्रदेश की ऊर्जा और उसका दैनंदिन संघर्ष सभी प्रदेशवासियों की प्रेरणा है।

    ‘संस्कृति’ शब्द अपने व्यक्तित्व की समग्रता में एक व्यापक अर्थबोध के साथ परिदृश्य में उपस्थित है।यह शब्द किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि समुदाय अथवा समाज की जीवनशैली,खानपान, परिधान,रहन-सहन,मान्यता, परंपरा, लोकविश्वास,धार्मिक आस्था,अनुष्ठान, पर्व-त्योहार,सामाजिक व्यवहार, नियम-बंधन, संस्कार, आजीविका के उद्यम आदि की विशेषताओं को प्रकट और रेखांकित करता है।इस पारिभाषिक स्थापना को जनजातीय संस्कृति के माध्यम से समझा जा सकता है।

    भौगोलिक दृष्टि से देश के केन्द्र में स्थित होने के कारण मध्यप्रदेश की सीमाएँ उत्तर प्रदेश,राजस्थान,गुजरात,महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ राज्यों को छूती हैं। पड़ोसी राज्यों से सांस्कृतिक समरसता के कारण उनके सबसे अधिक रंग मध्यप्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में बिखरे हैं।इसलिये इस प्रदेश की जनजातीय संस्कृति सप्तवर्णी इन्द्रधनुषी छटाओं से सुसज्जित है।

    अगर आपने कभी किसी जनजातीय क्षेत्र का प्रवास किया हो,वहाँ कुछ दिन ठहरने का अवसर मिला हो,या फिर आप किसी जनजाति बहुल गाँव के निवासी हों? तो आपकी स्मृति में यह मोहक दृश्य अवश्य अंकित होगा : ढोल की गमक के साथ निनादित मादल का उल्लास…टिमकी, ठिसकी, चुटकुलों, कुंडी, घंटी या थाली की संगत में दिशाओं को गुँजाती बाँसुरी की स्वर-लहरियाँ….पाँवों में हवा के घुँघरू बाँधकर नृत्य-भंगिमाओं के साथ वृक्षों से लिपटतीं विभोर लताएँ….जंगल-पर्वत, नदी-झरनों का सम्मोहक संसार….रहस्यमय घाटियों से क्षितिज तक जाती टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ़ पगडंडियाँ और इन सबके बीच धड़कता जनजातियों का संघर्षमय पर बिंदास जीवन।

    मध्यप्रदेश के अधिकांश जनजाति समुदाय प्राय: वनों के निकट निवास करते हैं।प्रकृति की रागात्मकता और लीला-मुद्राओं से उनका गहरा संबंध है। निसर्ग के लगभग सभी जीवनोपयोगी उपादान उनके आराध्य हैं। वे प्रकृति की छोटी से छोटी शक्ति में सर्वशक्तिमान की छवि पाते हैं। धरती, आकाश, सूरज, चंद्रमा, मेघ, वर्षा, नदी,पर्वत, वृक्ष, पशु, पक्षी, सर्प, केकड़े-यहाँ तक कि केंचुआ भी उनकी श्रद्धा का पात्र है, क्योंकि महादेव को धरती के निर्माण के लिये उसी के पेट से मिट्टी मिली थी। पशु-पक्षी और वनस्पतियों में से अनेक उनके गोत्र-देवता के रूप में पूज्य तो हैं ही। आस्था का यह निश्छल रूप ही अनुष्ठानों की प्रेरणा-भूमि है। पर्व-जात्रा, मेले-मड़ई, नृत्य-उत्सव, गीत-संगीत-सब परंपरा के रूप में आदिम आस्था का पीढ़ी-दर-पीढ़ी संतरण ही है।

    भील जनजाति समूह में हरहेलबाब या बाबदेव, मइड़ा कसूमर, भीलटदेव, खालूनदेव, सावनमाता, दशामाता, सातमाता, गोंड जनजाति समूह में महादेव, पड़ापेन या बड़ादेव,लिंगोपेन,ठाकुरदेव, चंडीमाई, खैरमाई, बैगा जनजाति में बूढ़ादेव, बाघदेव, भारिया दूल्हादेव, नारायणदेव, भीमसेन और सहरिया जनजाति में तेजाजी महाराज, रामदेवरा आदि की पूजा पारंपरिक रूप से प्रचलित है। पूजा-अनुष्ठान में मदिरा और पक्वान्न का भोग लगता है। भीलों के त्योहारों में गोहरी, गल, गढ़, नवई, जातरा तो. गोंडों में बिदरी, बकबंदी, हरढिली, नवाखानी, जवारा, छेरता, दिवाली आदि प्रमुख हैं।

    कोदो, कुटकी, ज्वार, बाजरा, साँवा, क्का, चना, पिसी, चावल आदि अनाज जनजाति समुदायों के भोजन में शामिल हैं।महुए का उपयोग खाद्य और मदिरा के लिये किया जाता है।आजीविका के लिये प्रमुख वनोपज के रूप में भी इसका संग्रहण सभी जनजातियाँ करती हैं।बैगा,भारिया और सहरिया जनजातियों के लोगों को वनौषधियों का परंपरागत रूप से विशेष ज्ञान है।बैगा कुछ वर्ष पूर्व तक बेवर खेती करते रहे हैं।

    जनजाति समुदायों के लोग अपने मकान प्राय: मिट्टी, पुआल, लकड़ी, बाँस, खाई, खपरैल, छींद या ताड़ पत्तों का उपयोग कर बनाते हैं। मकान अमूमन 30-35 फुट लंबा और 10-12 फुट चौड़ा होता है। कहीं-कहीं मकान के बीच में आँगन भी होता है। घर के एक हिस्से में गोशाला भी होती है।बकरियों के लिये ‘बुकड़ कुड़िया’ भी। मकान का मुख्य द्वार फरिका की नोहडोरा (भित्तिचित्र) से सज्जा की जाती है। सहरिया अपने श्रंखलाबद्ध आवास उल्टे ‘यू’ आकार का बनाते हैं, जो सहराना कहलाता है। भीलों के गाँव फाल्या कहलाते हैं।

    जनजातीय महिलाएँ हाथों में चुरिया धारण करती हैं। जुरिया,पटा, बहुँटा, चुटकी, तोड़ा, पैरी, सतुवा, हमेल, ढार, झरका, तरकीबारी और टिकुसी इनके प्रिय आभूषण हैं। भील स्त्रियाँ मस्तक पर बोर गूँथ कर लाड़ियाँ झुलाती हैं। कथिर के कड़े कोहनी से कलाई तक सजे रहते हैं। नाक में काँटा और कमर में कंदौरा। घुटनों तक कड़े और घुँघरू। जनजातीय पुरुष भी कान, गले और हाथों में विभिन्न आभूषण पहनते हैं। गोदना सभी स्त्रियों का प्रिय पारंपरिक अलंकार है।

    इतिहास की निरंतरता को बनाये रखने में जनजातीय संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह मानव-सभ्यता के विकास-क्रम की अनिवार्य कड़ी है। आज़ादी के बाद जनजातीय विकास को नयी दिशा मिली है। विकास के अभिनव और प्रभावी प्रयासों से विभिन्न जनजाति समुदायों के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर में अभूतपूर्व सुधार हुआ है। बस ध्यान यह रखा जाना है कि इन सारे प्रयासों के साथ विकास की मुख्यधारा में सम्मिलित होते हुए उनकी सांस्कृतिक परंपराओं और मातृभाषाओं में संचित वाचिक संपदा के साथ पारंपरिक ज्ञानकोश न खो जाये।

    (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और जनजातीय संस्कृति के अध्येता हैं)

    Share:

    बच्चों को कैसा साहित्य परोस रहे हैं हम?

    Sat Nov 13 , 2021
    – योगेश कुमार गोयल जब भी हम बच्चों के बारे में कोई कल्पना करते हैं तो सामान्य रूप से एक हंसते-खिलखिलाते बच्चे का चित्र हमारे मन-मस्तिष्क में उभरता है लेकिन कुछ समय से बच्चों की यह हंसी, खिलखिलाहट और चुलबुलापन जैसे भारी-भरकम स्कूली बस्तों के बोझ तले दबता जा रहा है। पहले बच्चों का अधिकांश […]
    सम्बंधित ख़बरें
  • खरी-खरी
    रविवार का राशिफल
    मनोरंजन
    अभी-अभी
    Archives
  • ©2024 Agnibaan , All Rights Reserved