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    कश्मीर में इस्लामी कट्टरवाद को देना होगा माकूल जवाब

  • November 07, 2021

    – उमेश चतुर्वेदी

    यूं तो राजनीति अक्सर अपनी पार्टी लाइन के हिसाब से ही बयान देती है। अगर कोई राजनीतिक शख्स अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कोई संदेश देता है तो उसे या तो नजरंदाज कर दिया जाता है या फिर उसे उस पार्टी में जाने के संदेश के तौर पर देखा जाता है, जिसकी घोषित राजनीतिक लाइन के हिसाब के नजदीक वह बयान होता है। लेकिन यह भी सच है कि राजनेता भी इन्सान ही होता है और कई बार ना चाहते हुए भी उसके दिल की आवाज निकल ही आती है। बीते सत्रह अक्टूबर को कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने ट्वीटर पर जो बयान दिया, उसके भी इसी तरह राजनीतिक अर्थ निकाले गए। लेकिन यह मानना होगा कि उन्होंने जो कहा, दरअसल कश्मीर घाटी पर पड़ रहे अंतरराष्ट्रीय नापाक निगाहों का ही खुलासा है।

    हाल ही में गैर कश्मीरी लोगों की आतंकियों के हाथों हुई हत्याओं के संदर्भ में मनीष तिवारी ने ट्वीटर पर कहा था, “क्या कश्मीर में गैर-मुसलमानों की हत्या, बांग्लादेश में हिंदुओं की हत्या और पुंछ में बड़े पैमाने पर घुसपैठ में नौ जवानों की मौत के बीच कोई संबंध है? शायद ऐसा है। दक्षिण एशिया में एक बड़ा पूरा इस्लामवादी एजेंडा काम कर रहा है।”

    यह सच है कि कश्मीर पर अरसे से नापाक निगाह गड़ाए बैठा पाकिस्तान हर मुमकिन मौके पर उसे अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक रंग देने की कोशिश करता है। 15 अगस्त को अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद वह तुर्की के साथ दक्षिणी एशिया में लगातार इस्लामी आतंकवाद को बढ़ावा देने की कोशिश करता नजर आ रहा है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद आतंकवाद के जरिए कट्टर इस्लाम को बढ़ावा देने का मंसूबा रखने वाली ताकतें इन दिनों कुछ ज्यादा ही तेजी में हैं। तुर्की के राष्ट्रपति एर्दुगान संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से फरवरी में इस्लामवाद को बढ़ावा देने की कोशिश कर ही चुके हैं। गाहे-बगाहे वे भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के कश्मीर राग में अपना सुर भी शामिल करते रहे हैं। इसका ही असर है कि इन दिनों कश्मीर में पिछली सदी के नब्बे के दशक की तरह की हिंसा तेजी से फैलाई जा रही है।

    पिछली सदी के नब्बे के दशक में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया, ठीक वैसा ही नजर आ रहा है। साल 2010 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के अनुसार उस दौरान आतंकवादियों ने 209 कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया। हालांकि कश्मीरी पंडितों के अधिकारों के लिए संघर्षरत कश्मीर पंडित संघर्ष समिति यानी केपीएसएस के प्रमुख संजय टिक्कू के अनुसार 677 पंडितों को तब आतंकवादियों ने निशाना बनाया था। उस दौरान कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाने का मकसद घाटी से गैर मुस्लिम लोगों में दहशत फैलाना था, ताकि वे घाटी को छोड़कर भाग सकें। इससे घाटी में मुस्लिम जनसंख्या का वर्चस्व हो सके। पाकिस्तानपरस्त इस्लामी ताकतों को ऐसा लगता है कि अगर घाटी से गैर मुस्लिम आबादी बाहर निकल जाएगी तो उसके लिए वह हालात मुफीद होगी।

    कुछ इसी अंदाज में इन दिनों गैर मुस्लिम आबादी को निशाना बनाया जा रहा है। हाल के दिनों में ऐसी हत्याओं से एक बार फिर कश्मीर में गैर मुस्लिम लोगों के बीच दहशत फैलाने की योजना पर आतंकी काम कर रहे हैं। सात अक्टूबर को आतंकियों ने श्रीनगर के सफाकदल हायर सेकेंडरी स्कूल के सभी शिक्षकों को एक साथ लाइन में खड़ा किया। उसके बाद उनके पहचान पत्र और मोबाइल फोन की जांच की। आतंकियों ने उनसे पूछताछ भी की और उनमें से उन लोगों को छोड़ दिया गया, जो मुस्लिम थे। इसके बाद सिख समुदाय की अध्यापिका सतिंदर कौर और हिंदू समुदाय के शिक्षक दीपक चंद को गोली मार दी।

    इसके पहले पांच अक्टूबर को श्रीनगर के इकबाल पार्क में फार्मेसी मालिक कश्मीरी पंडित माखन लाल बिंदरू को मारा गया। अक्टूबर महीने की 18 तारीख तक आतंकियों ने 12 लोगों की हत्या कर दी। उनमें उत्तर प्रदेश और बिहार से गए मजदूर और ठेला लगाने वाले लोग भी शामिल थे। इस हमले में एक व्यक्ति घायल भी हुआ। इसके पहले श्रीनगर में दो लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी थी. श्रीनगर में बिहार के रहने वाले अरविंद कुमार को निशाना बनाया गया। आतंकवादियों के हमले में मारे गए ज्यादातर लोग गैर मुस्लिम थे।

    कश्मीर में बीती सदी के नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में इसी तरह गैर कश्मीरियों को निशाना बनाया गया। इसी तरह साल 2000 में 18 नवंबर को अनंतनाग जिले के छत्तीसिंहपुरा में आतंकवादियों ने 35 सिखों की हत्या कर दी थी। तब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आने वाले थे। कश्मीर घाटी में गैर कश्मीरी और गैर मुस्लिम लोगों का यह पहला बड़ा आतंकी नरसंहार था। जाहिर है कि इसके बाद कश्मीर से पलायन बढ़ा। गृहमंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक तब कश्मीर घाटी को दहशत के चलते 62 हजार परिवार छोड़कर चले गए थे। उनमें से करीब चालीस हजार परिवार जम्मू और करीब बीस हजार परिवार दिल्ली में रह रहे हैं।

    दरअसल, पांच अगस्त 2019 को कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 का प्रावधान हटाने और उसके बाद घाटी में मेलमिलाप की कोशिशें बढ़ाना आतंकी और कश्मीर राग अलापने वाली इस्लामिक ताकतों को रास नहीं आ रहा था। गैर कश्मीरी लोगों पर आतंकियों का हमला माना जा रहा है कि इस कोशिश को ही रोकना है। हाल में की गई हत्याओं का असर भी हुआ है। गैर कश्मीरी परिवार और लोग घाटी छोड़कर अपने राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार जाने लगे हैं। ये वे लोग हैं, जिनका घाटी के विकास और आर्थिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष योगदान है। इनमें से ज्यादातर स्ट्रीटवेंडर, मजदूर और कर्मचारी हैं, जिन्हें यहां विकास कार्यों में लगी कंपनियों और योजनाओं में काम मिला हुआ था, जो वहां की बस्तियों के स्ट्रीट कारोबार में हिस्सेदारी कर रहे थे, और कश्मीरी लोगों को जरूरी सौदा-सुलफ मुहैया करा रहे थे।

    ऐसा नहीं है कि कश्मीर घाटी में आतंकी नहीं मारे जा रहे हैं। अक्टूबर में ही चौदह आतंकी मारे जा चुके थे। गृहमंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक अफगानिस्तान में तालिबान शासन स्थापित होने के बाद घाटी में पचास के करीब विदेशी इस्लामिक आतंकी आ गए हैं। उन्हें घाटी में घुसाने में पाकिस्तानी सेना और उसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई ने मदद दी है। कश्मीर घाटी में लोगों की हत्याओं के खिलाफ राज्य के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का गुस्सा स्वाभाविक है। उन्होंने कहा है कि निर्दोषों के हत्यारों को बख्शा नहीं जाएगा। सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान ऐसा कर भी रहे हैं।

    जब से अफगानिस्तान में तालिबान राज की दोबारा स्थापना हुई, तभी से माना जा रहा था कि आने वाले दिन कश्मीर घाटी के लिए खतरनाक होंगे। वैसा ही होता दिख रहा है। आर्थिक जंजाल में फंसे होने के बावजूद पाकिस्तान अपनी कारस्तानी से बाज नहीं आ रहा है। वह अपनी कोशिश में जुटा हुआ है। आतंकी घटनाएं उसी का प्रतीक हैं। ऐसे में सुरक्षा बलों की चुनौतियां बढ़ गई हैं।

    लेकिन जैसा कि मनीष तिवारी ने कहा है, दरअसल कश्मीर घाटी में गैर मुस्लिमों पर बढ़े हमले सिर्फ कश्मीर घाटी को प्रभावित करने की ही कोशिश नहीं है, बल्कि इस्लामी आतंकवाद की बरसों पुरानी मंशा का भी प्रतीक है। ऐसी ताकतें दक्षिण एशिया में इस्लामी कट्टरता को बढ़ावा देने की कोशिश में लगी हैं। इसलिए चुनौती और भी ज्यादा बढ़ जाती है। इसका मुकाबला सिर्फ सुरक्षा बलों के जरिए ही नहीं किया जा सकता, बल्कि इस्लामी आतंकवाद और मजहबी कट्टरता के खिलाफ लोगों को भी जागरूक करना होगा। आतंकवादियों को गोली का जवाब गोली से सुरक्षा बल दे ही रहे हैं। लेकिन अब उन्हें मौका देने की बजाय उन्हें पहले ही ध्वस्त करने की रणनीति पर भी काम करना होगा। तभी खौफ का वातावरण दूर होगा।

    (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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