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तीन सौ साल पहले सिंधिया के पूर्वजों ने बनवाया था ‘मौत के देवता’ का मंदिर, जानें क्‍या है महत्ता

November 06, 2021

ग्वालियर। नागरिक विमानन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया (Civil Aviation Minister Jyotiraditya Scindia) के पूर्वजों (Scindia’s ancestors) ने ग्वालियर शहर (in the heart of Gwalior city) के बीचों-बीच मौत के देवता यमराज का मंदिर (Built a temple of Yamraj)बनवाया था. देश के एकमात्र 300 साल पुराने इस मंदिर (300 years old temple) की महत्ता दिवाली पर्व(Diwali festival) पर बढ़ जाती है. दीपावली के एक दिन पहले नरक चौदस पर यमराज की पूजा और अभिषेक(Worship and Abhishek of Yamraj on c) किया जाता है. साथ ही, यमराज से मन्नत मांगी जाती (A vow is sought from Yamraj) है कि वह उन्हें अंतिम दौर में कष्ट न दें.



गौरतलब है कि ग्वालियर शहर के बीचों-बीच फूलबाग पर मार्कंडेश्वर मंदिर में स्थापित है यमराज की प्रतिमा. यमराज की नरक चौदस पर पूजा-अर्चना को लेकर पौराणिक कथा है. यमराज ने जब भगवान् शिव की तपस्या की थी तब उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि आज से तुम हमारे गण माने जाओगे. दीपावली से एक दिन पहले नरक चौदस पर जो भी तुम्हारी पूजा अर्चना और अभिषेक करेगा उसकी आत्मा को सांसारिक कर्म से मुक्ति मिलने के बाद कम से कम यातनाएं सहनी होंगी. साथ ही उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी. तभी से नरक चौदस पर यमराज की विशेष पूजा अर्चना की जाती है.

खास तरीके से होती है पूजा
मंदिर के पुजारी विष्णु शर्मा ने कहा कि यमराज की पूजा-अर्चना भी खास तरीके से की जाती है. पूजा के साथ ही यहां दीप-दान किया जाता है. मान्यता है कि यमराज की पूजा करने से कष्टों का निवारण होता है. साथ ही, उम्र के अंतिम दौर में होने वाले कष्टों परेशानियों से निजात मिलती है. यही वजह है कि दूर-दूर से लोग ग्वालियर पहुचते हैं और यमराज की पूजा-अर्चना करते हैं. उन्होंने बताया कि नरक चतुर्दशी के दिन यम की पूजा की जाती है. मान्‍यता है कि नरक चतुर्दशी के दिन यम का दीप जलाने से अकाल मृत्यु के भय से मुक्ति मिलती है. यही वजह से है नरक चतुर्दशी के दिन घर के मुख्य द्वार के बांई ओर अनाज की ढेरी रखकर इस पर सरसों के तेल का एक मुखी दीपक जलाया जाता है. इसे जलाते समय यह ध्‍यान रखा जाता है कि दीपक की लौ दक्षिण दिशा की ओर रहे.

नरक चतुर्दशी मनाने के पीछे की ये है पौराणिक कथा
एक समय भगवान कृष्ण अपनी आठों पत्नियों के साथ द्वारिका में सुखी जीवन जी रहे थे. उसी समय प्रागज्योतिषपुर नामक राज्य का राजा एक दैत्य नरकासुर था. उसने अपनी दैत्य शक्तियों से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परेशान कर दिया था और साधुओं और औरतों पर अत्याचार करने लगा था. एक दिन स्वर्गलोक के राजा देव इंद्र कृष्ण के पास पहुंचे और बताया कि नरकासुर ने तीनों लोकों को अपने अधिकार में कर लिया है और वरुण का छत्र, अदिति के कुंडल और देवताओं की मणि छीन ली है. यही नहीं, वह सुंदर कन्याओं का हरण कर उनके साथ अत्‍याचार कर रहा है और उसके अत्याचार की वजह से देवतागण, मनुष्य और ऋषि-मुनि त्राहि-त्राहि कर रहे हैं.

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