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    प्रकाश और अंधेरे का मनोरम समन्वय है दीपावली का लालित्य

    November 04, 2021

    सुख-समृद्धि से परिपूर्ण करने वाली महालक्ष्मी और रिद्घि-सिद्धि दायक भगवान गणेश पूजन का पांच दिवसीय पर्व दीपावली शुरू हो चुका है। धनतेरस से इसकी शुरुआत हुई, बुधवार को छोटी दीपावली के बाद गुरुवार को प्रकाश और ज्योति का महोत्सव दीपावली मनाया जाएगा। भगवान प्रभु श्रीराम के लंका पर विजय और 14 वर्ष के वनवास की अवधि पूरी कर अयोध्या वापस लौटने की खुशी में मनाया जाने वाला दीपावली आज के समय में तब और प्रासंगिक हो गया है, जब सैकड़ों वर्ष के कठिन संघर्ष के बाद अयोध्या में प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर निर्माण शुरू हो चुका है। गुनगुने ठंड के माह कार्तिक के अमावस्या तिथि की स्याह काली रात में प्रकाश का पर्व और ज्योति का महोत्सव दीपावली जितना अंतः लालित्य का उत्सव है, उतना ही बाह्यलालित्य का भी। जहां सदा उजाला हो, साहस पर भरोसा हो और निष्ठा हो, वहां उत्सव ही उत्सव होता है। दुनिया में ऐसा सिर्फ और हिंदुस्तान में है, जहां की उजाला सामूहिक रूप से प्रसारित होने से सर्वत्र सौंदर्य खिल जाता है।

    दीपों की पंक्तियां और ज्योति की निष्ठा समाहित होकर दीपावली की आभा अभिव्यक्त हो उठती है। दीपावली का लालित्य प्रकाश और अंधेरे का मनोरम समन्वय है, उसमें अग्रगामिता है। दीपावली में दीपों की पंक्तियां पर्व बन जाती है, पर्व का तात्पर्य है कि स्मृति के हजारों तार झनझना उठें, लेकिन हम अपने वर्तमान में जीते रहें। यदि हम अपने वर्तमान में नहीं हैं और भविष्य के संग हमारा सम्यक भाव नहीं जुड़ा है तो वह पर्व नहीं विडंबना है, जिसकी लकीर पीटने में सब लगे हैं। उल्लास से भर देने वाली दीपावली सौंदर्य का अप्रतिम बिंब है, जहां मनुष्य की अनुभूती, अनुभव और संवेदना अपना आकार लेते हैं। दीपावली की ज्योति प्रक्रिया, स्रोत और संरचना एक ऐसी सफलता एवं एकता पर आधारित है जो सबको जोड़ कर चलती है। दीयों में दो बातियां मिलती है, यह बाती स्नेहसिक्त होनी चाहिए। स्नेह के बिना प्रकाश की कल्पना भी संभव नहीं है। वर्तमान समय जिस तरह से नकारात्मकता और संवेदनहीनता का पर्याय बना हुआ है, उसमें स्नेह की और भी आवश्यकता है। स्नेह से ही पर्यावरण बनता है और उसी से वास्तविक कलात्मकता आती है। स्नेह रहित होने का अर्थ है सौंदर्य का क्षरण, दीपावली सौंदर्य की महत्ता का पर्व है। अब भी सृजनात्मकता, कला तत्व, मूल्य तथा कल्पना अर्थहीन शब्द नहीं है।

    यह पर्व अंधकार की सीमाओं का बेहतर अतिक्रमण करता है। दीपावली समाज तथा व्यक्ति के जीवन के अनगिनत आयामों को एक नया रूप देती है। ऋषि संस्कृति में कठिनाइयों एवं संघर्षों के बावजूद उल्लास व उजास के रंग भरे पड़े हैं, जो देखते ही बनते हैं। सभी ऐसे मौसम का आनंद उठाते हैं जिसे सम कहा जाता है, जहां न गर्मी है और न सर्दी। मिट्टी की कला के इतने सारे रूप देखने को मिलते हैं कि शायद साल भर ना मिलते हों, विभिन्न तरह के दीप, कलश, हाथी-घोड़े, पेड़-पौधे, माता लक्ष्मी के संग गणेश की प्रतिमा, सभी कुछ मिट्टी की कला से निर्मित होते हैं। हमारे यहां इन कलाओं को संरक्षित किए जाने की भी जरूरत है। आज फाइबर, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी आदि के दौर में मिट्टी की कला सहेजी जानी चाहिए। वह सब कुछ सहेजना चाहिए जो कलात्मक रूप से समृद्धि और वैभव को बचाए रखने में कारगर सिद्ध साबित हो रहा है। समाज के सभी वर्ग और किसान दिपावली को नई अभिव्यंजना देते हैं। दीपावली के वैभव से किसान का वैभव रचा जाना चाहिए। क्योंकि किसान के वैभव में दीपावली का वैभव छिपा हुआ है, कृषि को राष्ट्रीय समृद्धि का आधार बनाने की जरूरत है। निम्न और मध्यम वर्ग को भी केवल रियासत के बल पर लंबे समय तक नहीं चलाया जा सकता। उसे नई नीति बनाकर आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए।

    आजीविका की खोज में दौड़ रहे युवाओं को यदि हम सब स्वाबलंबी बना सकें तो यह एक बड़ा कार्य होगा। धर्मों, जातियों, लिंगो, प्रांतों और भाषाओं की दीवार को तोड़कर एक ऐसा सामंजस पूर्ण विकास चाहिए, जो तथ्यात्मक भी हो और विवेक से परिपूर्ण भी। विनाश के तट पर विकास संभव नहीं है। केवल गांव या केवल शहर की अतिवादी सोच उचित नहीं है। विकसित गांव एवं शहर ही हमारे लिए नूतन भविष्य की रचना रच सकते हैं। शहर तो हमें चाहिए, लेकिन वे जो मानवीय संबंधों को बनाए रख सके। नगरीकरण की प्रक्रिया एवं औद्योगीकरण के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। वास्तव में दीपावली प्रकाश पर्व है और इस प्रकाश में सभी समस्याएं समाप्त होनी चाहिए। दीपावली के महोत्सव में हमें ऐसे सभी बिंदुओं का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। नई आभा नहीं रखी जा सके और यदि बड़े परिवर्तन संभव नहीं हो सके तो छोटे-छोटे बदलाव होने चाहिए, जो सृजन की दीपावली ला सकते हैं। अतीत के खंडहर से ही अब नई दुनिया से सृजित होगी।

    भारत का पुनरुत्थान यहीं से करना होगा। वर्तमान में राजनीति का अर्थ सिर्फ राज्य पाने के लिए बनी नीति है, लेकिन जो सृजनता के सापेक्ष नीति होगी। वही समाज, राज और व्यक्ति को सकारात्मक रूप से जोड़ सकेगी। दीपावली ऐसे सभी अर्थों में जाने का दुस्साध्य प्रयत्न है, किसी भी सृजनात्मकता में प्रकाश के अनगिनत रंग होते हैं। दीपावली एक लालित्यपूर्ण सृजनात्मकता है और उजाले की निजता दीपावली को प्रश्रय देती है। उजाले की प्रसारणशीलता उसके सामाजिक पक्ष को नया आयाम देती है। दीपावली परिवर्तन, सौंदर्य, निजता, स्वायत्तता एवं ज्योति समन्वयन को एक साथ स्थापित करती है। यह लघुता को सम्मान देती है और तभी तो एक छोटा दीया भी महत्वपूर्ण बन जाता है। दीपावली हमें संकीर्णता, संवादहीनता एवं विद्वेष की भावनाओं को तिरोहित करना सिखाती है।

    इस प्रकार सोचने से ही दीपावली के वास्तविक मर्म का बोध होगा। दीपावली हमारे भीतर के सृजन को उर्जा एवं आभा देती है। सृजन की फुलझड़ियां ही जीवन को नूतन बनाती है। इसमें जितनी परंपराओं की सुरक्षा है, सांस्कृतिक परिवर्तन है, उतनी ही गतिशीलता का समन्वय भी है। यदि दृष्टिकोण सकारात्मक हो तो अतीत आधारहीन नहीं होगा, इतिहास संदर्भ नहीं लगेगा, संस्कृति केवल मिथक नहीं लगेगी। दीपावली बहुलता और सृजन का प्रतिरूप है, जिसमें हर दीया सृजन का प्रतिबिंब है। आइए दीपावली में अपने अंदर के सृजन के दीए जलाकर स्वयं और राष्ट्र को प्रकाश पथ पर अग्रसर करें।

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