– आरके सिन्हा
शाहरुख खान के शहजादे आर्यन खान को ड्रग्स केस में बॉम्बे हाई कोर्ट ने जमानत दे दी है। उनके साथ मॉडल मुनमुन धमेचा और अरबाज मर्चेंट को भी बेल मिल गई। अब यह समझना जरूरी है कि बेल का मतलब यह नहीं है कि आर्यन उन आरोपों से मुक्त हो गये हैं, जो उन पर लगे हैं। अब उन पर केस चलेगा और यह लंबा खिंच सकता है। आर्यन के वकील मुकुल रोहतगी ने खुद ही कहा कि भारत में किसी केस पर फैसला आने में खासा वक्त तो लग ही जाता है। अगर बात फिरोज खान के एक्टर पुत्र फरदीन खान की करें तो उस पर फैसला आने में आठ साल लगे थे। फरदीन भी ड्रग्स से जुड़े केस मे फंसे थे। तो बहुत साफ है कि अभी आर्यन खान और उनके परिवार, खासतौर पर पिता शाहरूख खान की मुश्किलें खत्म होने में खासा वक्त लग सकता है।
आर्यन खान के ड्रग्स केस में कथित रूप से शामिल होने के दौरान शाहरूख खान को घोर मानसिक परेशानी के दौर से गुजरना पड़ा होगा। वे जरूर यह तो सोच ही रहे होंगे कि अपने को बॉलीवुड का किंग बनाने और पैसा कमाने की हवस के चक्कर में वे अपने पुत्र की ही कायदे से परवऱिश करने में नाकाम रहे। शूटिंग, विज्ञापन, आईपीएल, ट्रेवलिंग, शादियों में पैसे के लिए डांस करने के दौरान उनके पास वक्त ही नहीं रहा कि वे आर्यन खान के साथ भी कुछ वक्त बिता सकते।
दरअसल, सफलता अपनी बहुत बड़ी कीमत मांगती है। दिल्ली के इस अति सामान्य परिवार के नौजवान शाहरूख खान ने माया नगरी में जाकर मानों यह एक ही फैसला कर लिया था कि वह अब सिर्फ नोट कमाएंगे। उनके लिए जीवन में बाकी किसी अन्य चीज के लिए जैसे घर-परिवार के लिये कोई जगह नहीं होगी। नतीजा सबके सामने है। उन्होंने पैसा तो कमाया पर वे अपने पुत्र को एक बेहतर नागरिक बनाने में नाकाम रहे। उनका पैसा और शोहरत किस काम का अगर वह अपने पुत्र पर ही नजर नहीं रख सके। उनके फिल्मी सफर पर नजर डालें तो उन्होंने कोई भी सामाजिक या देश भक्ति का संदेश देने वाली फिल्म नहीं बनाई। उन्होंने जिन फिल्मों में काम किया उन्हें बनाया, वह लगभग सब विशुद्ध कमर्शियल और मनोरंजक फिल्में थीं। उनसे तो मीलों आगे रहे आमिर खान जिन्होंने “लगान”, थ्री इडियट्स, दंगल जैसी बेहतर फिल्में बनाईं।
अब आर्यन खान की बेल तो हो गई तो शाहरूख खान को अपने अभी तक के काम का मूल्यांकन तो करना ही चाहिए। उन्हें सोचना होगा कि उन्हें इस देश ने अपार प्रेम दिया है लेकिन उन्होंने इसके बदले में देश को क्या दिया। वे इतने बड़े स्टार होने के बावजूद किसी भी सामाजिक या राष्ट्र निर्माण के काम से कभी नहीं जुड़े। वे कभी किसी अहम मसले पर स्टैंड भी नहीं लेते। वे जामिया मिल्लिया इस्लामिया (जेएमआई) में पढ़े हैं। लेकिन उन्होंने जेएमआई के विद्यार्थियों के नागरिकता संशोधन एक्ट (सीएए) पर किए गए बवाल के बाद भी जुबान नहीं खोली थी। जेएमआई के विद्यार्थियों ने तबीयत से उपद्रव किया था, बसों को तोड़ा था और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाई थी। लेकिन शाहरूख खान चुप रहे थे। क्या उन्हें उस वक्त दो शब्द बोलने नहीं चाहिए ताकि जेएमआई के छात्र बवाल नहीं काटते।
शाहरूख खान तब भी अज्ञातवास में चले गए थे, जब जामिया के विद्यार्थियों ने सिर्फ इसलिए हंगामा मचा दिया था, क्योंकि; यहां हो रहे एक कार्यक्रम में इजराइल की भी भागेदारी थी। जामिया के विद्यार्थी कह रहे थे कि वे जामिया में इजराइल की किसी भी सूरत में एंट्री नहीं होने देंगे। तब शाहरूख खान जामिया के छात्रों को कह सकते थे कि उन्हें अपने किसी भी विचार को व्यक्त करने की आजादी है। वे अपनी जरूरी मांगों के लिए लड़ भी सकते हैं। इन मांगों में छात्रावास, लाइब्रेरी भोजन, पढ़ाई, परीक्षा या किसी अध्यापक से संबंधित कोई बात हो सकती है। लेकिन, वे यह तय नहीं कर सकते कि जामिया के किसी आयोजन में किस देश के नुमाइंदे हों या न हों। कहने का मतलब यह है कि शाहरूख खान देश हित के सवालों पर स्टैड लेने से बचते हैं।
सारा देश जानता है कि वे इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक हैं। वे खुद भी कहते हैं कि वे क्रिकेट देखना-खेलना पसंद करते हैं। तो क्या उन्हें पता नहीं होगा कि टी-20 वर्ल्ड कप में भारत पाकिस्तान के बीच हुए मैच के खत्म होने के बाद एक खास समुदाय के लोगों ने आतिशबाजियां छोड़ीं। उन्होंने अपने कॉलेजों में जश्न मनाया? भारत के लिए अपशब्द कहे। क्या शाहरूख खान को इन घोर राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ बोलना नहीं चाहिए था? वे अगर इन्हें कसते तो उनकी सारे देश में छवि एक नए रूप में उभर कर सामने आती। उनकी इज्जत में चार चांद लग जाते। शाहरूख खान ने इस तरह के सारे सुनहरे मौके खो दिये । वे देश द्रोहियों को कड़ी सजा देने की अपील करके अपने को डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम और अजीम प्रेमजी की श्रेणी में खड़ा कर सकते थे।
शाहरूख खान खाली हाथ मुंबई गए थे। उन्हें मुंबई ने क्या नहीं दिया। पर उनके शहर में जब पाकिस्तान ने आतंकी हमला करवाया तो भी उन्होंने पाकिस्तान या वहां के कठमुल्लों के खिलाफ एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई। कोई माने या ना मानें, पर लगता यही है कि शाहरूख खान की सोच का दायरा फिल्मों और क्रिकेट तक ही सीमित है। उन्हें लगता है कि पैसा कमाना ही जीवन है। कोई उन्हें बताए कि हर शख्स को मृत्यु तो आनी ही है, तो फिर पैसे के लिए इतनी मारामारी करने की क्या जरूरत है। पैसा कमाओ पर समाज और देश के लिए भी कुछ करते चलो। वे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, अजीम प्रेमजी, मौलाना वहीदुद्दीन खान की तरह के इंसान बनना ही नहीं चाहते। इस तरह के अनगिनत मुसलमान चुपचाप अपने ढंग से राष्ट्र निर्माण में लगे हुए हैं। मौलाना वहीदुद्दीन खान ने कभी कठमुल्लों को नहीं छोड़ा। देश के आदर्श आईटी कंपनी विप्रो के संस्थापक अजीम प्रेमजी शुरू से ही परमार्थ कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं। वे देश के एक महान नायक हैं। उन्होंने पिछले वित्त वर्ष 2019-20 में परोपकार से जुड़े सामाजिक कार्यों के लिये हर दिन 22 करोड़ रुपये यानी कुल मिलाकर सात हजार,904 करोड़ रुपये का दान दिया है। शाहरूख खान के पास अब भी वक्त है कि वे बॉलीवुड के किंग से इतर भी अपनी एक इमेज बनाएं। इसके साथ ही वे अपने घर के सदस्यों को कुछ अधिक समय दें। अपने संघर्ष के दिनों के मित्रों से भी कभी मिलें और उनके सुख-दुःख बांटें।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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