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    इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति की बेटी के हिंदू धर्म अपनाने के मायने

  • November 01, 2021

    – प्रमोद भार्गव

    इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुकर्णो की छोटी पुत्री सुकमावती सुकर्णपुत्री ने आखिरकार हिंदू धर्म स्वीकार लिया। एक तरह से यह उनकी 70वें जन्मदिन पर समारोहपूर्वक सुखद घर वापसी हुई है। समूचे विश्व में हिंदू धर्म उदारता, नैतिकता, विविधता एवं जिज्ञासा का कारण बन रहा है। दुनिया में हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म रहा है, जिसका विस्तार तलवार की धार और धन के प्रलोभन से नहीं हुआ। इसके समाज के लिए जो अपेक्षित मानवीय मूल्य हैं, वे हर कालखंड में आकर्षण का केंद्र बिंदू रहे हैं। यही वजह रही कि जब सशक्त महिला सुकमावती के साथ धार्मिक भेदभाव प्रताड़ना की हद तक हुआ तो उन्होंने इस्लाम धर्म नकार दिया।

    यह घटना उस दक्षिण एशियाई देश में घटी, जहां मुस्लिमों की आबादी तो सर्वाधिक है, किंतु सांस्कृतिक रूप से प्रभुत्व हिंदुत्व और उसके राम व कृष्ण जैसे ईश्वरीय नायकों का है। 2018 की जनगणना के अनुसार यह विश्व का चौथा ऐसा देश है, जहां सर्वाधिक दो प्रतिशत हिंदू हैं। इंडोनेशिया की कुल आबादी लगभग 24 करोड़ है, जो विश्व की आबादी की करीब 12.7 प्रतिशत हैं। इंडोनेशिया संवैधानिक रूप से भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष देश है। लेकिन यहां के सभी धर्मों के नागरिक ईश्वर में विश्वास करते हैं। रामायण और महाभारत के पात्रों व घटनाओं पर आधारित यहां के मंदिर इंडोनेशिया के पर्यटन व आजीविका के प्रमुख आधार हैं। विदेशी मुद्रा कमाने और अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने में भी इन मंदिरों की अहम् भूमिका है। भारत की तरह यहां प्रतिवर्ष रामलीलाएं भी मंचित होती हैं।

    नि:संदेह सुकमावती का हिंदू धर्म अपनाना एक ऐसी घटना है, जो यह संदेश देती है कि हिंदू धर्म ही सकारात्मक व समन्वयवादी है। इस्लाम को जहां कट्टरता के रूप में हिंसा की इबारत लिखता आतंकवाद नुकसान पहुंचा रहा है, वहीं ईसाई धर्म ने भी विस्तार के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य के बहाने कमजोर वर्ग के लोगों को सुनियोजित ढंग से लुभाकर धर्मांतरण कराया है। अलबत्ता हिंदू धर्म का आध्यात्मिक दर्शन आत्मिक संतोष और अलौकिक आनंद की अनुभूति देता है। व्यक्ति में सद्भाव और सौहाद्र्र की यह ऐसी निर्मीति है, जो एक राष्ट्र प्रमुख की हर तरह से सक्षम व समर्थ बेटी को हिंदू धर्म की सनातन श्रृंखला से जोड़ने की पर्याय बनी।

    इस्लाम और ईसाईयत में जहां वैचारिक भिन्नता की अस्वीकार्यता है, वहीं हिंदू धर्म अपनी आलोचना को न केवल सहन करता है, बल्कि बदलाव का शालीन रुख भी अपनाता है। अतएव वहां न केवल ईश्वर के विभिन्न रूपों में दस से लेकर चौबीस अवतार हैं, बल्कि विभिन्न पंथों के अनुसार ऐसी अनेक पूजा पद्धतियां हैं, जो दर्शन में अत्यंत मनोहारी हैं। वाराणसी और हरिद्वार की गंगा आरतियां इसी श्रेणी में आती हैं। यही वजह है कि हिंदू धर्म में पाकिस्तान जैसे ‘ईशनिंदा’ कानून का कोई वजूद नहीं है। हिंदू व ईसाई अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने के लिए ‘ईशनिंदा कानून’ क्रूर शासक जिया-उल-हक के शासनकाल में ‘पाकिस्तान पेनल कोड’ के अनुभाग 295-बी और 295-सी जोड़कर अस्तित्व में लाया गया था।

    दरअसल पाकिस्तान को यह कानून फिरंगी हुकूमत से विरासत में मिला है। 1860 में ब्रिटिश शासन ने धर्म संबंधी अपराधों के लिए एक कानून बनाया था, उसी का परिवर्तित रूप पाक का ईशनिंदा कानून है। इस कानून में हिंदू व ईसाई नाबालिग बच्चों को भी न केवल अपराधी बनाने का प्रावधान है, बल्कि अदालतों को मौत की सजा देने का भी अधिकार है। दुनिया के मानवाधिकार संगठन इस कानून को बदलवाने में नाकाम रहे हैं।

    सुकमावती भी इस्लाम धर्म की रुढ़िवादिता से प्रताड़ित हुई हैं। उदारमना सुकमावती ने 2018 में संपन्न हुए एक फैशन शो में स्वरचित कविता का वाचन किया। जिसमें सामाजिक व धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई गई थी। दरअसल सुकमावती को मुस्लिम चरमपंथियों द्वारा महिलाओं पर लादी जाने वाली पाबंदियां पसंद नहीं हैं। इस कविता में उन्होंने मुसलमानों से प्रार्थना करने की अपील भी की थी। गोया, धर्म के छिद्रांवेशियों और संकीर्ण बौद्धिकों ने इस कविता को शरिया कानून और हिजाब की निंदा से जोड़ दिया। पुलिस को शिकायत दर्ज करा दी। इसी तरह 2019 में एक बार फिर उन पर अपने पिता सुकर्णों की तुलना पैगंबर मोहम्मद से करने का आरोप लगा। कट्टरपंथी ताकतों ने इतना बवाल मचाया कि वे इस्लाम से विमुख होने के रास्ते खोजने लगीं। अंततः इस प्रगतिशील हस्ती की यह तलाश हिंदू धर्म की उदार विशालता में पूरी हुई।

    गीता का दर्शन कहता है कि व्यक्ति का मूल उसके अवचेतन में जन्म-जन्मांतर तक विद्यमान रहता है और अनुकूल अवसर पाकर मूल चेतना में लौट भी आता है। संभव है, सुकमावती की यही नियति रही हो ? उनके अवचेतन में अंतर्निहित इस संस्कार की पुष्टि उनके पिता के नामाकरण से भी होती है। उनके पिता का नाम महाभारत के उपेक्षित किंतु दानवीर योद्धा कर्ण के नाम से अभिप्रेरित है। सुकमावती के दादा ने जब पिता का नाम कर्ण रखना चाहा तो उनके राजदरबार के विद्वानों ने सलाह दी कि चूंकि कर्ण अन्याय और अत्याचारियों के पक्ष में खड़े थे, इसलिए इस नाम का सकारात्मक पक्ष मजबूत करने की दृष्टि से नाम में ‘सु’ जोड़ दिया जाए। ‘सुकर्णों’ अर्थात सत्य के पक्ष में खड़ा कर्ण ! यह संभवतः हिंदू धर्म की वंशानुगत सनातन विरासत से मिला वही संस्कार है, जो मन की अवचेतन अवस्था में उद्वेलित होता रहता है। गोया, इस भाव के अभाव में सत्य की और पलायन संभव ही नहीं था।

    इंडोनेशिया नामाकरण दो युनानी शब्दों के योग से बना है। ‘इंडो’ अर्थात इंडिया या भारत और ‘नेसॅस’ अर्थात द्वीप, यानी द्वीपों का भारत ! इंडोनेशिया का आदर्श वाक्य ‘भिन्नता में एकता’, अर्थात भारतीय नारे ‘विविधता में एकता’ का ही पर्याय है। यह नारा इस देश की अखंडता व संप्रभुता के इसलिए अनुरूप है, क्योंकि यहां के छोटे-बड़े द्वीप इसी मंत्र वाक्य से परस्पर जुड़े रहकर गणतंत्र की स्थापना करते हैं। एक समय ये सभी द्वीप सनातन संस्कृति और हिंदू आध्यात्मिकता के केंद्र रहे हैं। इस सभ्यता और संस्कृति के संस्कारों से अभिप्रेरित होकर यहां के राष्ट्रपति और सुकमावती के पिता सुकर्णों ने नेहरू को लिखा था, ‘आपका देश और जनता, इतिहास के प्रारंभिक काल से ही हमारे रक्त और संस्कृति दोनों से संबद्ध हैं। इंडिया शब्द नाम को हम एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह हमारे देश का पूर्वार्ध है। आपके प्राचीन देश की संस्कृति का उत्तराधिकार हमें कहां तक प्राप्त हुआ है, इसका ज्वलंत उदाहरण तो मेरा अपना नाम ही है।’

    अर्थात इस देश की गर्भनाल भारत में गड़ी हुई है। सूकर्णो के कथन के यथार्थ का सत्यापन रामायण, महाभारत और बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन से होता है। ईसाई और इस्लाम धर्मों के जन्म लेने के पहले से ही भारत के व्यापारी और नाविक इंडोनेशिया जाते रहे हैं। इनके बसने के साथ ही यहां हिंदू मंदिर और स्मारक बनाए जाने लगे। यहां का बाली राज्य हिंदू बहुल राज्य है। राजधानी जकार्ता में महाभारत के नायक अर्जुन की विशाल प्रतिमा स्थापित है। साफ है, इंडोनेशिया, आर्यावर्त कहे जाने वाले हिंदू राष्ट्र का हिस्सा था। दरअसल तलवार के बूते मुस्लिम आक्रांताओं के भारत आगमन से पहले इंडोनेशिया और दक्षिण एशियाई सभी द्वीप भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत थे। इसीलिए इन द्वीपों में आज भी सभ्यता और संस्कृति के अवशेष के रूप में वैदिक संस्कृति के चिन्ह आसानी से मिल जाते हैं।

    पृथ्वी के जिस भू-खंड को आज हम ‘एशिया’ नाम से जानते है, उसे एक समय ‘जम्बूद्वीप’ कहा जाता था। श्रीमद् भागवत और महाभारत में स्पष्ट उल्लेख है कि स्वयंभू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने समूची पृथ्वी को सात भागों में विभाजित कर दिया था। इन द्वीपों के नाम जम्मूद्वीप, प्लाशवश, पुष्कर, क्रोंच, शक, शाल्मली, तथा कुश हैं। जिस द्वीप में आज हम रहते हैं, वहीं जम्बूद्वीप एशिया है। इसीलिए इस भूखंड की संस्कृति का आदि स्रोत एक ही भारतीय वैदिक संस्कृति है। जिन आर्यों के भारत में बाहर से आने की बात वामपंथी करते हैं, वास्तव में वे ‘आर्य’ भारत से ही इन द्वीपों में गए थे। भारत से गए पृथु ने इन सातों द्वीपों में बंटी पृथ्वी पर ग्राम नगर और बस्तियां बसाईं। इन ग्राम और नगरों के अस्तित्व में आते जाने के साथ-साथ मनु और शतरूपा की संतानें बसती चली बईं और उन्होंने ही सनातन वैदिक संस्कृति के मूल की स्थापना के लिए प्रकृति की प्रार्थनाएं और मानवीय मूल्यों की संहिताएं रचीं। यही सनातन, वैदिक या फिर हिंदू धर्म की नींव बनी। सनातन का अर्थ है, जो था, जो है और कालांतर में भी रहेगा। अर्थात प्रकृति और मानवीय मूल्य अनवरत रहेंगे।

    कालांतर में जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, इन द्वीपों पर जलवायु की भिन्नता और भिन्न प्रकृति के प्रभाव के चलते भारत से पहुंचे मनुष्यों के वर्ण और आकृति में भिन्नता आती चली गई। जलवायु का प्रभाव खान-पान, रहन-सहन और आचार-विचार पर भी पड़ा। फिर यातायात की दुर्लभता के चलते संबंधों में दूरी बनती चली गई, जो अजनबी हो जाने का कारण बनी। आखिरकार अपने ही देश के लोग विदेशी बन गए। बावजूद इंडोनेशिया समेत पूर्वी एवं दक्षिण एशिया के सभी देश बर्मा, थाइलैंड, लाओस, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, नेपाल, जापान और चीन राम और कृष्ण की लीलाओं अथवा बौद्ध धर्म के दर्शन के माध्यम से आज भी सनातन भारतीय वैदिक संस्कृति से जुड़े हुए हैं।

    सुकमावती के हिंदू धर्म में पुनर्गामन के बाद इंडोनेशिया में पांच सौ साल पहले की गई उस भविष्यवाणी के भी सत्य होने की बात की जाने लगी है, जिसमें कहा गया था कि इंडोनेशिया में फिर से हिंदू धर्म की वापसी होगी। लेकिन अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जिस तरह से कट्टरपंथी ताकतें वजूद जमा रही हैं, उसके चलते यह कहना एकाएक मुश्किल ही है कि मानवीय मूल्यों के पैरोकार इस धर्म का विस्तार इस्लामिक चरमपंथियों के बीच हो पाएगा। बावजूद सुकमावती की घर वापसी से स्पष्ट है कि वहां के लोग अपना अस्तित्व सनातन धर्म की जड़ों में तलाश कर इसे अपनाने को प्रेरित हो रहे हैं।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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