– सियाराम पांडेय ‘शांत’
अतीत की नींव पर वर्तमान का महल खड़ा होता है लेकिन नींव दिखती नहीं है। नींव को देखने की किसी की इच्छा भी नहीं होती। नींव को देखने की हसरत पूरी करनी हो तो महल का मोह त्यागना होता है। उसे गिराए बिना,ध्वस्त किया बिना नींव की ईंट के दीदार संभव नहीं है। गौरवशाली अतीत जहां सुख देता है, वहीं अतीत का प्रभाव दुख देता है। अतीत सही मायने में सुख और दुख का समाहार है। राजनीतिक बुलंदियों और प्रभाव को भी इस आलोक में देखा समझा जा सकता है। जहां तक खुद की महानता और अच्छे होने का सवाल है तो यह काम व्यक्ति के कर्म स्वतः तय कर देते हैं।
इन दिनों राजनीति की कब्र से गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। एक ओर तो देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इसके औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं। ऐसा करने के बहाने तलाश रहे हैं। कोई खुद के पूर्णकालिक अध्यक्ष होने का दावा कर रहा है तो कोई बिना किसी परिवारवादी राजनीति के सियासत के चरम तक पहुंचने को जनता जनार्दन का आशीर्वाद मान रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो यहां तक कहा है कि हमें राष्ट्र के विभाजन की पीड़ा को भूलना नहीं चाहिए। इसके बाद तो भाजपा की राजनीति में ऐसा सोचने और कहने वालों की बाढ़ आ गई है। केंद्रीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर की राष्ट्र भक्ति की जहां चर्चा की, वहीं कांग्रेस उनकी आलोचना पर उतर आई है। इसमें शक नहीं कि देश की आजादी के लिए बीडी सावरकर ने जितनी जेल यातनाएं सहीं, उतनी शायद ही किसी क्रांतिवीर ने सही होगी। अंग्रेजों ने उन्हें दो बार उम्रकैद की सजा दी। उनके नाखून तक उतार लिए। इसके बाद भी कांग्रेस उन्हें वीर मानने को तैयार नहीं। वह उन्हें कायर करार दे रही है। रिहा करने का आवेदन तो तमाम कांग्रेसियों ने किया था लेकिन उन पर तो कभी सवाल नहीं उठे।
सावरकर मन से हिन्दू थे, शायद यह बात कांग्रेस हजम नहीं कर पाई। संघ प्रमुख मोहन भागवत की इस बात में दम है कि आजादी की बाद से ही सावरकर की छवि बिगाड़ने का षड्यंत्र किया गया। इसके बाद से राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है। असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता तो यहां तक कहने लगे हैं कि भाजपा महात्मा गांधी की जगह सावरकर को राष्ट्रपिता बनाना चाहती है। इसे बौद्धिक दिवालियापन नहीं तो और क्या कहा जाएगा ? राजनीतिक संकीर्णता का यह आलम उचित तो नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि जिस सुभाष चंद्र बोस के हवाले से कांग्रेस सावरकर को घेर रही है, उन नेताजी सुभाष चंद्र बोस और लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को कांग्रेस में वह हक और सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह अगर यह कह रहे हैं कि अंडमान-निकोबार को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का तीर्थ घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि यहां देश के तमाम स्वतंत्रता सेनानियों ने काला पानी की सजा भुगती है। अंडमान निकोबार में 299 करोड़ की 14 परियोजनाओं का उद्घाटन और 683 करोड़ की 12 परियोजनाओं का शिलान्यास कर, उद्घाटित पुल का नाम आजाद हिंद फौज रखने की इच्छा जाहिर कर मोदी सरकार ने महापुरुषों के प्रति जो सम्मान भाव प्रकट किया है, उसकी जितनी भी सराहना की जाए, कम है। सरकार को पता है कि सुई का काम तलवार नहीं कर सकती। देश केवल बड़े काम से समृद्ध नहीं होता। छोटे-छोटे काम भी देश को आगे बढ़ने में अहम भूमिका निभाते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि छोटे- छोटे व्यक्तिगत संकल्प देश में आमूल-चूल परिवर्तन लाने में बहुत मददगार साबित होते हैं। सभी भारतीयों को छोटे-छोटे व्यक्तिगत संकल्प लेने चाहिए जैसे कि कभी भी यातायात नियमों का उल्लंघन नहीं करना है या भोजन की बर्बादी नहीं करनी है।
अमित शाह अगर यह कह रहे हैं कि कांग्रेस ने दशकों के अपने शासन के दौरान अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह के लोगों के लिए कुछ नहीं किया। इस बात पर कांग्रेस को गौर करना चाहिए था। यह सच है कि चुनाव सिर पर हो तो आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला तेज हो जाता है। हर दल खुद को जन सापेक्ष, लोकहितकारी साबित करने में जुट जाता है। हर दल का दावा होता है कि देश को विकास और यश-प्रतिष्ठा के शिखर पर वही ले जा सकता है। वही उसे महान बना सकता है।
देश महान बनता है और तरक्की करता है तो सबके सहयोग से । चंद लोगों की समृद्धि ही देश की तरक्की का मानक नहीं हो सकती। सबके विकास में ही देश का विकास निहित है। इसलिए सबका साथ पाना और सबका विश्वास जीतना जरूरी है लेकिन देश के मौजूदा राजनीतिक राग तो इस बात की प्रतीति नहीं दिलाते कि हम इस ओर बढ़ भी रहे हैं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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