– आर.के. सिन्हा
कश्मीर की वादियां फिर से मासूमों के खून से लाल हो रही हैं। वहां पर धरतीपुत्र कश्मीरी कैमिस्ट मक्खन लाल बिंद्रा से लेकर बिहार के भागलपुर से काम की खोज में आए गरीब वीरेन्द्र पासवान और दो अध्यापकों को भी गोलियों से भून दिया जाता है। पासवान के अलावा, सभी के मारे जाने पर तो पूरे देश में शोक व्यक्त किया जा रहा है, पर पासवान की मौत पर उसके घरवालों या कुछ अपनों के अलावा रोने वाला भी नहीं है।
बिहार के भागलपुर का रहने वाला वीरेंद्र पासवान आतंकियों की गोलियों का शिकार हो गया। उसका अंतिम संस्कार झेलम किनारे दूधगंगा श्मशान घाट पर कर दिया गया। श्रीनगर के मेयर जुनैद अजीम मट्टू के इस संवेदनहीन बयान को पढ़िए जिसमें वे कह रहे हैं कि “मैं भागलपुर में नहीं, यहीं श्रीनगर में उसके (पासवान) भाई व अन्य परिजनों के पास सांत्वना व्यक्त करने जाऊंगा।” कितना महान काम कर रहे हैं मट्टू साहब। यह सब बोलते हुए उनके जमीर ने उन्हें रोका तक नहीं। वे पासवान के श्रीनगर में रहने वाले संबंधियों से मिलने का वादा कर रहे थे। जो शायद ही शिर्नगर में ढूंढ़ने से मिलें। पासवान के घरवालों को मुआवजे के तौर पर सवा लाख रुपए की अनुग्रह राशि प्रदान कर दी गई है।
भागलपुर का रहने वाला वीरेंद्र पासवान अक्सर गर्मियों के दौरान कश्मीर में रोजी रोटी कमाने आता था। वह श्रीनगर के मदीनसाहब, लालबाजार इलाके में ठेले पर स्वादिष्ट गोल गप्पे बनाकर बेचता था। उसकी हत्या की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट आफ जम्मू कश्मीर नामक संगठन ने ली है। लेकिन, किसी मानवाधिकार संगठन या कांग्रेस, आप, सपा बसपा जैसे किसी दल ने अबतक मांग नहीं कि पासवान के घर के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी दे दी जाए। या उसे भी लखीमपुर खीरी के दंगाइयों की तरह पचासों लाखों की बौछार कर दी जाय। क्या आतंकियों के हाथों मारे गए पासवान के परिवार को सिर्फ सवा लाख रुपए की राशि देना ही पर्याप्त है ?
कड़वी सच्चाई तो यह है कि देश के किसी भी भाग में बिहार के नागरिक के मारे जाने या अपमानित किए जाने पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं होती। अफसोस कि यह नहीं देखा जाता कि बिहारी जहां भी जाता है वहां पूरी मेहनत से जी-जान लगाकर काम करता है। आप जम्मू-कश्मीर या अब केन्द्र शासित प्रदेश हो गए लद्दाख का भी एक चक्कर भर लगा लें। आपको दूरदराज के इलाकों में अंडमन से लक्षद्वीप, हिमाचल से अरुणाचल तक बिहारी मजदूर निर्माण कार्यों में लगे मिलेंगे। लेह- करगिल मार्ग पर सड़क और दूसरे निर्माणाधीन परियोजनाओं में बिहारी सख्त विपरीत जलवायु में भी काम करते मिलेंगे।
कुछ समय पहले मेरे कुछ मित्रों को लेह जाने का अवसर मिला था। वहां पर आम गर्मी के मौसम में भी काफी ठंडा होने लगा था। वहां दिन में भी तापमान 12 डिग्री के आसपास ही रहता है। सुबह-शाम तो पूछिये ही मत ! दिन में भी जैकेट या स्वेटर पहनना जरूरी है। इन कठिन हालातों में भी आपको अनेकों बिहारी गुरुद्वारा पत्थर साहब के आसपास मिल जाएंगे। उनके चेहरों पर उत्साह भरा रहता है। वे पराई जगहों को भी जल्द ही अपना ही मानने लगते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब की बहुत महानता मानी जाती है क्योंकि यहाँ बाबा नानक आए थे। आपको लेह और इसके आसपास के होटलों और बाजारों में भी बहुत से बिहारी मेहनत मशक्कत करते हुए दिखाई दे जाएंगे। ये सुबह से लेकर देर शाम तक काम करते रहते हैं।
इन निर्दोषों पर हमला करने का क्या मतलब है। इन्हें या दूसरे मासूम लोगों को वे मार रहे हैं, जो अपने को किसी इस्लामिक संगठन का सदस्य बताते हैं। अब जरा देखिए कि कश्मीर में ताजा घटनाओं के बाद किसी भी मुस्लिम नेता या मानवाधिकार संगठन या कश्मीरियत की बात करने वाले राजनेताओं ने तेजी से बढ़ती हिंसक वारदातों की निंदा नहीं की। ये सब लोग भी यह अच्छी तरह समझ लें कि सिर्फ यह कहने से तो बात नहीं बनेगी कि इस्लाम भी अमन का ही मजहब है। यह तो इन्हें सिद्ध करना होगा। इन्हें अपने मजहब के कठमुल्लों से दो-दो हाथ करना होगा।
बहरहाल, वीरेंद्र पासवान तो कश्मीर में भी बिहार से रोजी रोटी कमाने ही आया था। उस गरीब ने किसी का क्या बिगाड़ा था। जब गोलियों से छलनी वीरेन्द्र पासवान का शव मिला तो उसके मुँह पर मास्क तक लगा हुआ था। अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर कश्मीर में आये पासवान के शरीर में कोरोना तो जा नहीं पाया, परआतंकियों के बुलेट ने शरीर को छलनी कर दिया।
पासवान परिवार, लालू यादव का परिवार, या किसी को भी इतनी फुर्सत नहीं है कि वे पासवान की मौत की निंदा भर ही कर दें। लेकिन, कोई दलित नेता, कोई बुद्धिजीवी या ह्यूमन राइट वाला आगे नहीं आया। यह कोई पहली बार नहीं हुआ जब अपने ही देश में किसी गरीब बिहारी के साथ सौतेला व्यवहार किया गया हो। कुछ साल पहले मणिपुर में भी बिहारियों के साथ मारपीट की घटनाएं बढ़ीं थीं। उन्हें मारा जाना देश के संघीय ढांचे को ललकारने के समान है। यह स्थिति हर हालत में रुकनी ही चाहिए।
इसी तरह से बिहारियों पर देश के अलग-अलग भागों में हमले होते रहे हैं। अगर बात असम की करें तो वहां पर इन हमलों के पीछे उल्फा आतंकवादियों की भूमिका होती है। दरअसल जब भी उल्फा को केंद्र के सामने अपनी ताकत दिखानी होती है, वह निर्दोष हिंदी भाषियों (बिहार या यूपी वालों) को ही निशाना बनाने लगता है। पूर्वोत्तर के दो राज्यों क्रमश: असम तथा मणिपुर में हिन्दी भाषियों को कई वर्षों से मारा जाता रहा है। ये हिन्दी भाषी पूर्वोत्तर में सदियों से बसे हुए हैं। असम तथा मणिपुर में हिन्दी भाषियों की आबादी लाखों में है। ये अब असमिया तथा मणिपुरी ही बोलते हैं। ये पूरी तरह से वहां के ही हो गए हैं। बस एक तरह से इनके अपने पुरखों के राज्यों से भावनात्मक संबंध भर ही बचे हैं।
दिल्ली में अपने मुख्यमंत्रित्वकाल के दौरान स्वर्गीय शीला दीक्षित ने भी एकबार राजधानी की समस्याओं के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसनेवाले लोगों को जिम्मेदार ठहरा दिया था। यह बात 2007 की है जब शीला दीक्षित ने कहा था कि दिल्ली एक संपन्न राज्य है और यहाँ जीवन-यापन के लिए बिहार तथा उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में लोग आते हैं और यहीं बस जाते हैं। इस कारण से यहां की मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध कराना कठिन हो रहा है। सवाल यह है कि क्या बिहारी देश के किसी भी भाग में रहने-कमाने के लिए स्वतंत्र नहीं है ? अब ऐसी ही बात केजरीवाल भी करने लगे हैं।
देखिए, बिहार को आप देश के ज्ञान का केन्द्र या राजधानी मान सकते हैं। महावीर, बुद्ध और चार प्रथम शंकराचार्यों में एक (मंडन मिश्र) और भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तक को बिहार ने ही दिया। ज्ञान प्राप्त करने की जिजीविषा हरेक बिहारी में सदैव बनी रहती है। बिहारी के लिए भारत एक पवि शब्द है। वह सारे भारत को ही अपना मानता है। वह मधु लिमये, आचार्य कृपलानी से लेकर जार्ज फर्नांडीज को अपना नेता मानता रहा है और बिहार से लोकसभा में भेजता रहा है । क्या बिहारी को भारत के किसी भी भाग में इस तरह से मारा-पीटा जाएगा ?
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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