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    महापुरुषों को अपना बताएं, मगर वैसा बनें भी तो

  • September 24, 2021

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    महापुरुष किसके हैं, यह सवाल भारत में हमेशा उछलता रहा है, लेकिन कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि हम अपने महापुरुषों की तरह क्यों नहीं। उनके गुण हममें क्यों नहीं। आनुवांशिकता का सिद्धांत तो यही कहता है कि पूर्वजों के गुण वंशजों में आते हैं और पीढ़ियों तक हस्तांतरित होते रहते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो हमें महापुरुषों से खुद को जोड़ने का अधिकार कहाँ से मिल जाता है। खुद को बदलने और उन जैसा बनने की कोशिश किए बगैर ‘को है जनक, कौन है जननी, कौन नारी को दासी’ वाले सवाल तो उठते ही हैं।

    भाजपा पर तो महापुरुषों पर कब्जा करने तक के आरोप लगते रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब वाराणसी में संत रविदास मंदिर पहुंचे थे और जब उन्होंने डॉ. भीमराव आंबेडकर की जन्मस्थली महू सहित उनसे जुड़े पंचतीर्थों के विकास का बीड़ा उठाया तब भी उन पर दलित महापुरुषों की राजनीति करने का आरोप लगा था। बसपा प्रमुख मायावती ने तो तत्काल विरोधी प्रतिक्रिया दी। जब उन्होंने गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल की लौह प्रतिमा बनवाई और उसका लोकार्पण किया तब भी कुछ इसी तरह के आरोप लगे थे। कांग्रेस का तर्क था कि सरदार वल्लभ भाई पटेल तो कांग्रेसी थे।

    जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गांधी जयंती को स्वच्छता मिशन से जोड़ा, गांधीजी पर आधारित योजनाओं को विस्तार दिया तब भी कांग्रेस का तर्क था कि गांधीजी तो कभी भाजपा के नहीं रहे। समाजवादी पार्टी फूलन देवी की प्रतिमा लगाने की घोषणा कर चुकी है। भगवान परशुराम की प्रतिमा लगाने की घोषणा तो वह पहले ही कर चुकी है। विकासशील इंसान पार्टी भी कुछ ऐसा ही करने की घोषणा कर चुकी है।

    भाजपा ने हाल ही में भारतेंदु हरिश्चंद की जब प्रतिमा लगाई तब भी इसे पिछड़े वर्ग की राजनीति से जोड़कर देखा गया। हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलीगढ़ में राजा महेंद्र सिंह राज्य विश्वविद्यालय की नींव रखी थी, तब भी अखिलेश यादव ने इस पर आपत्ति जाहिर की थी। इसे जाटों को खुश करने के तौर पर देखा गया था। अखिलेश यादव ने हाल ही में कहा है कि भाजपा को नाम बदलने का नशा हो गया है। नाम बदलते-बदलते वह खुद बदल जाएगी। जनता उसे बदल देगी। सभी विपक्षी दलों को भरोसा है कि इसबार जनता भाजपा का साथ नहीं देगी। इसके बाद भी अगर वे बेचैन और परेशान दिख रहे हैं तो इसका मतलब साफ है कि नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ अपने विकास कार्यों की बदौलत जिस तरह जानता के बीच अपनी पैठ मजबूत कर रहे हैं, वह विपक्ष को पच नहीं पा रही है।

    भाजपा के प्रबुद्ध सम्मेलन पर सपा का तर्क है कि सर्वप्रथम प्रदेश में प्रबुद्ध सम्मेलन की शुरुआत उसी ने की थी। योगी जब कभी किसी परियोजना का लोकार्पण करते हैं तो अखिलेश का तर्क होता है कि यह योजना हमने शुरू की थी। योजना किसने शुरू की, यह उतना मायने नहीं रखती जितना यह कि योजना पूरी किसने की ? योगी और मोदी योजनाओं का शिलान्यास ही नहीं कर रहे, उसका लोकार्पण भी कर रहे हैं। विचार तो इस पर भी किया जाना चाहिए। रही बात बदलते-बदलते खुद बदल जाने की तो यह प्रकृति का नियम है। व्यक्ति जैसा सोचता और करता है, वैसा ही बन जाता है। रावण ने मारीच से कहा था कि वह राम बन जाए। उसने दो-तीन प्रयास के बाद कहा कि ऐसा कर पाना उसके लिए संभव नहीं है। क्योंकि वह ज्योंही, राम बनता है, उसकी वृत्तियाँ दानवी नहीं रह जातीं। सात्विक हो जाती हैं।

    अखिलेश यादव को सोचना होगा कि जो खुद नहीं बदल सकता, वह बदलाव भी नहीं ला सकता। राजनीति में तो निरंतर नवोन्मेष की जरूरत होती है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ अगर यह कह रहे हैं कि सपा और बुद्धि नदी के दो किनारे हैं तो उस पर आत्ममंथन किया जाना चाहिए और खुद को बदलने के प्रयास किए जाने चाहिए।

    उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अमरोहा, नोएडा और हापुड़ में बेहद पते की बात कही है। राष्ट्रधर्म सबसे पहला धर्म होना चाहिए। देश की सुरक्षा बाधित होने पर हम सब भी सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। इसलिए हमें राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि रखना होगा। राष्ट्र सुरक्षित होगा तो दुनिया की कोई शक्ति हमारी तरफ आंख नहीं उठा पाएगी। उन्होंने कहा है कि महापुरुष सबके होते हैं, इन्हें किसी एक का नहीं कहा जा सकता। सम्राट मिहिर भोज को अपना पूर्वज बताने का जो विवाद राजपूतों और गुर्जरों के बीच उठा था, मुख्यमंत्री ने प्रकारांतर से उसी ओर इशारा किया है। उन्होंने प्रदेश और देश को यह संदेश देने की कोशिश की है कि राष्ट्र सर्वोपरि है। राष्ट्र है तो हम हैं। राष्ट्र ही नहीं रहेगा तो क्या होगा ? उन्होंने कहा है कि महापुरुष तो सबके होते हैं, उन पर कुछ लोग दावे ठोकने लगें तो इससे परस्पर विद्वेष की स्थिति बनती है और देश-प्रदेश की ताकत क्षीण होती है। उसकी एकता प्रभावित होती है।

    व्यक्ति देश से है या देश व्यक्ति से। जिस तरह बूंद-बूंद से नदी और समुद्र बनता है। उसी तरह एक-एक व्यक्ति के मेल से समाज, प्रांत और देश का निर्माण होता है। हर व्यक्ति स्वयं में महत्वपूर्ण है। हर व्यक्ति के होने का अपना मतलब है। कोई किसी से कम नहीं है लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना है कि एकता और अखंडता की बदौलत ही कोई देश मजबूत होता है।

    दादरी के राजा मिहिर भोज कॉलेज में राजा मिहिर भोज की मूर्ति के अनवारण को लेकर करणी सभा ने दावा किया था कि मिहिर भोज राजपूत हैं। गुर्जर के रूप में उनकी प्रतिमा का अगर अनावरण किया जाएगा तो वे योगी सरकार का विरोध करेंगे। गुर्जर समाज भी स्वयं को राजा मिहिर भोज का वंशज होने का दावा कर रहा है। यह तो अच्छी बात है कि प्रतिमा के अनावरण से पहले राजपूतों और गुर्जरों ने मिहिर भोज को अपना पूर्वज मान लिया है।

    योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि किसी भी देश और प्रदेश का विकास तभी संभव है, जब वहां कानून का राज हो। विकास होगा तो जीवन में खुशहाली आएगी, युवाओं को रोजगार का अवसर मिलेगा। विकास की रफ्तार को गति तभी मिलती है जब जनप्रतिनिधि अच्छे हों।

    यह सच है कि चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक दल भावनाओं और संवेदनाओं का खेल आरम्भ कर देते हैं। वे यथार्थ में कम, कल्पनाओं में ज्यादा जीने लगते हैं। सबका साथ, सबका विश्वास जीतने के लिए सबका विकास आवश्यक है। यह सच है कि इस देश में जितनी विषमता है, उसमे सबका विकास, सबकी संतुष्टि संभव नहीं है लेकिन सबके विकास की भावना तो होनी ही चाहिए।

    कुल मिलाकर मौजूदा समय राजनीतिक आत्ममंथन करने और सटीक रणनीति बनाने का है। राजनीति की वैतरणी पार करनी है तो विकास, विश्वास और सबके साथ की नौका होनी चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘तुलसी इस संसार में भांति-भांति के लोग। सबसे हिल-मिल रहिए, नदी-नाव संयोग।’ भारतीय राजनीति पर भी कमोबेश यही सिद्धांत लागू होता है। काश ! राजनीतिक दल इस युग सत्य को समझ पाते।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)

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