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    कभी ‘तालिबान खान’ के उपनाम से जाने जाते थे इमरान खान, पढ़िए पाकिस्तानी पत्रकार का लेख

  • August 27, 2021

    डेस्क। प्रधानमंत्री इमरान खान (Imran Khan) ने, जिन्हें कभी तालिबान (Taliban) खान के उपनाम से जाना जाता था, अफगानिस्तान (Afghanistan) पर तालिबान (Taliban) के कब्जे का स्वागत किया है। काबुल (Kabul) में बदलाव का स्वागत करने वाले वह पहले पाकिस्तानी राजनेता थे। काबुल (Kabul) और राष्ट्रपति भवन पर तालिबान (Taliban) के कब्जे के एक दिन बाद उन्होंने अपने एक बयान में कहा कि तालिबान (Taliban) ने गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं।

    हालांकि, अनेक पाकिस्तानी उनसे सहमत नहीं हैं और उन्होंने खुले तौर पर कहा है कि इमरान खान (Imran Khan) को पहले इंतजार करना चाहिए और देखना चाहिए कि तालिबान (Taliban) कैसे शासन करते हैं, और क्या वे महिलाओं और अल्पसंख्यकों को पूर्ण अधिकार देंगे। यद्यपि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने काबुल (Kabul) में बदलाव का स्वागत नहीं किया है, लेकिन जमात ए इस्लामी जैसी दक्षिणपंथी पार्टियां और मौलाना फजलुर रहमान जैसे मजहबी नेताओं ने तालिबान (Taliban) का स्वागत किया है।

    ऐसी खबरें हैं कि खैबर पख्तुनख्वा में तालिबान (Taliban) का सफेद झंडा फहराया गया और जश्न मनाया गया, लेकिन आधिकारिक तौर पर सरकार तालिबान (Taliban) के झंडे फहराने की इजाजत नहीं दे रही। कट्टरपंथियों द्वारा संचालित इस्लामाबाद की लाल मस्जिद में शुक्रवार को सफेद झंडा फहराया गया था, लेकिन पुलिस ने उसे उतार दिया। अफगानिस्तान (Afghanistan) के ताजा हालात पर नजर रखने वाले पीएमएल (एन) के सीनेटर सैयद मुशाहिद हुसैन ने, जो सीनेट की डिफेंस कमेटी के अध्यक्ष भी हैं, कहा कि यह अमेरिका का अपमान है। वह कहते हैं, ‘आज दुनिया के एकमात्र महाशक्ति देश की छवि, प्रभाव और आत्मविश्वास अफगानिस्तान (Afghanistan) में युद्ध के विनाश के मलबे में दबे हैं।

    अफगानिस्तान (Afghanistan) साम्राज्यों के कब्रिस्तान के रूप में अपनी पहचान पर खरा उतरा है और अब अमेरिकी महाशक्ति का गौरव चकनाचूर कर रहा है, जैसा कि उसने पहले 19वीं और 20वीं सदी की महाशक्तियों, ब्रिटेन और सोवियत संघ का किया था।’ पाकिस्तान में इसको लेकर भी असमंजस है कि नए हालात में कैसे आगे बढ़ना है। कई सारे मंत्री अलग-अलग बयान दे रहे हैं और विपक्षी पार्टियां संसद सत्र न बुलाने और भावी नीतियों पर उन्हें भरोसे में न लेने को लेकर इमरान सरकार की आलोचना कर रही हैं। इस सिलसिले में आया सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा का पहला बयान काफी सख्त था।

    उन्होंने कहा कि पाकिस्तान उम्मीद करता है कि तालिबान (Taliban) महिलाओं और मानवाधिकारों के संबंध में वैश्विक समुदाय से किए वादे पूरे करेंगे और किसी अन्य देश के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देंगे। अमेरिका में राजदूत रह चुकीं डॉ मलीहा लोधी का मानना है कि अनिश्चितता की मौजूदा स्थिति में पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण यह है कि वहां के हालात स्थिर हों और अमन कायम हो। सरकार को वहां की उभरती स्थिति पर कम और एक स्वर में बोलना चाहिए। जश्न मनाने, तालिबान (Taliban) का प्रवक्ता बनने या अतीत के प्रति जुनूनी होने की कोई वजह नहीं है। हमें वहां के भविष्य को लेकर चिंता होनी चाहिए कि क्या दशकों की जंग, संघर्ष और विदेशी हस्तक्षेप के बाद अफगानिस्तान (Afghanistan) में शांति लौट पाएगी।


    अफगानिस्तान (Afghanistan) में जो कुछ भी होता है, उसका सबसे अधिक असर पाकिस्तान पर पड़ता है। अफगानिस्तान (Afghanistan) के भीतर तोर्खम और चमन सीमा से आने-जाने वाले ट्रकों से व्यापार हो रहा है। पर दोनों तरफ सैकड़ों ट्रक खड़े हैं। इसकी वजह यह है कि अधिकारी बहुत सख्त हो गए हैं और वे यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि ड्राइवरों के पास उचित दस्तावेज हों और उनकी आड़ में शरणार्थी पाकिस्तान में दाखिल न हो रहे हों। पाकिस्तान ने पहले ही कह दिया है कि उसने शरणार्थियों को न आने देने के लिए सभी उपाय किए हैं, क्योंकि वहां पहले से ही करीब तीन लाख शरणार्थी हैं।

    बलूचिस्तान से मानव तस्करी की कई खबरें भी आई हैं। दो दशक पहले तालिबान (Taliban) को मान्यता देने वालों में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ पाकिस्तान था, लेकिन इस बार ये तीनों ही देश तालिबान (Taliban) को मान्यता देने की जल्दबाजी में नहीं हैं। पाकिस्तान ने तालिबान (Taliban) से स्पष्ट कहा है कि इस बार वे एक क्षेत्रीय समझदारी बनाने की कोशिश करें, ताकि अफगानिस्तान (Afghanistan) के सभी निकट पड़ोसी सामूहिक रूप से उन्हें मान्यता दे सकें।

    इससे तालिबान (Taliban) पर दबाव बना हुआ है, लेकिन जब मैंने पंजाब प्रांत के विभिन्न समुदायों के लोगों से बात की, तो पता चला कि उनमें से ज्यादातर की अफगानिस्तान (Afghanistan) में कोई दिलचस्पी नहीं है और कई को तो यह भी नहीं मालूम कि चारों तरफ से घिरे उस देश में क्या हुआ है। इसको लेकर सबसे ज्यादा दिलचस्पी और जागरूकता खैबर पख्तुनख्वा में है, जहां अफगानिस्तान (Afghanistan) के घटनाक्रम का सीधा असर होता है। पर वहां के ज्यादातर लोगों की इस मामले में वैसी दिलचस्पी नहीं है, जैसी सोवियत संघ के अफगानिस्तान (Afghanistan) से चले जाने के वक्त थी। इस मुश्किल वक्त में अफगानों के प्रति उनके मन में सहानुभूति है, लेकिन वे और शरणार्थियों के स्वागत के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि संसाधन सीमित हैं।

    बहरहाल क्या किसी ने काबुल (Kabul) हवाई अड्डे पर अफगानी महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को देखा है, जो मुल्क छोड़ने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं? दुनिया भर का मीडिया अफगानिस्तान (Afghanistan) के बाकी हिस्सों को भूल गया है और केवल हवाई अड्डे पर ध्यान केंद्रित किए हुए है, क्योंकि अफगान छोड़ने वाले ज्यादातर अमेरिकी और यूरोपीय हैं, जिनमें बड़ी संख्या में अफगान भी हैं। सैकड़ों तस्वीरों में दिखाया गया है कि अफगान बहुत अमीर नहीं हैं और उनके पास सिर्फ एक थैला है। ज्यादातर अफगानी नंगे पैर हैं, जो अपने वतन की धूल और मिट्टी अपने पैरों तले ढो रहे हैं। अफगानिस्तान (Afghanistan) की इसी मिट्टी के लिए वे आने वाले वर्षों में तरसेंगे। यह वह मिट्टी है, जहां उनके परिवार की पीढ़ियां कब्रों में दफन हैं। इनमें से कुछ अफगान शायद कभी घर नहीं लौटेंगे।

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