– आर.के. सिन्हा
आज रविवार को रक्षाबंधन का पवित्र पर्व है, तो आधी दुनिया के हक में दो कदम उठाए ही जा सकते हैं। एक काम समाज को करना होगा, दूसरा सरकार को। दोनों काम कतई मुश्किल भी नहीं हैं। हां, इसके लिए जज्बा और राजनीतिक इच्छाशक्ति तो चाहिए। इसके बिना बात नहीं बनेगी। पहला काम यह हो सकता है, हरेक हिन्दुस्तानी अपने घर के बाहर लगी नेम प्लेट (नाम पट्टिका) पर अपनी पुत्री और पत्नी का नाम भी लिखवाने का संकल्प लेकर उसे तुरंत पूरा कर लें । इससे ये संदेश जाएगा कि समाज अपने घर की बेटियों और महिलाओं के प्रति भी भरपूर कृतज्ञता का भाव रखता है। आपको इस तरह का कोई भी परिवार नहीं मिलेगा जिसे बनाने,संवारने और ठोस बनाने में घर की महिला सदस्यों का भरपूर योगदान न रहा हो। घर की नेम प्लेट में पुत्री, बहन या पत्नी का नाम लिखवाने के मामले में हमारा समाज अभी भी बहुत उदारवादी रवैया नहीं अपनाता।
राजधानी की सामाजिक संस्था शहीद भगत सिंह सेवा दल ने हाल ही में साउथ दिल्ली के तीन आवासीय क्षेत्रों क्रमश: मालवीय नगर, कालकाजी और शेख सराय के 125 घरों के बाहर लगी नेम प्लेट को देखा। इस अध्ययन से पता चला कि सिर्फ 14 घरों के बाहर ही चस्पा नेम प्लेट में किसी महिला का नाम था। शेष में घर के पुरुष सदस्यों के नाम ही चमक रहे थे। जाहिर है कि सर्वेक्षण के नतीजे से आधी दुनिया को जीवन को सभी क्षेत्रों में बराबरी की वकालत करने वाले लोग निराश ही होंगे। जब इतने निराशाजनक परिणाम देश की राजधानी से आए हैं, तो यह समझ लें कि देश के छोटे शहरों और गांवों में क्या स्थिति होगी। वहां स्थिति तो और भी बदत्तर ही होगी। होता यह है कि बहुत से लोग अपने पांच साल के पुत्र का नाम भी अपने घर की नेम प्लेट पर बड़े शौक से लिखवा देते हैं। ठीक भी है। यह उनका निजी मसला है। पर वे अपनी पुत्री का नाम कभी नहीं लिखवाते। मेरी आपत्ति इसलिए है। क्या पुत्री का नाम घर की नेम प्लेट पर कम से कम उसकी शादी तक या यूं कहें कि हमेशा के लिए नहीं रह सकता? अब तो लड़कियों का विवाह अच्छी-खासी पढ़ाई और फिर अच्छी नौकरी या कैरियर में जमने के बाद ही होता है। जाहिर है, इस दौरान वह भी घर का खर्चा चलाने में बढ़चढ़कर भाई की सहयोग भी करती हैं। क्या जब तक कन्या का विवाह नहीं होता, तब तक उसका नाम घर की नेम प्लेट पर लिखवाने से कोई आफत आ जाएगी? इस स्तर पर परिवार के पुरुष सदस्यों (पिता और पुत्रों) को भी आगे बढ़ना होगा । हां,अगर उनका नाम उनके विवाह के बाद हटा दिया जाता है, तब तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी। वैसे मेरे विचार से उनका नाम उनके आजीवन रहे तो भी कोई हर्ज भी नहीं है। बेटी का नाम अपनी ससुराल वाले घर की नेम प्लेट पर भी जोड़ा जाना चाहिए। पर अभी तक तो यह नहीं हो पा रहा है।
रक्षाबंधन पर सारे देश में बहनों-बेटियों की रक्षा के संकल्प लिए जायेंगे। हालांकि अब ये सब रस्मअदायगी सा ही लगता है। अब भी गिने-चुने परिवार या पिता ही अपनी बेटियों को अपनी चल और अचल संपत्ति में पुत्रों के बराबर का हिस्सा देते हैं? बुरा न मानें, आपको दस फीसद परिवार भी नहीं मिलेंगे, जहां पर पुत्री को पिता या परिवार की अचल संपत्ति में बराबर का हक मिला हो। भारतीय कानून वैसे कहने को तो पिता की पुश्तैनी संपत्ति में बेटी को भी बराबर हिस्से का अधिकार देता है। हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में बेटी के लिए पिता की संपत्ति में किसी तरह के कानूनी अधिकार की बात नहीं कही गई थी। जबकि संयुक्त हिंदू परिवार होने की स्थिति में बेटी को जीविका की मांग करने का अधिकार दिया गया था। बाद में नौ सितंबर 2005 को इस कानून में संशोधन कर पिता की संपत्ति में बेटी को भी बेटे के बराबर अधिकार दिया गया।
सच में मन बड़ा उदास सा हो जाता है कि आधी आबादी घर और घर के बाहर कदम-कदम पर अन्याय का ही शिकार होती है। अपने हिस्से का आसमान छूने वाली बेटी को अपने ही माता-पिता के घर में सही से न्याय नहीं मिल पाता। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि आज के दौर में कार्यशील महिलाओं का आंकड़ा तो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इस नई परिस्थिति में यह महत्वपूर्ण है कि औरतों को उनके घर के ठीक बाहर यानी नेम प्लेट में तो एक छोटा सा स्थान मिले।
नेम प्लेट में घर की स्त्री को उसका वाजिब हक देने के साथ-साथ मुझे लगता है कि केन्द्र और राज्य सरकारों को भी अपने महिला आयोगों को और सशक्त बनाना होगा। क्या ये अभी समाज की हाशिए पर खड़ी औरतों के साथ संकट में खड़े होते हैं? क्या नेशनल कमीशन फॉर वूमेन पर्याप्त ढंग से असरदार है? सच यह है कि यह कमीशन महिलाओं के उत्पीड़न के मामलों पर कोई बड़ा कदम नहीं उठा पाते। ये किसी सरकारी अधिकारी को अपने पास तलब तो कर सकते हैं। यह बात अलग है कि वह अफसर इनके पास आए या ना आए। अगर कोई अफसर तलब करने के बाद भी नहीं आता तो कमीशन के हाथ बंधे हुए हैं। नेशनल कमीशन फॉर वूमेन की स्थापना 1992 में हुई थी। इसका मसौदा मृणाल गोरे और प्रमिला दंडवते जैसी आदरणीय महिलाओं ने मिलकर तैयार किया था,जो औरतों को उनके वाजिब हक दिलाने के लिए काम कर रही थीं। फिर क्या हुआ ? सबको पता है कि नेशनल कमीशन फॉर वूमेन एक एनजीओ मात्र बनकर ही रह गया है। ये पार्किंग बन गया है उन सत्ताधारी दलों की महिला नेताओं के लिए, जो किसी चुनाव में हार गई हैं।
सच यह है कि औरतों के हक के लिए प्रयास करते रहना होगा। इन्हें कदम-कदम पर अवरोधों और कष्टों से दो-चार होना पड़ता है। जिस देश में देवी आराध्य है, नवरात्रों पर कन्या पूजन होता है और उनके चरण स्पर्श किए जाते हैं उस देश में औरतों के साथ किसी भी स्तर पर भेदभाव का होना अक्षम्य है। औरतें को लेकर देश-समाज को अपने सड़े हुए रवैये में भारी बदलाव लाना होगा। हाल ही में संपन्न टोक्यो ओलंपिक खेलों में पी.वी. सिंधू, चानू मीराबाई, लवलीना बोरगोहेन की अथक परिश्रम ने देश को पदक दिलवाए। हमारी महिला हॉकी टीम ने भी श्रेष्ठ खेल खेला। इन महिलाओं पर देश को नाज है। पर नाज भर करने से बात नहीं बनेगी। इन्हें इनके हक भी तो देने ही होंगे।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)
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