– आर.के. सिन्हा
भारत की महिला और पुरुष हॉकी टीमों के टोक्यो ओलंपिक खेलों में चमत्कारी प्रदर्शन पर सारा देश गर्व महसूस कर रहा है। भारत के हॉकी प्रेमियों की कई पीढ़ियां इतने शानदार प्रदर्शन को देखने से तरस गई थी। पर जरा देखिए कि पुरुष और महिला हॉकी टीमों के अधिकतर खिलाड़ियों ने जिनका संबंध देश के छोटे-छोटे शहरों, कस्बों और गांवों से है, यह कमल कर दिखाया। जिनके पास खेलों का आधारभूत ढांचा तक नसीब नहीं है, वे ही खिलाड़ी हमारी दोनों हॉकी टीमों में लाजवाब खेल दिखा रहे हैं। ये खिलाड़ी हरियाणा के शाहबाद मारकंडा, उत्तराखंड के हरिद्वार, झारखंड के खूंटी, पंजाब के अमृतसर के गांव और दूसरे अनाम जगहों से संबंध रखते हैं। पर इनमें जीत और आगे बढ़ने का जज्बा सच में अद्भुत है।
भारत की महिला हॉकी में दुनिया में अभी तक नौंवी रैंकिंग पर है। उसने क्वार्टर फाइनल में दुनिया की नंबर एक रैकिंग टीम आस्ट्रेलिया को हरा दिया। अमृतसर के पास के एक गांव मिद्दी कलां की बेटी गुरुजीत कौर ने भारत के लिए विजयी गोल दागा। वह एक बहुत छोटे से किसान की बेटी है। लेकिन अब तो उसे सारा देश जानता है। एक के बाद एक चमत्कार कर रही भारतीय हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल हरियाणा के कुरुक्षेत्र के छोटे से कस्बे शाहबाद मारकंडा से संबंध रखती हैं। उनके पिता दिहाड़ी मजदूर थे। रानी के पिता रामपाल जी मुझे एकबार बता रहे थे कि जब रानी ने हॉकी खेलना शुरू किया तो उनसे शाहबाद मारकंडा में बहुत से लोग कहने लगे कि, “रानी छोटे से पैंट पहनकर हॉकी खेलने के लिए जाती है। तुम्हारी माली हालत खराब है। कैसे उसके लिए हॉकी के किट वगैरह दिलवा पाओगे। उनका सवाल वाजिब था। हालांकि इसने मेरे अंदर एक अलग तरह का जज्बा पैदा कर दिया संघर्ष करने का। मैंने रानी के लिए जो भी कर सकता था वह किया।” रानी को 2010 के जूनियर वर्ल्ड कप हॉकी चैंपियनशिप में सबसे बेहतरीन खिलाड़ी का सम्मान मिला था। वह तब से ही भारत की हॉकी टीम के लिए खेल रही है।
आखिरकार, कितने लोगों ने वंदना कटारिया का नाम भारत के दक्षिण अफ्रीका पर विजय से पहले सुना रखा था। उस पूल ए के मैच में उसने तीन गोले दागे थे। इस तरह से वह भारत की पहली महिला हॉकी खिलाड़ी बन गई जिसने ओलंपिक में एक मैच में तीन गोल किए। हरिद्वार से कुछ दूर स्थित रोशनाबाद कस्बे की वंदना के पिता ने तमाम अवरोधों के बावजूद उसे हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया। वंदना का हॉकी सेंस गजब का है। पिता भेल की फैक्टरी में मामूली-सी नौकरी करते थे। वंदना के ‘डी’ के भीतर निशाने अचूक ही रहते हैं। वह भारत की तरफ से लगातार खेल रही है। लेकिन, इन कीर्तिमानों के बीच वंदना को गरीबी और अभाव का सामना तो करना ही पड़ा।
दरअसल, भारत की महिला हॉकी खिलाड़ियों की कहानी परी कथा जैसी नहीं है। इसमें अभाव, गरीबी और समाज का विरोध और आलोचना भी शामिल हैं। इनमें से अधिकतर के पास बचपन में तो खेलने के लिए न तो जूते थे और न ही हॉकी किट। अगर ये शिखर पर पहुंचीं और अपने देश को सम्मान दिलवाया तो इसके लिए इनका खेल के प्रति जुनून और कुछ करने की जिद ही तो थी।
अगर बात भारत की पुरुष हॉकी टीम की करें तो उसके अधिकतर खिलाड़ी भी अति सामान्य परिवारों से हैं। इस भारतीय टीम में कोई भी खिलाड़ी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता या किसी भी बड़े महानगर या संपन्न परिवार से नहीं है। महानगरों में तो खेलों के विकास पर लगातार निवेश होता ही रहा। पर इन शहरों से कोई खिलाड़ी सामने नहीं आ रहे हैं। अगर दिल्ली की बात करें तो यहां पर दादा ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम से लेकर शिवाजी स्टेडियम तक हॉकी के विश्व स्तरीय स्टेडियम हैं। इनमें एस्ट्रो टर्फ वगैरह की सारी सुविधाएं हैं। पर भारतीय हॉकी टीम में एक भी दिल्ली का खिलाड़ी नहीं है। इसी दिल्ली ने पूर्व में हरबिंदर सिंह, मोहिन्दर लाल, जोगिन्दर सिंह (सभी 1964 के टोक्यो ओलंपिक विजयी टीम के खिलाड़ी), एम.के. कौशिक (1980 की गोल्ड मेडल विजयी टीम के सदस्य), आर.एस.जेंटल जैसे खिलाड़ी निकाले हैं। पता नहीं अब क्या हो गया दिल्ली के युवाओं को।
आर.एस.जेंटल 1948 (हेलसिंकी), 1952 (लंदन) और 1956 (मेलबर्न) में भारतीय हॉकी टीम के मेंबर थे। उन्होंने अपनी शुरुआती हॉकी कश्मीरी गेट में खेली। वे कमाल के फुल बैक थे। वे 1956 के मेलबर्न ओलंपिक खेलों में टीम के कप्तान भी थे। उन्हीं के फील्ड गोल की बदौलत भारत ने पाकिस्तान को फाइनल में शिकस्त दी थी। जेंटल बेहद रफ-टफ खिलाड़ी थे। विरोधी टीम के खिलाड़ियों को कई बार धक्का मारते हुए आगे बढ़ते थे। इसलिए कई बार उन्हें खिलाड़ी कहते थे, “प्लीज, बी जेंटल”। इसलिए उनका नाम ही जेंटल हो गया।
कुल मिलाकर यह बात तो समझ ही लेनी चाहिए कि अब बड़ी सफलता बड़े शहरों की बपौती नहीं रही। बड़े शहरों में बड़े स्टेडियम और दूसरी आधुनिक सुविधाएं तो जरूर होंगी। पर जज्बा तो छोटे शहर और गाँव वालों में भी कम नहीं है। ये अवरोधों को पार करके सफल हो रहे हैं। इनमें अर्जुन दृष्टि है। ये जो भी करते हैं, उसमें फिर अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। ये सोशल मीडिया पर और पार्टियों में बिजी नहीं रहते। नए भारत में सफलता का स्वाद सभी राज्यों के छोटे शहरों के बच्चों को भी अच्छी तरह लग गया है। आपको मेरठ, देवास, आजमगढ़, खूंटी, सिमडेगा और दूसरे शहरों में बच्चों को खेलों के मैदान में अभ्यास करते हुए देख सकते हैं।
अगर यहां पर छोटे शहरों से संबंध रखने वाले बच्चों के अभिभावकों की कुर्बानी की बात नहीं होगी तो बात अधूरी ही रहेगी। जब सारा समाज यह मानता है कि क्रिकेट के अलावा किसी खेल में करियर नहीं है तो भी कुछ माता-पिता अपने बच्चों के लिए तमाम तरह से संघर्ष करते ही रहते हैं।
एक बात अवश्य कहूंगा कि सफलता के लिए सुविधाएं अवश्य ही जरूरी हैं, पर खेलों में या जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए जुनून का होना कहीं ज्यादा अनिवार्य है। कुछ लोग यह कह देते हैं कि धनी परिवारों के बच्चे खेलों में आगे नहीं जा सकते। वे मेहनत करने से बचते हैं। यह भी सरासर गलत सोच है। मत भूलें कि भारत को पहला ओलंपिक का गोल्ड मेडल शूटिंग में अभिनव बिन्द्रा ने ही दिलवाया था। वे खासे धनी परिवार से संबंध रखते हैं। उनके पिता ने उन्हें अनेक सुविधाएं दीं और अभिनव ने मेहनत करके अपने को साबित किया। सफलता के लिए पहली शर्त यह है कि खिलाड़ी में जीतने की इच्छा शक्ति हो।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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