– रमेश सर्राफ धमोरा
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री व भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष वसुंधरा राजे धीरे-धीरे राजनीति के हाशिये पर धकेली जा रही हैं। कभी वसुंधरा राजे की राजस्थान की राजनीति में तूती बोलती थी। मगर अब हालात पूरी तरह बदल गए हैं। वसुंधरा राजे के लिए राजनीति में उपस्थिति बनाए रखना भी मुश्किल हो रहा है। इसीलिए वह अपने समर्थकों से कभी वसुंधरा राजे समर्थक मंच का गठन करवाती है तो कभी किसान मोर्चा के नाम पर प्रदेश स्तरीय संगठन खड़ा करने का प्रयास कर रही हैं। मगर ऐसे व्यक्तिवादी संगठन वसुंधरा राजे को राजनीति की मुख्यधारा में बनाए रखने के लिए काफी नहीं है। हालांकि वसुंधरा राजे भी इस बात से बखूबी वाकिफ हैं। लेकिन मरता क्या नहीं करता वाली कहावत इन दिनों उन पर भी लागू हो रही है। इसीलिए अपनी उपस्थिति बनाये रखने के लिये वह हर दाव आजमा रही हैं।
मौजूदा स्थिति के लिए वसुंधरा राजे स्वयं भी कम जिम्मेदार नहीं है। राजस्थान की राजनीति में लगातार बीस वर्षों तक एकछत्र राज करने वाली वसुंधरा राजे ने प्रदेश की राजनीति में अपने विरोधियों का चुन-चुनकर सफाया किया था। यहां तक कि उन्हें राजस्थान की राजनीति में लाने वाले देश के पूर्व उपराष्ट्रपति व राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय भैरों सिंह शेखावत को भी उन्होंने मुख्यधारा से दूर कर दिया था। एक समय तो ऐसी स्थिति हो गई थी वसुंधरा राजे के चलते भैरोंसिंह शेखावत भाजपा के खिलाफ बगावत करने तक को तैयार हो गए थे। मगर फिर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के समझाने पर उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए थे।
प्रदेश की राजनीति में दिग्गज नेता रहे भैरोंसिंह शेखावत, जसवंत सिंह, ललित किशोर चतुर्वेदी, हरिशंकर भाभड़ा, ओमप्रकाश माथुर, गुलाबचंद कटारिया, घनश्याम तिवारी जैसे वरिष्ठ नेताओं को हाशिये पर डालकर वसुंधरा राजे खुद को प्रदेश की राजनीति का सिरमौर बना लिया था। मगर समय का फेर देखिए जो वसुंधरा राजे ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ किया आज वही उन्हें स्वयं झेलना पड़ रहा है।
प्रदेश की दो बार मुख्यमंत्री, कई बार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव व केंद्र सरकार में मंत्री रह चुकी वसुंधरा राजे 2003 व 2013 के विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी। अपने दोनों ही कार्यकाल के बाद उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने वसुंधरा राजे को नेता प्रोजेक्ट कर विधानसभा का चुनाव लड़ा था। मगर जनता में उनके भारी विरोध के चलते भाजपा 163 सीटों से 72 सीटों पर ही सिमट कर रह गई थी। 2018 के चुनाव प्रचार के दौरान जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजस्थान में चुनावी सभाओं को संबोधित करते थे। तब प्रदेश की जनता मोदी की सभा में वसुंधरा के खिलाफ नारे लगा कर कहती थी कि मोदी तुझसे बैर नहीं वसुंधरा तेरी खैर नहीं। 2013 से 2018 तक के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में वसुंधरा राजे चाटुकारों से घिरी रही। इस दौरान उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से भी टकराने से गुरेज नहीं किया। 2018 के विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा आलाकमान राजस्थान में केन्द्रीय मंत्री गजेंद्रसिंह शेखावत को प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहता था। मगर वसुंधरा राजे ने वीटो कर गजेंद्रसिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनने से रोक दिया था। तब राज्यसभा सदस्य मदन लाल सैनी को प्रदेश अध्यक्ष बनाना पड़ा था।
2018 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद वसुंधरा राजे को राजनीति के हाशिए पर धकेलना शुरू कर दिया गया। सबसे पहले उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर राजस्थान की राजनीति से अलग किया गया। भाजपा अध्यक्ष मदनलाल सैनी के निधन से उनके स्थान पर संघ के करीबी सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। पूनिया की ताजपोशी में अमित शाह ने महती भूमिका निभाई थी।
सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष व गुलाबचंद कटारिया को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बना कर भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा राजे को साफ संकेत दे दिया था कि आने वाले समय में पार्टी में उनकी भूमिका नहीं रहेगी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से भाजपा में आए सतीश पूनिया लो प्रोफाइल नेता हैं। प्रारंभ से ही संगठन से जुड़े रहने के कारण प्रदेशभर के भाजपा कार्यकर्ताओं से उनका परिचय रहा है। ऐसे में उन्होंने धीरे-धीरे पार्टी पर अपनी पकड़ बनानी प्रारंभ कर दी। इससे वसुंधरा राजे समर्थकों में खलबली मच गई।
वसुंधरा समर्थक विधायक प्रताप सिंह सिंघवी, पूर्व विधायक प्रहलाद गुंजल, भवानीसिंह राजावत सहित कई अन्य नेताओं ने मीडिया में बयान देने प्रारंभ कर दिया कि 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए वसुंधरा राजे को अभी से नेता प्रोजेक्ट किया जाए। ताकि वह जनता से संपर्क कर पार्टी का आधार बढ़ा सकें। मगर वसुंधरा समर्थकों की बातों पर भाजपा आलाकमान ने गौर नहीं किया। जयपुर राजघराने की सांसद दिया कुमारी को वसुंधरा राजे की मर्जी के खिलाफ भाजपा का प्रदेश महामंत्री बनाया गया। दीया कुमारी को राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे के विकल्प के तौर पर देखा जाने लगा है। इससे वसुंधरा समर्थकों का नाराज होना स्वाभाविक ही था। रही सही कसर भाजपा के जयपुर स्थित प्रदेश कार्यालय में लगे होर्डिंग से वसुंधरा राजे का फोटो हटाने से पूरी हो गयी।
इसी दौरान प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ बयानबाजी करने व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर विवादित टिप्पणी करने पर वसुंधरा राजे के कट्टर समर्थक पूर्व मंत्री डॉ रोहिताश शर्मा को पार्टी से छह साल के लिए निष्कासित कर दिया गया। रोहिताश शर्मा के निष्कासन के बाद से वसुंधरा समर्थकों द्वारा भाजपा के प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ की जा रही बयानबाजी रुक गई। चर्चा है कि पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल के दौरान भी वसुंधरा राजे ने स्वयं या अपने पुत्र दुष्यंत सिंह को केंद्र सरकार में मंत्री बनवाने के लिए पूरी लॉबिंग की थी मगर वहां भी उनकी नहीं चल पाई।
राजस्थान भाजपा की राजनीति में इस समय वसुंधरा विरोधी खेमा प्रभावी हो रहा है। इसी खेमे द्वारा पिछले दिनों वसुंधरा के धुर विरोधी रहे घनश्याम तिवारी की भी भाजपा में घर वापसी करवा कर वसुंधरा राजे को तगड़ा झटका दिया गया है। वसुंधरा किसी भी कीमत पर घनश्याम तिवारी को फिर से भाजपा में शामिल करने के सख्त खिलाफ थी। ऐसे ही वसुंधरा विरोधी पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह की भी फिर से भाजपा में वापसी की अटकलें लगाई जाने लगी है।
वसुंधरा राजे के राजनीति में कमजोर होने से उनके समर्थक विधायकों को भी एहसास हो गया है कि अगले विधानसभा चुनाव में उनको शायद ही टिकट मिले। इसी के चलते वसुंधरा समर्थक कई नेता उनसे किनारा कर अपने नए आका ढूंढ़ने लगे हैं। यदि आने वाले समय में वसुंधरा समर्थकों द्वारा प्रदेश संगठन के सामानांतर चला रही गतिविधियों पर रोक नहीं लगायी गयी तो वसुंधरा राजे पर भी अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है। केन्द्रीय नेतृत्व वसुंधरा राजे की हर गतिविधि पर पूरी नजर बनाये हुये हैं। पार्टी में अपनी उपेक्षा से वसुंधरा राजे आगे क्या कदम उठाती हैं इस पर सबकी नजरें टिकी हुयी हैं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved