भोपाल। ग्राम पंचायतों में जनता द्वारा चुने गए पंच-सरपंच का कार्यकाल 2020 में पूरा हो चुका है। बीते डेढ़ से पंचायतों में समितियां गठित की गई हैं, जिनकी कमान निवर्तमान सरपंचों के ही हाथ, लेकिन अब यह सरपंच की बजाय पंचायत के प्रधान कहलाते हैं। सरपंच के नाम के साथ ग्राम पंचायतों में कामकाज के तौर-तरीके ऐसे बदले हैं, कि जॉबकार्ड धारी मजदूरों से मनरेगा योजना दूर हो गई है। मजदूरों की जगह जेसीबी, ट्रैक्टर-ट्रॉली आदि मशीनें काम कर रही हैं।
मनरेगा का नियम है, कि स्वीकृत बजट का 60 फीसदी हिस्सा मजदूरों पर खर्च हो और 40 फीसदी बजट से निर्माण सामग्री (पत्थर, सीमेंट, रेत, सरिया, गिट्टी आदि) खरीदी जाए। जब पंचायतों में पंच-सरपंच थे तब काफी हद तक ऐसा ही हो रहा था, लेकिन अब हकीकत यह है, कि जॉबकार्डधारी मजदूरों तक 60 तो क्या 30 फीसदी बजट नहीं पहुंच पा रहा। इसका कारण यह है कि ग्राम पंचायतों के प्रधान (सरपंच) को अब जनपद या जिला पंचायत का खास डर रहा नहीं। क्योंकि उनकी नियुक्ति कलेक्टर ने की है। पहले जिपं सीईओ धारा 40 में वसूली और धारा 92 के तहत पद से पृथक कर सकते थे, अब जिला पंचायत सीईओ को यह अधिकार नहीं रहे, संभवत: यही कारण है कि सरपंच बने प्रधान बने कईयों जनप्रतिनिधि पंचायत की बजाय खुद का विकास करने में जुटे हैं।
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