कबीर जयन्ती (24 जून) पर विशेष
गिरीश्वर मिश्र
आज जब सत्य और अस्तित्व के प्रश्न नित्य नए-नए विमर्शों में उलझते जा रहे हैं और जीवन की परिस्थितियाँ विषम होती जा रही हैं सत्य की पैमाइश और भी जरूरी हो गई है। यह इसलिए भी जरूरी है कि अब ‘सबके सच’ की जगह किसका सच और किसलिए सच के प्रश्न ज्यादा निर्णायक होते जा रहे हैं। इनके विचार सत्ता, शक्ति और वर्चस्व के सापेक्ष हो गए हैं। इनके बीच सत्य अब कई-कई पर्तों के बीच ज़िंदा (या दफ़न !) रहने लगा है और उस तक पहुँचना असंभव संभावना होती जा रही है। शायद अब के यथार्थप्रिय युग में सत्य होता नहीं है सिर्फ उसका विचार ही हमारी पहुँच के भीतर रहता है। सत्य की यह मुश्किल किसी न किसी रूप में पहले भी थी जब तुलनात्मक दृष्टि से सत्य-रचना पर उतान्र दबाव न थे जितने आज हैं। सत्य के लिए साहस की जरूरत के दौर में कबीर का स्मरण आश्वस्ति देने वाला है। आज से लगभग छह सौ साल पहले के जन कवि और संत कबीरदास समय के अंतर्विरोधों को महसूस करते हुए एक कठिन राह अपनाने का साहस दिखलाया था। क्योंकि दुनियादारी में व्यस्त सब लोग तो आगा-पीछा देखे बगैर बेखबर खाते-पीते मस्त रहते हैं पर चैतन्य की आहट पाने वाले कबीर के हिस्से जागना और दुखी होना ही आता है : सुखिया सब संसार है खाए और सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे।
अपने समय का पर्यालोचन करते हुए कबीर प्रश्न उठाते हैं। विवेक, प्रेम तथा आध्यात्म की त्रिवेणी बहाते हुए सारी सीमाओं को तोड़ते हुए सत्य की तलाश में अपने समय का अतिक्रमण करते हैं। भक्त, कवि और समाज-सुधारक की भूमिकाओं से निर्मित कबीर को पकड़ना और समझना मुश्किल चुनौती होती है। वे सगुण का निषेध करते हुए पर सहृदय सम्प्रेषणीयता के साथ मनुष्य की मुक्ति का आह्वान करते हैं। इसके लिए संवाद करने में वे लोक जीवन के बिम्बों का खूब उपयोग करते हैं- लुहार, धोबी, बधाई, कुम्हार, भिखारी आदि के जीवन के सन्दर्भ उनकी कविता में भरे पड़े हैं। धर्मों से परे और कुरीतियों के विरुद्ध और भाषा, जाति, शिक्षा आदि के भेदों को ढहाते, पाखंडों को अनावृत करते हुए वे जीवन-मूल्यों की कसौटी पर साधु मत को स्थापित करते हैं। जिसका आधार वाक्य (या सीधी शर्त) है ‘हरि को भजे सो हरि का होई।’
आडम्बरहीन और क्रांतिकारी दृष्टि वाले कबीर सबसे ग्रहण करने वाले विद्यार्थी भी हैं और गहन स्थापना करने वाले गुरु भी। वे हद और बेहद दोनों को पार करते चलते हैं। सांसारिक ढकोसलों की नि:सारता देख कबीर सहज की ओर आकृष्ट होते हैं : संतो सहज समाधि भली है। आजकल की भाषा में कहें तो वे गैर साम्प्रदायिक सहिष्णुता के पक्षधर हैं। यद्यपि कबीर के कई तरह के पाठ होते रहे हैं पर उनका एक प्रमुख सरोकार या ध्येय आध्यात्मिक लोक-जागरण लाना प्रतीत होता है, जिसमें उनका कवि एक भक्त के हृदय और एक तार्किक के दिमाग के साथ संवाद करता चलता है। उनकी सर्जनामकता अनेक स्तरों पर प्रचलित मतान्धता से टकराती चलती है। वे ज्ञान के तीव्र वेग से सभी भ्रमों को तोड़ने को तत्पर दिखते हैं : संतों आई ज्ञान की आंधी रे , भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रही न बांधी रे।
फक्कड़ कबीर स्वभाव में आंतरिक बदलाव को संभव तो मानते हैं पर नकली और ऊपर से सिर्फ दिखावटी बदलाव उनको तनिक भी पसंद नहीं। वे पूछताछ करते हैं, भेद लेते हैं और सफाई भी माँगते हैं। मृत्यु तय है, आसन्न है फिर झूठ-फरेब के आश्रय की क्या जरूरत है ? मन रे तन कागद का पुतरा, लागे बूंद बिनसि जाई छिन में गर्व करे क्या इतरा। वे बखूबी जानते हैं कि यह शरीर नश्वर है : साधो यह तन ठाठ तम्बूरे का। तभी वह कहते हैं कि ऐसे हाल में ऊपरी बदलाव किसी काम का नहीं : मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा दढिया बढाए जोगी बन गैले बकरा। वे बड़े निःसंग भाव से इस जगत को कागज़ की पुड़िया मानते हैं। कबीर में इस छल-प्रपंच वाले जगत से मुक्ति की इच्छा प्रबल है- ‘रहना नहीं देस बिराना है’ , ‘उड़ि जाएगा हंस अकेला’ , ‘अवधूता जनम जनम हम योगी’ या फिर ‘रेन गई मत दिन भी जाय’ -जैसे पद जीव की मुक्ति की छटपटाहट को ही दर्शाते हैं। उनको पता है कि ‘माया महा ठगिनी’ है और तरह-तरह से मुग्ध करती रहती है।
अंतर्यात्रा की तड़प के बीच कबीर को स्मरण है कि सृष्टि में मनुष्य जीवन से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। इसलिए विवेक-बुद्धि के बिना कुछ करने से जीवन में मिला अवसर व्यर्थ हो जायगा : मानुष तन पायो बड़ भाग अब बिचारि के खेलो फाग । इसलिए सतर्कता और सजगता के साथ जीना जरूरी है। मन ते जागत रहिए भाई !
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति हैं।)
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