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    बंजर होती भूमि को उपजाऊ बनाने की चुनौती

  • June 17, 2021
    डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
    प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2030 तक देश में दो करोड़ 60 लाख हैक्टर बंजर भूमि को उपजाऊ भूमि में परिवर्तित करने के संकल्प को दोहराते हुए दुनिया के देशों के सामने खेती योग्य भूमि के मरुस्थल में तेजी से बदलाव के संकट की गंभीरता को दर्शाया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखे पर आयोजित वर्चुअल संवाद में 14 वें सत्र में मुख्य भाषण देते हुए नरेन्द्र मोदी ने कहा कि बंजर होती भूमि के कारण दुनिया के सामने गंभीर संकट है। ध्यान रखना होगा कि यह संकट भूमि के बंजर होने तक ही सीमित नहीं हैं अपितु इससे जैव विविधता, जलवायु, खाद्यान्न संकट और सूखे की समस्या से जुड़ी हुई है। कोरोना महामारी ने दुनिया को एक सबक भी दे दिया है और वह यह कि सबकुछ थम सकता है पर खेती किसानी रही तो हालातों को काबू में किया जा सकता है। दुनिया के देशों में लंबे लाकडाउन के बावजूद खेती किसानी ही बड़ा राहत लेकर आई और दुनिया में कहीं भी खाद्यान्नों की कमी नहीं देखने को मिली। ऐसे में बंजर होती भूमि को बचाना और भी अधिक जरूरी हो गया है।
    दरअसल तेजी से बढ़ता मरुस्थलीकरण भारत सहित दुनिया के देशों के सामने बड़ी चुनौती लेकर उभरा है। हालात की गंभीरता को देखते हुए ही भारत दो साल से इसको होस्ट कर रहा है। पिछले एक दशक से दुनिया के देश इसके प्रति गंभीर हुए हैं और वैश्विक नीति बनाकर उसके क्रियान्वयन पर जोर दिया जा रहा है। भारत ने इस दिशा में तेजी से कदम बढ़ाए हैं और गंभीर प्रयासों का ही परिणाम है कि एक दशक में 30 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र विकसित किया है। भारत की गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है कि भारत ने 2 करोड़ 10 लाख हैक्टर बंजर भूमि के लक्ष्य को बढ़ा कर दो करोड़ 60 लाख हैक्टर कर लिया है। 2030 तक इसे हासिल करने की प्रतिबद्धता दर्शाई है। इससे कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी।
    भारत के संदर्भ में यह सब इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि सेंटर फॉर साइंस एण्ड एन्वायरमेंट की रिपोर्ट के अनुसार भारत में उपजाऊ भूमि निरंतर कम होती जा रही है, वहीं बंजर भूमि का दायरा बढ़ता जा रहा है। इससे पहले 2017 में वार्षिक रिपोर्ट में 32 फीसदी भूमि के बंजर होने की चेतावनी आ चुकी है। दरअसल समूची दुनिया में खेती योग्य उपजाऊ भूमि का दायरा कम होता जा रहा है। दुनिया के देशों में सामने भुखमरी से निजात दिलाने की बड़ी चुनौती है। हालिया रिपोर्टों में दुनिया के देशों में भुखमरी और कुपोषण के आंकड़े बढ़ने के समाचार हैं। वहीं यह अवश्य संतोष की बात है कि देश में सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों से कुपोषण में कमी आई है। पर कोरोना महामारी के कारण अब कुपोषण में कमी की समस्या सामने खड़ी हो गई है। देश में किसान और खेती को प्रोत्साहित करने के उपाय किए जा रहे हैं। रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से होने वाले नुकसान से जनजागृति लाई जा रही है, वहीं अभियान चलाकर किसानों को जैविक खेती अपनाने को प्रेरित किया जा रहा है। अब तो जीरो बजट खेती की बात की जाने लगी है।
    किसानों को खेती के साथ ही पशुपालन अपनाने को प्रेरित किया जा रहा है पर जो रिपोर्ट आई है वह निश्चित रुप से चिंतनीय है। रिपोर्ट के अनुसार देश में 32 प्रतिशत भूमि बंजर होने की कगार पर है। देश के 26 राज्यों में भूमि के बंजर होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। राज्यों में 2007 से 2017 के दौरान भूमि के बंजर होने के जो संकेत मिले हैं और जो इजाफा हो रहा है वह गंभीर संकट की और इशारा करता है। भूमि की बंजरता के प्रमुख कारण प्रर्यावरणीय है। पर्यावरणीय प्रदूषण के परिणाम सामने आने लगे हैं। स्थिति की गंभीरता को इसी से मसझा जा सकता है कि दुनिया के देशों के सम्मेलन में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2.6 करोड़ हैक्टयर भूमि को उपजाऊ बनाने का लक्ष्य रखा है।
    दरअसल यह लक्ष्य बढ़ाया गया है। इससे पहले यह लक्ष्य कम था। देखा जाए तो भूमि के अनउपजाऊ होने के कई कारणों में से एक कारण अधिक पैदावार के चक्कर में रसायनों के अत्यधिक प्रयोग के लिए किसानों को प्रेरित करने को जाता है। आज पंजाब जो सबसे अधिक उत्पादन देने वाला प्रदेश रहा है, वहां के खाद्यान्न को उपयोग में लेने से डर लगने लगा है। वहीं बिना किसी भावी योजना के अंधाधुध शहरीकरण से खेती की जमीन कम होती जा रही है। परिवारों के बंटवारे के चलते जोत कम होती जा रही हैं। बारहमासी नदियां व पानी के स्रोत अब बीते जमाने की बात हो गए हैं। देश के 86 जलनिकायों के गंभीर रूप से प्रदूषित बताया जा रहा है। कर्नाटक, तेलगांना और केरल की स्थिति भी गंभीर मानी जा रही है। अतिवृष्टि व अनावृष्टि के चलते भूमि बंजर होने लगी है।
    दुनिया के देशों में मरुस्थल का विस्तार होता जा रहा है। शहरीकरण, रसायनों के उपयोग से भूमि के लाभकारी तत्वों और लाभकारी वनस्पतियों के विलुप्त होने, परंपरागत लाभकारी पेड़ों को काटने के कारण समस्या उभरने लगी है। एक ओर अत्यधिक बारिश से भूमि में कटाव, दूसरी तरफ धूलभरी आंधी तूफानों से मरुस्थल का विस्तार, भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन, प्लास्टिक, पेट्रोकेमिकल के अत्यधिक उपयोग व इसी तरह के अन्य कारणों से भूमि बंजर होती जा रही है। जैव विविधता नष्ट हो रही है। यह तो तब है जब आंकड़े यह कहते हैं कि देश में जंगलों का विस्तार हुआ है। इसके साथ ही पानी का खारापन बढ़ने, वातावरण में हवा-पानी ही नहीं सभी तरह से फैल रहा प्रदूषण आज भूमि के उर्वरता को प्रभावित कर रहा है।
    दरअसल सरकार को एक साथ कई मोर्चों पर जुटने की जरूरत हो गई है। अधिक उत्पादन के लिए रसायनों का जरूरत से ज्यादा उपयोग, शहरीकरण के नाम पर गांवों के अस्तित्व को मिटाने, पेड़-पौधों व वनस्पतियों को बिना सोचे समझे नष्ट करने, अत्यधिक भूमिगत जल दोहन करने का परिणाम सामने है। शहरीकरण के चक्कर में पानी के बहाव व जमाव क्षेत्र की अनदेखी करने से भूगर्भीय पानी का संकट सामने है। वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम किस तरह के बने हैं वह जगजाहिर है। यदि सिस्टम सही होते तो मामूली बरसात में ही पानी भरने और शहरों के थम जाने की स्थितियां नहीं आती और भूजल का स्तर निश्चित रूप से एक स्तर पर तो रह ही जाता। ऐसे में अब बंजर होती भूमि को उपजाऊ बनाने और भावी प्रभावों को देखते हुए कार्ययोजना बनाने की आवश्यकता है नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब गंभीर खाद्यान्न संकट के साथ ही अन्य संकटों से रूबरू होना पड़ेगा।
    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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