मुबंई। कोविड-19 महामारी (Covid-19 Pandemic) के दूसरे दौर में वैक्सीन (Vaccine) पर बहुत जोर दिया जा रहा है। कई वैक्सीन के दो डोज (Two Doses of Vaccine) की जरूरत है तो वहीं कोविशील्ड वैक्सीन के डोज के बीच की समयावधि को बढ़ाने की भी बात हो रही है। इसके कारण को समझने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि वैक्सीन बनती कैसे और उसकी पूरी प्रकिया क्या है।
डोज में बदलाव क्यों : पहले तो हम यह समझें कि वैक्सीन को विकसित होने और उसके प्रभाव को पूरी तरह से समझने में खाफी समय लगता है। कोविड-वैक्सीन की बात करें तो वैसे तो बहुत सी वैक्सीन के ट्रायल पूरे भी हो चुके हैं। लेकिन इनके असर पर अब भी पूरी निगरानी रखी जा रही है और ये आंकड़े वैक्सीन के काम करने या उपयोग लाने को तरीके को प्रभावित करें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। ऐसा ही कोविशील्ड के दो डोज की समयावधि के साथ भी हो रहा है।
वैक्सीन अहम क्यों : वैक्सीन ऐसे विशेष किस्म की दवा होती है जो किसी खास बीमारी के प्रति इम्यूनिटी को मजबूती देती है। यह इंसान की प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय करती है। इसलिए वैक्सीन कोविड-19 जैसे संक्रमण के खिलाफ अहम मानी जा रही है। भारत सहित दुनिया में इन्हें तेजी से विकसित करने का प्रयास किया जा रहा है। फिलहाल उपलब्ध वैक्सीन के अलावा भी कई वैक्सीन पर ट्रायल चल रहे हैं। इनमें डीएनए और आरएनए वैक्सीन तेजी से बनती है और वे आगे चल भी रही हैं।
वैक्सीन के विकास के चरण : वैक्सीन का विकास कई चरणों से होकर गुजरता है जिसमें सबसे अहम दौर होता है उसके ट्रायल के जरिए धीरे धीरे उसके व्यापक असर के बारे में पता चलता है जिससे उसे सभी के लिए सुरक्षित वैक्सीन मानने में मदद मिलती है और अंत में उसे एक कारगर वैक्सीन घोषित किया जाता है। इसमें सबसे पहले प्रीक्लीनिकल ट्रायल दौर में उसे केवल लैब में विकसित किया जाता है इसके बाद चरणबद्ध तरीके से उसे लोगों पर प्रयोग किया जाता है जिन्हें ट्रायल्स कहते हैं।
ट्रायल के चरणबद्ध नतीजे : ट्रायल के पहले चरणों में 8 से 10 लोगों, दूसरे में 50 से 100 लोगों, तीसरे में 30 से 50 हजार लोगों पर ट्रायल किए जाते हैं और उसके नतीजों की सफलता देखने के बाद ही वैक्सीन को आगे के चरणों में आजमाया जाता है। चौथे चरण के बाद ही वैक्सीन को लाइसेस देकर और औपचारिक तौर पर वैक्सीन घोषित किया जाता है। बहुत सी वैक्सीन के लिए डेढ़ साल का समय बहुत कम होता है। अभी कोविड-19 की पहचान हुए केवल डेढ़ साल ही हुआ है।
अलग अलग अंतर : जहां भारत सरकार ने कोविशील्ड वैक्सीन के डोज के बीच का समय 6-8 हफ्ते से 12 हफ्ते कर दिया है वहीं ब्रिटेन ने इसे 12 हफ्ते से 8 हफ्ते कर दिया है। इसके पीछे दलील दी गई है कि ऐसे कोविड-19 के नए ‘भारतीय’ वेरिएंट को देखते हुए किया गया है। डोज के बीच के अंतर तय करने के लिए सरकार और विशेषज्ञ उन आकड़ों पर निर्भर होते हैं जो बताते हैं कि वैक्सीन का दूसरा डोज कब लगाना ज्यादा कारगर होगा।
दूसरा डोज थोड़ी देर से भी कारगर : संयोग है कि अंतर की समयावधि को लेकर अध्ययन चल रहा है। यूके के ही तीन आंकड़े समूहों से पता चला है कि वैक्सीन 65-88 प्रतिशत ज्यादा कारगर रही जब अंतर तीन महीन या उससे ज्यादा का रहा। वहीं कुछ अध्ययन से यह भी पता चला है कि अंतर बढ़ाने से कुछ ज्यादा अंतर पड़ नहीं रहा है। जबकि वे ये तय करने की स्थिति में नहीं थे कि यह अंतर अधिकतम कितना होना चाहिए।
दरअसर दो डोजों के बीच का अंतर तय करना एक लंबे समय की पड़ताल का हिस्सा है। वैक्सीन विकसित करने वालों पर पहले ही बहुत दबाव है। अब नए ‘भारतीय’ वेरिएंट ने भी दबाव बढ़ाया है। 6-8 हफ्ते या 12 हफ्ते का अंतर में से कौन सा ज्यादा कारगर होगा यह भले ही अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन दोनों ही मामलों में कारगरता अच्छी है। ऐसे में भारत के लिए 12 हफ्तों को समय ज्यादा सही है क्योंकि वहां पहला डोज लगने वालों पर बहुत ज्यादा संख्या है जिसकी ज्यादा जरूरत है।
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