देवेन्द्रराज सुथार
अहिंसा परमो धर्म: अर्थात अहिंसा सब धर्मों में सर्वोपरि है। सत्य और अहिंसा की जब भी बात होती है तो हमारे जहन में सबसे पहले महात्मा गांधी का नाम आता है लेकिन महात्मा गांधी से भी पहले एक ऐसी महान आत्मा ने इस जगत का अपने संदेशों के जरिये मार्गदर्शन किया था। जिन्होंने सबसे पहले अहिंसा का मार्ग अपनाने के लिये लोगों को प्रेरित किया। जिन्होंने लोगों को जियो और जीने दो का मूल मंत्र दिया। ये महान आत्मा कोई और नहीं बल्कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर (जिन्हें जैन धर्मावलंबी भगवान का दर्जा देते हैं) भगवान महावीर थे।
हर साल देश दुनिया में चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को भगवान महावीर के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। भगवान महावीर सत्य, अहिंसा और त्याग की जीती जागती मूर्ति थे। देखा जाये तो उनका पूरा जीवन मानवता की रक्षा हेतु अनुकरणीय लगता है। 599 ईसवीं पूर्व बिहार में लिच्छिवी वंश के महाराज सिद्धार्थ के घर इस महापुरुष ने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को जन्म लिया, इसी कारण इस दिन को महावीर जयंती के रूप में दुनिया भर में मनाया जाता है। इनकी माता का नाम त्रिशिला देवी था। उनके बचपन का नाम महावीर नहीं बल्कि वर्धमान रखा गया था। माना जाता है कि जब महाराज सिद्धार्थ ने ज्योतिषाचार्यों को उनकी कुंडली दिखाई तो उसके अनुसार चक्रवर्ती राजा बनने की घोषणा की गई थी। इसके लक्षण जन्म से उनके तत्कालीन राज्य कुंडलपुर का वैभव दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई। वे राज परिवार में पैदा हुए थे तो समझा जा सकता है कि धन-दौलत और ऐशो आराम के सारे साधन उन्हें सुलभ थे लेकिन उन्होंने त्याग का रास्ता चुना और जगत में मानवता का संदेश दिया। युवावस्था में पहुंचते ही उन्होंने ठाठ-बाट का अपना राजसी जीवन त्याग कर अपने जीवन का यथार्थ खोजने और दुनिया को मानवता का संदेश देने नंगे पैर निकल पड़े।
जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि वर्धमान ने कठोर तप कर अपनी इंद्रियों को जीत लिया, जिससे उन्हें जिन (विजेता) कहा गया। उनका यह तप किसी पराक्रम से कम नहीं माना जाता, इसी कारण उन्हें महावीर कहा गया और उनके मार्ग पर चलने वाले जैन कहलाये। जैन का तात्पर्य ही है जिन के अनुयायी। जैन धर्म का अर्थ है – जिन द्वारा परिवर्तित धर्म। भगवान महावीर 24वें तीर्थंकर हैं और वर्धमान के रूप में जन्म लेने के उनके ऐतिहासिक तथ्य भी मौजूद हैं। यह भी सही है कि उन्होंनें त्याग का मार्ग चुना और सुख-सुविधाओं का जीवन त्याग दिया। लेकिन उनके जीवन के साथ कुछ अलौकिक घटनाएं भी जोड़ी जाती हैं।
एक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि जब वे बालक थे तो सुमेरू पर्वत पर इंद्र देवता उनका जलाभिषेक कर रहे थे। लेकिन वे घबरा गये कि कहीं बालक बह न जाये इसलिये उन्होंने जलाभिषेक रुकवा दिया। कहा जाता है कि भगवान महावीर ने इंद्र के मन के भय को भांप लिया और अंगूठे से पर्वत को दबाया तो पर्वत कांपने लगा। यह सब देखकर देवराज इंद्र ने जलाभिषेक तो किया ही साथ में उन्हें वीर के नाम से भी संबोधित किया। बाल्यकाल के ही एक और चमत्कार को बताया जाता है कि एकबार वे महल के आंगन में खेल रहे थे तो संजय और विजय नामक मुनि सत्य और असत्य का भेद नहीं समझ पा रहे थे। इसी रहस्य को जानने के लिये दोनों आसमान में उड़ते हुए जा रहे थे कि उनकी नजर दिव्य शक्तियों से युक्त महल के आंगन में खेल रहे बालक पर पड़ी। उन्होंने जैसे ही बालक के दर्शन किये उनकी तमाम शंकाओं का समाधान हुआ। दोनों मुनियों ने उन्हें सन्मति नाम से पुकारा।
एक और वाकया अक्सर उनके पराक्रम की गाथा कहता है। बात है उनकी किशोरावस्था की, बताया जाता है कि एक बार वे अपने कुछ साथियों के साथ खेल रहे थे एक बड़ा ही भयानक फनधारी सांप वहां दिखाई दिया, उस मौत को अपने सिर पर खड़ा देखकर सभी भय से कांपने लगे, जिन्हें मौका मिला वे भाग खड़े हुए लेकिन वर्धमान महावीर अपनी जगह से एक इंच नहीं हिले, न ही उनके मन में किसी तरह को कोई भय था। जैसे ही सांप उनकी तरफ बढ़ा तो वे तुरंत उछल कर सांप के फन पर जा बैठे। उनके भार से सांप को अपनी जान के लाले पड़ गये तभी एक चमत्कार हुआ और सांप ने सुंदर देव का रूप धारण कर लिया और माफी मांगते हुए कहा कि प्रभु मैं आपके पराक्रम को सुनकर ही आपकी परीक्षा लेने पहुंचा था मुझे माफ करें। आप वीर नहीं बल्कि वीरों के वीर अतिवीर हैं। इन्हीं कारणों से माना जाता है कि वर्धमान महावीर के वीर, सन्मति, अतिवीर आदि नाम भी लिये जाते हैं।
वैसे तो उनका पूरा जीवन ही एक संदेश है, अनुकरणीय है लेकिन उन्होंने जो मूल मंत्र दिया वह अहिंसा परमो धर्म का है, जियो और जीने दो का है। उन्होंने कहा कि हमें किसी भी रूप में किसी भी स्थिति में कभी भी हिंसा का मार्ग नहीं अपनाना चाहिये। जब वे अहिंसा की बात करते हैं तो यह सिर्फ मनुष्यों तक सीमित नहीं बल्कि समस्त प्राणियों के बारे में हैं। जब अहिंसा की बात करते हैं तो यह सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं वरन् मन, वचन और कर्म किसी भी रूप में की जाने वाली हिंसा की मनाही है। इसी प्रकार उन्होंने सत्य का पालन करने की भी बात कही। उन्होंने कहा कि मनुष्य को मन, वचन और कर्म से शुद्ध होना चाहिये। ब्रह्मचर्य का पालन करने का भी उन्होंने संदेश दिया। साथ ही उन्होंने अपने जीवनकाल में भ्रमण करने पर भी जोर दिया, उनका मानना था कि इससे ज्ञानार्जन होता है और भ्रमण ज्ञानार्जन का एक बेहतरीन जरिया है। अपने मन, वचन अथवा कर्म किसी भी रूप में चोरी करने को भी उन्होंने महापाप करार दिया है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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