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    पश्चिम बंगाल में किसकी जीत ?

  • April 09, 2021

    – रंजना मिश्रा

    2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कई बड़े चेहरे अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इस चुनाव में जिन विधानसभा सीटों पर सबकी नजरें रहेंगी, उनमें नंदीग्राम सीट सबसे प्रमुख है, जहां ममता बनर्जी और शुभेंदु अधिकारी के बीच कांटे की टक्कर है। साथ ही जिन सीटों से बीजेपी के पांच सांसद लड़ रहे हैं, उन सीटों पर भी सबकी नजरें होंगी। इनमें टालीगंज, चुंचुड़ा, दिनहाटा, तारकेश्वर, शांतिपुर विधानसभा सीटें शामिल हैं। इसके अलावा कृष्णानगर उत्तर सीट, जहां से पूर्व केंद्रीय मंत्री मुकुल रॉय चुनाव लड़ रहे हैं व जमुरिया सीट, जहां से आईसी घोष चुनाव लड़ रही हैं, भी प्रमुख हैं।

    स्वतंत्रता के बाद से यदि पश्चिम बंगाल का चुनावी इतिहास देखा जाए तो यह देश के बाकी हिस्सों से अलग रहा है। एक ओर जहां अन्य राज्य चाहे वह पंजाब हो या उत्तर प्रदेश या कर्नाटक, सभी जगह जातिगत राजनीति प्रमुख रूप से देखी जाती थी, किंतु पश्चिम बंगाल में राजनीति कास्ट यानी जाति की बजाय क्लास यानी वर्ग पर आधारित होती थी। समय के साथ पश्चिम बंगाल की राजनीति क्लास की जगह कास्ट की तरफ शिफ्ट हो गई है।

    जब पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था, तब भी समाज अमीर-गरीब में बंटा हुआ था। वहीं ममता बनर्जी का राजनीति में उत्थान नंदीग्राम के अमीरी-गरीबी के आंदोलन की नींव पर ही हुआ। जब बीजेपी ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में कदम रखा और चुनाव के लिए काम करना शुरू किया तो उसने सबसे पहले समाज में उपेक्षा झेल रहे उस वर्ग को मजबूत किया, जो पिछड़ा और शोषित था। उनका भरोसा जीतना शुरू किया। बीजेपी ने सबसे पहले पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार द्वारा लगातार नजरअंदाज हुए ओबीसी तथा अन्य पिछड़े दलों को मुख्यधारा से जोड़ना शुरू किया। बीजेपी की इसी नीति के चलते, पहले 2018 के पंचायत चुनाव और फिर 2019 के आम चुनाव में, कभी टीएमसी के वोट बैंक रहे एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय का भारी समर्थन प्राप्त हुआ। इसी कारण बीजेपी ने टीएमसी के कुछ गढ़ों में भी सेंध लगाई है। इन वोटों के दम पर ही बीजेपी ने जंगलमहल, उत्तर 24 परगना और नादिया जिलों में टीएमसी को हराने में सफलता पाई थी। अब टीएमसी भी अपने घोषणापत्र में अन्य पिछड़ी जातियों के रूप में महिष्य, तामुल, साह और तेली के लिए आरक्षण शामिल करने का निर्णय कर उन्हें लुभाने की भरपूर कोशिश कर रही है।

    अभीतक ममता बनर्जी तुष्टीकरण की राजनीति करती रही हैं, उन्होंने मुसलमानों को अपने पक्ष में रखने के लिए महिष्यों को नजरअंदाज किया है। वर्ष 2012 में ममता बनर्जी की सरकार ने पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग विधेयक पारित किया था, जिसमें ओबीसी आरक्षण में, सिद्दीकी और सईद को छोड़कर, सभी मुस्लिम समुदायों को सूची में ओबीसी ए या ओबीसी बी के रूप में शामिल किया गया था। इससे उन्हें नौकरी मिलनी शुरू हो गई और हिंदू पिछड़ा वर्ग गरीब का गरीब ही रह गया। बीजेपी ने महिष्य समाज की ओबीसी स्टेटस की वर्षों पुरानी मांग को अपने मेनिफेस्टो में शामिल किया है। महिष्य दक्षिण पूर्व और पश्चिमी मिदनापुर, हावड़ा, हुगली, दक्षिण 24 परगना और पूर्व और पश्चिम बर्धमान सहित दक्षिण बंगाल के कई जिलों में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण जातिगत समुदाय है। नंदीग्राम के महत्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र में भी यह प्रमुख जाति है।

    राज्य में करीब 62 ओबीसी समुदाय हैं। उत्तर बंगाल के राज्यबोंग्सी अपनी अलग पहचान के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं और इसके सबसे अहम नेताओं में से एक ‘अनंत राजमहाराज’ अब बीजेपी के साथ हैं। ममता बनर्जी की तुष्टीकरण का खामियाजा इन पिछड़ी जातियों को भुगतना पड़ा है, इनके पास न तो आरक्षण था और ना ही राज्य सरकार का समर्थन। इससे पश्चिम बंगाल में न तो इन लोगों को नौकरी के अवसर मिले और ना ही इनका विकास हो पाया।

    बीजेपी के चुनाव में प्रमुख प्रतिद्वंदी बन जाने के बाद से हिंदुत्व कार्ड, ध्रुवीकरण और तुष्टीकरण के मुद्दे लोगों की जुबान पर हैं। एक ओर जहां ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ देश में महंगाई, गैस के बढ़े दाम और पेट्रोल, डीजल के बढ़े दामों को मुद्दा बना रही हैं तो दूसरी ओर बीजेपी व अन्य विपक्षी पार्टियां ममता सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का मुद्दा प्रमुखता से उठा रही हैं। बीजेपी के नेता ‘तोलाबाज भाइपो’ शब्द का इस्तेमाल कर ममता बनर्जी और उनके भतीजे पर हमला बोल रहे हैं और गलत तरीके से धन जमा करने का आरोप लगा रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि इस चुनाव में एनआरसी-सीएए वैसा मुद्दा नहीं बना है, जैसी उम्मीद की जा रही थी। बीजेपी ने भी इस मुद्दे को चुनाव में नहीं उठाया है।

    ममता दीदी के ‘खेला होबे’ नारे का जवाब प्रधानमंत्री मोदी ने ‘विकास होबे’ का नारा लगाकर दिया है। करीब 3 महीने पहले पश्चिम बंगाल विकास और परिवर्तन के नारों से गूंज रहा था, लेकिन पहले चरण की वोटिंग तक आते-आते नेताओं की जुबान निजी और तीखी टिप्पणियों से तेज हो गई है। सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, बंगाल चुनाव के सिंहनाद से ठीक पहले एक-दूसरे पर इतने वार हुए हैं कि मर्यादाएं तार-तार हो गई हैं। जनता के बीच नेताओं के इन जुबानी वार-पलटवार का कितना असर होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। हां यह जरूर है कि बीजेपी इसबार मजबूती से ममता दीदी की सियासी जमीन छीनने के लिए मैदान में ताल ठोंक रही है।

    (लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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