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    ब्रेन ट्रैपर वामपंथ कितनी हकीकत – कितना फसाना

    April 02, 2021

    – सुरेन्द्र कुमार किशोरी

    वेद और बुद्ध के दर्शन में निहित साम्यवादी विचारों को उल्लेखित करने से पहले दो चीजों को समझ लेना आवश्यक है, एक साम्यवाद क्या है? दूसरा साम्यवाद के परिपेक्ष्य में मार्क्सवादी दर्शन क्या है? साम्यवाद मूल रूप से एक स्वतंत्र समाज का विचार है, जिसमें कोई विभाजन नहीं होता है। जहां मानव जाति उत्पीड़न और अपर्याप्त से मुक्त है, साम्यवाद में किसी सरकार या देश की आवश्यकता नहीं है। यह एक ऐसी दुनिया है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकता की वस्तुओं को अपनी क्षमता अनुसार देता है और उनकी आवश्यकता अनुसार प्राप्त करता है। अगर इन्हीं शब्दों को आसान रूप में कहें तो साम्यवाद एक वैसी व्यवस्था है जिसमें समाज सभी प्रकार के शोषण से मुक्त, उत्पीड़न से मुक्त, वर्ण या जाति के भेद से मुक्त होने के साथ-साथ आर्थिक विषमता से भी मुक्त होता है। अर्थात साम्यवादी कल्पना के अनुसार समाज में ना कोई शोषक होगा ना शोषित।

    मार्क्सवाद क्रांतिकारी समाजवाद या साम्यवाद का एक रूप है जो आर्थिक और राजनीतिक समानता में विश्वास रखता है।मार्क्सवाद पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक सतत चलेवाली प्रतिक्रिया है जो पूंजीवादी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के साथ सर्वहारा वर्ग के सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए हिंसात्मक क्रांति को अनिवार्य बतलाता है। कम शब्दों में कहें तो मार्क्सवाद एक वर्ग विहीन, संघर्ष विहीन और शोषण विहीन राज्य के स्थापना के लिए एक मजबूत नींव का कार्य करता है। मार्क्स ने भी अपने सिद्धांतों के सापेक्ष पूरे विश्व को एक राष्ट्र माना। एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष मार्क्स के सिद्धांतों का यह है कि मार्क्स ने ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हुए धार्मिक अंधविश्वास और रूढ़िवादिता को अफीम की गोली के समान माना लेकिन इन तथ्यों को कम्युनिस्टों ने अपने सुविधा के अनुसार परिमार्जित करते हुए धर्म को अफीम की गोली के रूप में प्रचारित किया। ताकि विश्व पटल पर मार्क्सवादी दर्शन को सर्वथा नवीन जनकल्याणकारी और मानववादी सिद्धांत के रूप में पूंजीवादी व्यवस्था जनित विसंगतियों के विरुद्ध, सम्यक समाज के निर्माण के लिए एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।

    समसामयिक मुद्दों को लेकर लगातार लिखने पढ़ने वाले डॉ. अभिषेक कुमार के अनुसार बौद्ध दर्शन की बात करें तो बौद्ध दर्शन तीन मूल सिद्धांत पर आधारित माना गया है, जो हमें पूरी तरह से यथार्थ में जीने की शिक्षा देता है। अनीश्वरवाद – बुद्ध ईश्वर की सत्ता नहीं मानते, क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम पर चलती है। प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कारण-कार्य की श्रृंखला। बुद्ध के अनुसार इस शून्य या अंतहीन ब्रह्मांड की उत्पत्ति और गतिशीलता ईश्वर जैसी किसी अदृश्य और अलौलिक शक्ति के कारण नहीं है। बल्कि यह पदार्थों के मध्य होने वाली भौतिक क्रिया एवं प्रतिक्रिया का परिणाम है।अनात्मवाद – अनात्मवाद का यह मतलब नहीं कि सच में ही ‘आत्मा’ जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो वास्तव में चेतना या ऊर्जा का अविच्छिन्न प्रवाह है। यह प्रवाह कभी भी बिखरकर जड़ से बद्ध हो सकता है और कभी भी अंधकार में लीन हो सकता है। स्वंय के अस्तित्व को जाने बगैर आत्मवान नहीं हुआ जा सकता, निर्वाण की अवस्था में ही स्वयं को जाना जा सकता है। मरने के बाद आत्मा महा सुसुप्ति में खो जाती है। वह अनंतकाल तक अंधकार में पड़ी रह सकती है या तत्क्षण ही संसार के चक्र में फिर से शामिल हो सकती है। इस प्रकार से अनात्मवाद को हम ऊर्जा और उसके चक्रीय प्रवाह के भौतिक सिद्धांत के रूप में समझ सकते हैं।

    क्षणिकवाद – ब्रह्मांड में सब कुछ क्षणिक और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं। सब कुछ परिवर्तनशील है।
    बौद्ध दर्शन के उपर्युक्त तीनों सिद्धांतों के ही आधार पर बुद्ध ने समाज से ऊंच-नीच का भेदभाव मिटाने, सबसे प्रेम पूर्वक व्यवहार कर सम्यक समाज की आधारशिला रखी। इससे स्पष्ट है कि मार्क्स का साम्यवादी सिद्धांत बुद्ध के दर्शन के बहुत करीब है। बुद्ध ने साम्यवादी समाज की स्थापना के लिए जो मार्ग बताया उसमें और मार्क्स के साम्यवादी सिद्धांत में थोड़ा अंतर है। बुद्ध ने दर्शन के अनुसार साम्यवाद की प्राप्ति का मार्ग अहिंसा, पंचशील और आर्य अस्टाँग से होकर जाता है। जबकि मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार साम्यवाद की प्राप्ति का मार्ग हिंसात्मक क्रांति से परहेज नहीं करता। ऋग्वेद कहता है ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्, देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते’ अर्थात सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें, हमारे मन एक हों। प्राचीन समय में देवताओं (हमारे पूर्वजों) का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं। इस श्लोक से हमें समाज के सभी वर्ग के लोगों को बिना किसी भेदभाव के एक साथ लेकर, एक मत होकर चलने की सीख मिलती है। साथ ही यह श्लोक इस तथ्य को भी प्रमाणित करता है कि पूर्व वैदिक युग में हमारे पूर्वज जिन्हें हम आज देवता कहकर संबोधित करते हैं इस प्रकार के सम्यक समाज मे विश्वास रखते थे।

    ‘समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्, समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि’ अर्थात मिलकर कार्य करने वालों का मन्त्र समान होता है। ये परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहुँचते हैं, चित्त सहित इनका मन समान होता है। मैं तुम्हें मिलकर समान निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रेरणा या परामर्शदेता हूं, तुम्हें समान भोज्य प्रदान करता हूं। इस श्लोक में कहीं भी जाति का उल्लेख नहीं है, क्योंकि हमारे मूल ग्रंथों में कहीं भी जाति के आधार पर भेदभाव का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। यहां मन में एक सवाल उठता है कि क्या उस समय वर्ण व्यवस्था नहीं थी ? उस समय वर्ण व्यवस्था को मानने वाला वर्ग समाज में था। लेकिन यह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, जन्म के आधार पर नहीं थी, गुणों के आधार पर थी। ‘समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः, समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति’ अर्थात सभी का हृदय और संकल्प अविरोधी हो। सभी के मन मे एक दूसरे के प्रति स्नेह और प्रेम भरे जिससे सुख – संपदा में निरंतर वृद्धि हो। यह श्लोक हमें सहनशीलता और अहिंसा का पाठ पढ़ाती है और ये साबित करती है कि जब समाज सहनशील और अहिंसक हो तभी हो निरंतर विकासशील होती है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्’ अर्थात सबका भला हो, सब सुखी रहे, सब निरोग रहे, कोई भी दुखी नहीं हो, सब भद्रभाव दिखे, सबके दुख दूर हो, सबका कल्याण हो। यह श्लोक हमारे वेद में लिखित अखिल विश्व के मानव कल्याण की कामना है।

    उपरोक्त श्लोकों के अलावा वेद में वर्णित दो शब्दों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है- चरैवेति चरैवेति – चरैवेति चरैवेति का अर्थ है आगे बढ़ो और आगे बढ़ो, क्योंकि केवल वे ही जीवन में सफल होते हैं जो जागृत होकर आगे बढ़ते हैं। मानव जीवन सफल होना ही चाहिए और उस सफलता का मार्ग है सही दिशा में निरन्तर आगे बढ़ते जाना। यह शब्द हमें सतत क्रियाशील रहने का ज्ञान देता है। वसुधैव कुटुम्बकम – यह शब्द अपने अंदर असीमित अर्थों को छुपाए हुए है, जिसका अर्थ है सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानना। मार्क्स ने इसी शब्द के बुनियाद पर पूरे विश्व को एक राष्ट्र होने की कल्पना किया था। उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि चाहे वो बुद्ध के सम्यक समाज का विचार हो अथवा मार्क्स का साम्यवादी सिद्धान्त दोनों का उद्गम स्थल वेद ही है। मार्क्स का साम्यवाद कोई नवीन और अलौकिक सिद्धांत नहीं। लेकिन वामपंथी इसपर यकीन कैसे करें, उनकी नजर में तो वेद और हिन्दू धर्म रूढ़ियों का खजाना है।

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