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    शहीद दिवस : अमर बलिदान की गाथा भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु

  • March 23, 2021

    – निखिलेश महेश्‍वरी

    आज का दिन देशभर में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। तीनों क्रांतिकारियों के बलिदान को याद करते हुए अनेक लोग सोशल मीडिया पर इन क्रांतिकारियों से जुड़े किस्से, इनके वक्तव्य एवं शायरियों को शेयर कर रहे हैं। आज जरूरत इस बात की अधिक है कि ऐसे उज्ज्वल चरित्र के बारे में युवाओं को अधिक से अधिक बताया जाए। वस्‍तुत: छोटे से जीवन ने स्वतंत्रता की जो मशाल इन्‍होंने जलाई वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है।

    पहला दृश्य- 23 मार्च 1931 अपना देश अंग्रेजों के अधीन था। लाहौर जेल के बाहर हजारों की संख्या में भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के शरीर को लेने के लिए लोग एकत्रित हुए थे।

    दूसरा दृश्य- जेल के पीछे दीवार तोड़कर उन तीनों के शरीर के टुकडे़ कर सतलुज नदी फिरोजपुर, पंजाब के हुसैनवाला में जल्दबाजी में दाह-संस्कार किया जा रहा था। लोगों की भीड़ को देखकर अधजली लाश छोड़कर सिपाही भाग गये। उन युवकों को इस प्रकार की मौत और अंग्रेज जिनसे इतना खौफ खा रहे थे वह युवक कौन थे जो हजारों लाखों युवाओं की प्रेरणा के केन्द्र बने यह लोगों को पता नहीं। लेकिन शायद यह सब भगत सिंह जानते थे तभी उन्होंने कहा था-

    लिख रहा हूँ मैं अंजाम जिसका कल आगाज आएगा।
    मेरे लहू का हर एक कतरा इंकलाब लाएगा।
    मैं रहूँ या न रहूँ पर यह वादा है मेरा
    मेरे बाद वतन पे मरने वालों का सैलाब आएगा।

    आज की पीढ़ी को उनके विषय में जितनी जानकारी होनी चाहिए उतनी शायद नहीं है इसलिए अनेक भ्रम हैं।

    जाने कितने झूले थे फाँसी पर
    कितनों ने गोली खाई थी
    क्यों झूठ बोलते हो साहब
    कि चरखे से आजादी आई थी।

    उन तीन अमर बलिदानी वीरों में प्रथम थे। सुखदेव थापर जिनका जन्म 15 मई 1907 को हुआ, अंग्रेजी शासन के अत्याचार के विरुद्ध एवं देश की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने वाले प्रमुख क्रान्तिकारी थे। इन्होंने ही लाला लाजपत राय जी से मिलकर चंद्रशेखर आजाद जी से मिलने की इच्छा जाहिर कि थी। सुखदेव, भगत सिंह की तरह बचपन से ही आजादी का सपना देखते थे। ये दोनों बहुत अच्छे मित्र लाहौर नेशनल कॉलेज के साथी थे और युवाओं में देशभक्ति की भावना भर देश को स्वतन्त्र कराने को प्रेरित करते थे। दोनों एक ही वर्ष पंजाब में पैदा हुए और एक ही साथ बलिदान हुए। भगत सिंह ने असेंबली में बम धमाके की योजना बनाई थी पर चन्द्रशेखर आजाद जी ने सुखदेव को यह कार्य सौंपा क्योंकि न्यायालय में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला चाहिए और वह भगत सिंह और सुखदेव ही बोल सकते थे पर सुखदेव जी चाहते थे यह कार्य भगत सिंह ही अच्छे से कर सकता है। पूरी कल्पना उसकी है तो उन्होंने भगत सिंह को प्रेरित किया।

    द्वितीय वीर थे शिवराम हरि राजगुरु जो कि मूलरूप से महाराष्ट्र के थे। उन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर 19 दिसंबर 1928 को अंग्रेज पुलिस अधिकारी जेपी साण्डर्स की गोली मारकर हत्या की थी। यह वारदात लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला थी। जिनकी मौत साइमन कमीशन का विरोध करते समय जेम्स स्काट की लाठी से हुई थी। राजगुरु के अंदर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने की उत्कण्ठ इच्छा थी। उनके जीवन में परिवर्तन तब आया जब होश संभालते ही उन्होंने अंग्रेजों के जुल्म को अपनी आंखों के सामने होते देखा। राजगुरू शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक एवं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे। मात्र 16 साल की उम्र में वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी में शामिल हो गये। उनका और उनके साथियों का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश अधिकारियों के मन में खौफ पैदा करना। साथ ही वे घूम-घूमकर लोगों को देश स्वतंत्र कराने के लिये जागरूक करते थे।

    तृतीय वीर थे भगत सिंह जिनका जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। उनके जन्म के समय उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजित और स्वरण सिंह जेल में थे। उनकी माता का नाम विद्यावती था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे। भगत सिंह को भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारियों में गिना जाता है। उनके चाचा सरदार अजित सिंह एक बड़े क्रांतिकारी थे उनके खिलाफ 22 मामले दर्ज हो चुके थे। जिसके कारण वह भारत छोड़कर ईरान चले गए और वहीं से देश की स्वतंत्रता का प्रयास करते रहे। इस कारण देशभक्ति के संस्कार भगत सिंह को अपने घर से ही मिले। कक्षा 5 वीं तक की पढ़ाई गांव में की और उसके बाद उनके पिता किशन सिंह ने दयानंद एंग्लो वैदिक हाईस्कूल लाहौर में आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश दिलवाया। कम आयु में भगत सिंह महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से जुड़ गए और बहुत ही बहादुरी के साथ ब्रिटिश शासन को ललकारा।

    13 अप्रैल 1919 जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर गहरा प्रभाव डाला। इस अमानवीय कृत्य को देख देश को स्वतंत्र कराने की सोचने लगे। उन्‍होंने चन्द्रशेखर आजाद के हिन्दुस्तान रिपब्लकिन एसोसिएशन नाम के संगठन से जुड़कर उस संगठन को नया नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लकिन एसोसिएशन दिया। भगत सिंह चाहते थे कि असेम्बली के बम धमाके में कोई खून-खराबा न हो तथा अंग्रेजी शासन तक उनकी आवाज पहुंचे। इसीलिये निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंका और उसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना संदेश दुनिया के सामने रखा-

    आदमी को मारा जा सकता है उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है।‘‘

    बम फेंकने के बाद भगत सिंह द्वारा फेंके गए पर्चों में यह लिखा था। भगत सिंह जी ने जेल में रहते हुए कैदियों के अधिकारों के लिए सत्याग्रह किया जो 116 दिन चला जिसमें 63 वें दिन क्रांतिकारी जतिन दास का भूख हड़ताल से बलिदान हुआ अर्थात जेल में रहते हुए भी पूरे देश का ध्यान क्रांतिकारियों की ओर आकर्षित किया।

    फांसी से पूर्व जब संतरी चतर सिंह ने भगत सिंह के कान में कहा- वाहे गुरु से प्रार्थना कर ले, वे हंसे और कहा- मैंने पूरी जिंदगी में भगवान को कभी याद नहीं किया, अगर अब मैं उनसे माफी माँगूंगा तो वे कहेंगे कि यह डरपोक है जो माफी चाहता है क्योंकि इसका अंत करीब आ गया है। वास्‍तव में मृत्‍यु पूर्व जो गीत गाया वह हमारी नसों में देशभक्‍ति का ज्‍वार आज भी पैदा कर देता है-

    कभी वो दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे
    ये अपनी ही जमीं होगी ये अपना आसमां होगा।
    शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
    वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।

    जेल की घड़ी में साढ़े छह बज रहे थे। कैदियों ने थोड़ी दूरी पर भारी जूतों की आवाज और जाने-पहचाने गीत माई रंग दे मेरा बसंती चोला की आवाज सुनाई दी और इसके बाद वहां इंकलाब जिंदाबाद और हिंदुस्तान आजाद हो के नारे लगने लगे। सभी कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे। तीनों से आखिरी इच्छा पूछी गई तो भगत सिंह ने कहा वे आखिरी बार दोनों साथियों से गले लगना चाहते हैं और ऐसा ही हुआ। फिर तीनों ने फांसी के फंदे चूम अपने गले में खुद पहन लिए।

    भगत सिंह से कभी कोठरी के सामने से गुजरते हुए पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने ऊँची आवाज में पूछा था लाहौर षडयंत्र केस में आपने और आपके साथियों ने अदालत में अपना बचाव क्‍यों नहीं किया तब भगत सिंह ने कहा था, इंकलाबियों को मरना ही होता है क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मजबूत होता है अदालत में अपील से नहीं।

    तीन परिंदे उड़े तो आसमान रो पड़ा
    ये हंस रहे थे मगर हिंदुस्तान रो पड़ा
    सपूत थे माता के अपना सुख-दुख सब भूल गए
    माता की बेड़ी तोड़ने को हंसते फांसी में झूल गए।

    (लेखक, शिक्षाविद् व विद्या भारती मध्‍य भारत प्रांत के संगठन मंत्री हैं।)

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