– डॉ. अजय खेमरिया
बंगाल सहित पूरी दुनिया के हिंदू अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर आत्मगौरव से भरे हुए हैं। वैचारिक और राजनीतिक सीमाओं को ध्वस्त कर लोग मंदिर निर्माण की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया में सहभागिता सुनिश्चित कर रहे हैं। विश्व इतिहास के महापुरुष श्रीराम के अस्तित्व को खंडित करती प्रस्थापनाएँ दफन होने की कगार पर है लेकिन बंगाल में अलग ही दृश्य देखने को मिल रहे हैं। बंगाली लोग जय श्रीराम का नारा लगाते हैं तो ममता बनर्जी संतुलन खो देती हैं, उनकी पुलिस राम नाम अंकित मास्क बांटने पर बीजेपी कार्यकर्ताओं को उठाकर हवालात में पटक रही है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रवैया उनकी सामयिक समझ को कटघरे में खड़ा करता प्रतीत होता है। कभी वामपंथ और उसकी वैचारिकी को रौंदकर बंगाल की सत्ता में आई ममता बनर्जी ऐसा लगता है, प्रभु राम को लेकर वामपंथी बौद्धिकता और क्षद्म सेक्युलरवाद के चंगुल में फंस चुकी हैं। तुष्टीकरण की शर्मनाक राजनीति से आगे बढ़कर ममता बनर्जी राम और बंगाल के रिश्ते पर जिस नई बहस को जन्म देना चाहती हैं वह एक खोखले धरातल पर आधारित है। राम को उत्तर भारत की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक चेतना के साथ सीमित कर बंगाली लोकजीवन से अलग दिखाने का उनका प्रयास तथ्यों से अधिक तुष्टीकरण की उसी कवायद का संस्करण है, जिसे 2014 और 2019 के जनादेश से भारत की जनता नकार चुकी है।
असल में ममता बनर्जी और उनकी सियासत आज सेक्युलरवाद की खारिज हो चुकी संसदीय राजनीति का बंगाली संस्करण बनकर रह गई है। जय श्रीराम के नारे पर उनकी उग्र प्रतिक्रिया का बंगाली समाज के लोकजीवन से बिल्कुल भी तादात्म्य नहीं है। किसी आम बंगाली से आप चर्चा कीजिये वह राम को लेकर उसी अधिकार और गौरवबोध का भान कराता है जैसा अवध या दण्डकारण्य का कोई हिन्दू। सवाल यह है कि क्या राम और उनके साथ जुड़ी लोक संस्कृति से बंगाल वाकई पृथक है? जैसा कि ममता बनर्जी और उनकी पार्टी दावा करती है कि बंगाली लोकजीवन’ राम’ नहीं’ शाक्त ‘(यानी देवीशक्ति) का उपासक है और भाजपा राम के सहारे बंगाल पर उत्तर भारतीय संस्कृति को थोपना चाहती है। इस सवाल के आलोक में हमें बंगाली लोकचेतना में राम की व्याप्ति तलाशने से पूर्व उस मानसिकता को भी समझने की आवश्यकता है जो सनातन हिन्दू धर्म की विविधताओं को वर्गीय भेद बताकर बदनाम करने में लंबे समय तक सफल रही है।
एकेश्वरवाद के अतिशय प्रभाव वाली बौद्धिक बिरादरी ने वैष्णव, शैव, शाक्त के उपासकों को स्वतंत्र मत और पारस्परिक शत्रु के रूप में स्थापित करने का काम किया है। कर्नाटक में लिंगायत समाज को अलग धर्म का दर्जा देने के राजनीतिक षड्यंत्र को इसी नजरिये से समझने की आवश्यकता है जो अंततः हिन्दू पहचान को कमजोर करता है। कमोबेश सरना धर्म कोड या फिर वनवासियों में प्रकृति पूजा को हिन्दू परम्परा से पृथक साबित करना या नवबौद्ध भी इसी सुनियोजित बौद्धिक खुराफात का भाग है। अब ‘शाक्त’ उपासकों के नाम पर बंगाल में राम को उत्तर भारतीय साबित करने के लिए जो राजनीति की जा रही है उसका मन्तव्य भी आसानी से समझा जा सकता है। बंगाल की आबादी में 30 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं जो 90 विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक हैं। ममता बनर्जी अच्छी तरह जानती हैं कि मुसलमानों के मतों का ध्रुवीकरण राम नाम पर सरलता से किया जा सकता है।
यहां का मौजूदा मिजाज देखकर स्पष्ट है कि जय श्रीराम को लेकर ममता बनर्जी बुनियादी राजनीतिक गलती कर बैठी हैं। वे बंगाली अस्मिता के नाम पर वैष्णव और शाक्त धाराओं को वामपंथी विचारसरणी की तरह व्याख्यियत करने की कोशिश कर रही हैं जो अंततः बंगाली हिंदु समाज को एकीकृत करने का मजबूत आधार बनता जा रहा है। मूल प्रश्न है कि क्या राम बंगाल में बाहरी हैं और भाजपा उन्हें थोप रही है? इसका प्रमाणिक उत्तर तो बंगाल का राममय लोक इतिहास स्वयं ही देता है। रामचरित्र को उत्तर भारतीयों के मध्य सुबोध बनाने का काम गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी रचना ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से किया लेकिन बंगाल की लोकसंस्कृति में राम तो तुलसीकृत मानस से पहले ही अवस्थित थे। वह भी कालक्रम में तुलसी से पूरे 100 वर्ष पूर्व 15वीं शताब्दी में। ‘कृत्तिवासी रामायण’ की रचना एक ऐतिहासिक बंगाली काव्य है। बंगभाषा के आदिकवि सन्त कृत्तिवास ओझा ने बंगाली लोकजीवन को राममय बनाने के लिए बंगाली जुबान में बाल्मीकि रामायण को तुलसी से पूर्व ही उपलब्ध करा दिया था।
ध्यान देने वाली बात यह है कि संस्कृत में लिखी ‘बाल्मीकि रामायण’ का अन्य किसी भाषा में प्रथम भाव प्रणीत रूपांतरण बंग भाषा में ही हुआ है, जो उत्तर भारतीय नहीं है। यानी सँस्कृत से हटकर अगर किसी जुबान में रामचरित की कहीं व्याप्ति सर्वप्रथम हुई है तो वह बंगाल की धरती ही है। इसलिए ममता बनर्जी और उनकी पार्टी का यह दावा न इतिहास से मेल खाता है न ही बंगाली सँस्कृति और साहित्य की प्रमाणिकता पर आधारित है। कृत्तिवासी रामायण की रचना ने बंगाली मन और मस्तिष्क में मर्यादा पुरुषोत्तम राम की एक अमिट छाप सुस्थापित की। कृत्तिवासी रामायण पांचाली स्वरूप में रची गई रामकथा है। यह बाल्मीकि रामायण का संस्कृत से सिर्फ शब्दानुवाद नहीं है बल्कि मध्यकालीन बंगाली समाज के लोकजीवन में राम चरित्र की अन्तरव्याप्ति का रेखांकन भी है। कृतिवास ओझा ने विस्तार से राम की दुर्गापूजा को इस महाकाव्य में उकेरा है। कवि ने सरल और सुबोध तरीके से बंगाली समाज के साथ राम के तादात्म्य को दिखाया गया है।
गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने कृत्तिवासी रामायण का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि इस काव्य में प्राचीन बंगाली समाज ने स्वयं को ही उजागर किया है।यानी राम और बंगाली समाज जीवन की अन्तरव्याप्ति में कोई भेद है ही नहीं। असल में कृत्तिवासी रामायण बंगाली समाज के लिए राष्ट्रीय काव्य के समकक्ष है क्योंकि इसे आधार बनाकर रंगमंचीय रामलीलाओं का स्थाई चलन इस समाज में स्थापित हुआ। खण्ड और पूर्ण रामायणों के सृजन की एक अनवरत श्रृंखला साहित्यिक तौर पर सामने आई। इस दौर में रामायण का पठन बंगाल के लोगों के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया था। फलस्वरूप सकल बंगाली समाज रामायण की कहानी को आत्मसात कर चुका था। मुद्रण विस्तार, शिक्षा तथा समाज की धारा में परिवर्तन आने के फलस्वरूप बंगाल के लोगों की जीवनधारा में भी परिवर्तन आने लगा। बाद में राज्य प्रायोजित छद्म सेक्युलरवाद ने बंगाली जीवन को शेष भारत की तरह अपने प्रभाव में लेने का काम किया। यह वही प्रभाव था जो हिन्दुत्व और इसकी उदात्त विविधताओं को कमजोरी के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
जबकि सच तो यही है कि युगों से रामायण ने बंगाल के लोगों के जीवन में प्रभाव विस्तार किया है। मध्ययुग के बांग्ला साहित्य में रामायण का प्रभाव प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों रूप में दिखता है। सीता तथा भ्रातृ भक्त लक्ष्मण बांग्ला समाज में आदर्श के रूप में स्थापित हैं। रामायण को आदिकवि कृत्तिवास ने बंगालियों के जीवन के साथ ठीक तुलसी की तरह रोजमर्रा के जीवन से संयुक्त कर दिया था। अतः रामायण का प्रसंग अयोध्या पंचवटी-दंडकारण्य, मिथिला का न होकर बंगाल की सजल-स्यामलिमा में बंगालियों के जनजीवन का हिस्सा रहा है। सुखमय भट्टाचार्याजी ने “रामायणेर चरिताबली” के अन्तर्गत प्रायः सभी पात्रों को सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप रेखांकित किया है। उनके राम जन-जन पर अपना प्रभाव खड़ा करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। अमलेश भट्टाचार्या ने “रामायण कथा” में राम के विशाल हृदय के कोमल तथा दृढ़ भावों को बंगाली जनमन के साथ जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया है कि रामायण बंगाली जीवन के प्रधान मार्ग दर्शक के रूप में सदियों से अंतस की अभिभाज्य प्रेरणा है।
सोलहवी शताब्दी में बांग्ला साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला कवि चंद्रावती जिनका जन्म आज के बांग्लादेश में मैमनसिंह जिले में हुआ था, उन्होंने “चन्द्रावतीर रामायण” की रचना की जो आज भी बंगाली समाज और साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती है। इस ग्रन्थ में चंद्रावती ने सीता वनगमन प्रसंग को बड़े मार्मिक एवं प्रेरक अंदाज में उकेरा है। चन्द्रावती की रामायण में नारी चरित्र को उच्च आदर्श के धरातल पर खड़ा किया गया है इसीलिए चंद्रावती की रामायण को “रामायण” न होकर “सीतायन” तक कहा जाता है। उत्तर रामायण और वनवासी राम के साथ सीता के प्रसंगों को करुणा के साथ रेखांकित करने के कारण सीतायन बंगाली महिलाओं के मध्य सीता को अनुकरणीय बनाने में सफल साबित हुई है। नरेंद्र नारायण अधिकारी रचित “राम विलाप” में रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात् जटायु से मिलने तक के राम के करुण विलाप का वर्णन है। इस खंड में दांपत्य जीवन का भी सुंदर उदहारण है। पत्नीव्रती राम आधुनिक समाज को सही मार्ग दिखाते हैं जिसकी नजीर आज भी बंगाली समाज में संस्कार और परिवार प्रबोधन के तौर पर दी जाती है। उन्नीसवीं शताब्दी के बांग्ला साहित्यकार भी रामायण से प्रभावित देखे जाते हैं। जिनमें ईश्वरचंद्र विद्यासागर, माइकेल मधुसूदन दत्त, रघुनन्दन गोस्वामी प्रमुख है। बीसवीं सदी के दिनेशचंद्र सेन, राजशेखर बासु, रामानंद चट्टोपाध्याय, उपेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, शिशिर कुमार नियोगी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, द्विजेन्द्रनाथ राय, उपेन्द्र किशोर रायचौधरी आदि साहित्यकारों ने रामायण को आधार बनाकर अनेक रचनाएँ की हैं।
कृत्तिवासी-रामायण के बारे में विश्वकवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहना है कि “भारतीयों के लिए राम-लक्ष्मण-सीता जितने सत्य हैं उतने उनके घर के लोग नहीं हैं। परिपूर्णता के प्रति भारतवर्ष के लिए प्राणों की आकांक्षा है। इसको वास्तव सत्य का अतीत कहकर अवज्ञा नहीं किया है, अस्वीकार नहीं किया है। इसको इन्होंने वास्तव सत्य कहकर स्वीकार किया है और आनंदित हुए हैं। उसी परिपूर्णता की आकांक्षा को ही उदघोषित तथा तृप्त करके रामायण का कवि भारतवर्ष के भक्तों के हृदय को मोल ले लिया हैं। इसमें जो सौभ्रात्र, जो सत्यपरायणता, जिस प्रभु भक्ति का वर्णन हुआ है उसके प्रति यदि सरल श्रद्धा तथा अंतर की भक्ति की रक्षा कर सकें तो हमारे घर के वातायन में महासमुद्र की निर्मल वायु प्रवेश का पथ खुला रहेगा।”
दिनेशचंद्र सेन रचित “रामायणी कथा” राम के चरित्र की उदात्तता को उभार कर समाज व्यवस्था के संचालक के रूप में प्रस्तुत करती है। विश्व कवि ने तो रामायण की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए अपनी कृतियों में रामायण को ही आधार बनाया है। उनके द्वारा रचित “वाल्मीकि प्रतिभा” 1881 (गीति नाट्य) में मानव जीवन के गूढ़ गंभीरतम उपादान, वेदना और करुणा को प्रधानता दी गई है। “काल मृगया” की रचना में भी रामायण की कथा है। “मानसी” काव्य में “अहल्यार प्रति” कविता में रामचंद्र के स्नेहाधीन होकर अहिल्या की शाप मुक्ति का प्रसंग है। राम यहाँ उद्धारक के रूप में चित्रित हैं। कवि ने इस काव्य के माध्यम से विश्व बोध का जो पाठ पढ़ाया है, वह रामायण के अन्यतम व्याख्या है। “सोनार तरी” 1894 काव्य के अंतर्गत “पुरस्कार” कविता में रामायण के कुछ विशेष मुहूर्तों को अंकित किया है। राम-सीता-लक्ष्मण द्वारा ऐश्वर्या का त्याग करके वल्कल परिधान करके वन गमन का प्रसंग आवश्यकता पड़ने पर संसार का त्याग करने की मानसिकता का संदेश बंगाली समाज को देता है।
वस्तुतः श्रीराम बंगाल की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का आधार ठीक वैसे ही हैं जैसे वे उत्तर भारत में है। सच तो यह है कि रामावतार के भौगोलिक संबन्धों से परे बंगाल राम की अदृश्य चेतना से सर्वाधिक घनीभूत रहने वाली पवित्र भूमि भी है। इसलिए ममता बनर्जी या उनकी पार्टी मानवता के इस सबसे सुंदर सपने को उत्तर भारत की परिधि में सीमित करने की कुत्सित कोशिश में लगी हैं तो इसके नतीजे राजनीतिक रूप से भी प्रतिगामी ही साबित हो सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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