– डॉ. मयंक चतुर्वेदी
देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान कितना महत्वपूर्ण है यह किसी को आज बताने की आवश्यकता नहीं। वस्तुत: मौजूदा समय में कृषि, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में 14 प्रतिशत से अधिक का योगदान करती है और देश के श्रमिकों के 40 प्रतिशत से अधिक हिस्से को आजीविका प्रदान करती है। बावजूद इसके जब-जब कृषि क्षेत्र की सेहत कुछ खराब हुई है तब-तब विभिन्न केंद्र व राज्य सरकारों ने समय-समय पर इसे संजीवनी देने का भरसक प्रयास किया है।
पिछले साल ही मोदी सरकार ने किसानों के हितों को ध्यान में रखकर एक लाख करोड़ रुपये का कृषि अवसंरचना कोष (फंड) बनाया, जिससे कि कोरोना वायरस की वजह से आई मंदी के बीच कृषि क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को दुरुस्त किया जा सके। हमने देखा है कि कैसे यह कोष देश के कृषि बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने की ओर ध्यान देने वाले किसानों, कृषि-उद्यमियों, स्टार्ट-अप्स, कृषि-प्रौद्योगिकी कंपनियों और किसान समूहों के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ है।
इससे जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़ाने में मदद तो मिली ही है, साथ ही व्यापार संतुलन की स्थिति में सुधार, कृषि क्षेत्र की निर्यात क्षमता को प्रोत्साहित करने और किसानों की आय में वृद्धि करके एक स्थिर और समृद्ध जीवन सुनिश्चित करने की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं। कोष की मदद से कुछ ही महीनों में कृषि क्षेत्र को फसल की कटाई के बाद उसके प्रबंधन के बुनियादी ढाँचे की लाभप्रद परियोजनाओं में निवेश के लिए मध्यम-से-दीर्घावधिक ऋण वित्तपोषण की सुविधा की योजना तैयार करने में सफलता मिली है।
इसी तरह से ब्याज सहायता और वित्तीय समर्थन के जरिये सामुदायिक खेती की संपत्ति बनाने में भी इस फंड का योगदान आज महत्व रखता है। वहीं, कोष के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर भी बढ़ रहे हैं। ऐसे ही अनेक उपाय, योजनाएं केंद्र व राज्य के स्तर पर किसानों के हित को ध्यान में रखकर सरकारें चला रही हैं। कहीं कोई समस्या नहीं और कहीं कोई किसान का हित नहीं छीना जा रहा है। इसके बाद भी जिस तरह से किसान, खासकर पंजाब, हरियाणा एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं ने अपनी मांगों को मनवाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाते हुए कृषि कानून वापस लेने की मांग को लेकर अपनी जिद पूरी करने के लिए किसी भी हद तक जाने की तैयारी कर रखी है, उसे देखकर इतना अवश्य कहना पड़ रहा है कि अब यह आन्दोलन गलत दिशा में जाने के साथ ही देश की आम जनता का बोझ भी बढ़ाने लगा है।
लोकतंत्र में किसी संगठन या समूह का सरकार के किसी फैसले से असहमत होना कोई नई बात नहीं, किंतु असहमतियों में से ही सहमति के स्वर निकाले जाते हैं, ऐसा नहीं होता कि हर दौर की बात में निकले निष्कर्ष को सरकार के मत्थे मड़कर फिर से आन्दोलन शुरू कर दिया जाए, यह कहकर कि हम सहमत होनेवाले नहीं हैं। यह आंदोलन मुख्यत: इस दुष्प्रचार पर आधारित है कि किसानों की जमीनें छिन जाएंगी और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था खत्म कर दी जाएगी। जबकि देश में ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा है। सरकार बार-बार आगे होकर कह रही है कि केंद्र की मोदी सरकार कोई भी निर्णय कभी भी इस प्रकार का नहीं लेने जा रही जोकि देश के किसानों को किसी भी तरह का नुकसान या आर्थिक चोट पहुंचाते हैं। इसके बाद भी आन्दोलनकारी किसान हैं कि बेकार में कृषि कानून वापस लेने की जिद पर अड़े हुए हैं।
वस्तुत: इस आन्दोलन के चलते स्थिति यह हो गई है कि आन्दोलनकारी किसानों को तो बाहरी समर्थन मिल रहा है, देश तोड़नेवाली ताकतें इस किसान आन्दोलन की आड़ में अपनी रोटी सेंकती दिख रही हैं। लेकिन दूसरी ओर इसके कारण देश की अर्थव्यवस्था को हर रोज कई हजार करोड़ का नुकसान पहुंच रहा है। इसे लेकर उद्योग चैंबर एसोचैम का ताजा आंकड़ा कह रहा है कि किसान आंदोलन से देश को हर दिन कम से कम 3500 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है। यह नुकसान लॉजिस्टिक लागत बढ़ने, श्रमिकों की कमी, टूरिज्म जैसी कई सेवाओं के न खुल पाने आदि के रूप में हो रहा है।
इसी तरह एक और उद्योग चैंबर कंफडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज का भी कहना है कि पटरी पर लौट रही अर्थव्यवस्था को किसान आंदोलन से काफी नुकसान पहुंच रहा है। कई राजमार्गों के बाधित होने से माल की आवाजाही के लिए दूसरे वैकल्पिक रास्ते अपनाने पड़ रहे हैं और इससे लॉजिस्टिक लागत में 8 से 10 फीसदी की बढ़त हो गई है, यदि इसी तरह चलता रहा तो इसकी वजह से दैनिक उपभोग की कीमतें आनेवाले दिनों में और बढ़ सकती हैं।
आर्थिक तथ्यों को देखें तो देश में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की संयुक्त अर्थव्यवस्था करीब 18 लाख करोड़ रुपये की है। किसानों के आंदोलन और सड़क, टोल प्लाजा, रेलवे को रोक देने से इन राज्यों की आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ गयी हैं। मुख्यत: निर्यात बाजार की जरूरतें पूरी करने वाली कपड़ा, ऑटो कम्पोनेंट, साइकिल, स्पोर्ट्स गुड्स आदि इंडस्ट्री अपने ऑर्डर नहीं पूरे कर पा रहीं। इससे वैश्विक खरीदारों में हमारे भरोसे को नुकसान पहुंच रहा है।
ये राज्य कृषि और वानिकी के अलावा फूड प्रोसेसिंग, कॉटन टेक्सटाइल, ऑटोमोबाइल, फार्म मशीनरी, आईटी जैसे कई प्रमुख उद्योगों के भी केंद्र हैं. इन राज्यों में टूरिज्म, ट्रेडिंग, ट्रांसपोर्ट और हॉस्पिटलिटी जैसे सर्विस सेक्टर भी काफी मजबूत हैं। लेकिन विरोध प्रदर्शन और रास्ता जाम होने से इन सभी गतिविधियों को काफी नुकसान हो रहा है। जबकि लॉकडाउन के बाद इसमें सुधार होने लगा था।
वर्तमान में हकीकत यही है कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली-एनसीआर जाने वाले माल को पहुंचने में अब 50 फीसदी ज्यादा समय लग रहा है। इसी तरह हरियाणा, उत्तराखंड और पंजाब से दिल्ली आने वाले यातायात वाहनों को 50 फीसदी ज्यादा दूरी तय कर आने को मजबूर किया जा रहा है। दिल्ली के आसपास के औद्योगिक इलाकों को मजदूरों की कमी से जूझना पड़ रहा है, क्योंकि आसपास के कस्बों से मजदूरों का कारखानों तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है।
कांग्रेस और वाम दल किसानों को जिस तरह उकसाने में लगे हुए हैं, यह देश के हित में कहीं से भी नहीं है, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि खुद मुख्य न्यायाधीश यह कह चुके हैं कि हम अपने हाथ खून से नहीं रंगना चाहते। एक तथ्य यह भी है कि उच्चतम न्यायालय के समक्ष अटार्नी जनरल की ओर से यह कहा गया है कि किसान आंदोलन में खालिस्तानी तत्व घुसपैठ कर रहे हैं। अब ये किसान नेता सुप्रीम कोर्ट की भी नहीं सुनना चाहते। इससे साफ जाहिर हो रहा है कि किसान आन्दोलन अब निरंकुश हो चला है। देश का आम नागरिक अब परेशान हो रहा है। ऐसे में समझदार किसान भाइयों को भी अब समझना होगा कि इस आन्दोलन की राह पर चलकर वे अपना तो अहित कर ही रहे हैं देश के आम नागरिक को आर्थिक नुकसान पहुंचाकर उसकी मुसीबतें बढ़ा रहे हैं। अच्छा हो वे शांति से अपनी समस्या का हल निकालें और आमजन के हित में इस आन्दोलन की समाप्ति की घोषणा करें। इसी में सबका हित निहित है।
(लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं।)
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