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हिन्दी बने संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा

January 09, 2021

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

संयुक्त राष्ट्र संघ में अगर अब भी हिन्दी नहीं आएगी तो कब आएगी? हिन्दी का समय तो आ चुका है लेकिन अभी उसे एक हल्के से धक्के की जरूरत है। भारत सरकार को कोई लंबा-चौड़ा खर्च नहीं करना है, उसे किसी विश्व अदालत में हिन्दी का मुकदमा नहीं लड़ना है, कोई प्रदर्शन और जुलूस आयोजित नहीं करने हैं। उसे केवल डेढ़ करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष खर्च करने होंगे, संयुक्त राष्ट्र के आधे से अधिक सदस्यों (96) की सहमति लेनी होगी और उसकी कामकाज नियमावली की धारा 51 में संशोधन करवाकर हिन्दी का नाम जुड़वाना होगा। इस मुद्दे पर देश के सभी राजनीतिक दल भी सहमत हैं। सूरिनाम में संपन्न हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने इस प्रस्ताव पर जब हस्ताक्षर करवाए तो सभी दलों के सांसद मित्रों ने सहर्ष उपकृत कर दिया।

कौन भारतीय है, जो अपने राष्ट्र की भाषा को विश्व मंच पर दमकते हुए देखना नहीं चाहेगा। जिन भारतीयों को अपने प्रांतों में हिन्दी के बढ़ते हुए वर्चस्व पर कुछ आपत्ति है, वे भी संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी लाने का विरोध नहीं करेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि विश्व मंच पर 22 भारतीय भाषाएं भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। वे यह बर्दाश्त नहीं कर सकते कि विश्व मंच पर भारत गूंगा बनकर बैठा रहे। उनका उत्कट राष्ट्र प्रेम उन्हें प्रेरित करेगा कि हिन्दी विश्व मंच पर भारत की पहचान बनकर उभरे। उन्हें भारत की बढ़ती हुई शक्ति और संपन्नता पर उतना ही गर्व है, जितना किसी भी हिन्दी भाषी को है। वे जानते हैं कि जिस राष्ट्र के मुंह में अपनी जुबान नहीं, वह महाशक्ति कैसे बन सकता है? उसे सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता कैसे मिल सकती है? स्थायी सदस्यता तो बहुत बाद की बात है। पहले कम-से-कम सदस्यता के द्वार पर भारत दस्तक तो दे। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी ही यह दस्तक है।

अगर हमने संयुक्त राष्ट्र संघ में पहले हिन्दी बिठा दी तो हमें सुरक्षा परिषद में बैठना अधिक आसान हो जाएगा। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएं केवल चार थीं। अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी। सिर्फ ये चार ही क्यों? सिर्फ ये चार इसलिए कि ये चारों भाषाएं पांच विजेता महाशक्तियों की भाषा थी। अमेरिकी और ब्रिटेन, दोनों की अंग्रेजी, रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी और चीन की चीनी! इन भाषाओं के मुकाबले इतालवी, जर्मन, जापानी आदि भाषाएं किसी तरह कमतर नहीं थी लेकिन विजित राष्ट्रों की भाषाएं थीं। याने जिस भाषा के हाथ में तलवार थी, ताकत थी, विजय-पताका थी, वही सिंहासन पर जा बैठी। क्या अब 65 साल बाद भी यही ताकत का तर्क चलेगा? जो ढांचा द्वितीय महायुद्ध के बाद बना था, उसका लोकतांत्रीकरण हो या नहीं? यदि होगा तो संयुक्त राष्ट्र के सिंहासन पर विराजमान होने का सबसे पहला हक हिन्दी का होगा। यदि 1965 में भारत आजाद होता तो उसकी भाषा हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र में अपने आप ही मान्यता मिल जाती।

1965 में जो चार भाषाएं संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएं बनीं, उनमें 1973 में दो भाषाएं और जुड़ी। हिस्पानी और अरबी ! इन दोनों भाषाओं को बोलने वाले लगभग दो-दो दर्जन राष्ट्र में से एक भी ऐसा नहीं था, जिसे महाशक्ति कह सकें। या विकसित राष्ट्र मान लें। ये राष्ट्र आपस में मिलकर किसी महाशक्ति मंडल की छवि प्रस्तुत नहीं करते। कई राष्ट्र एक ही भाषा जरूर बोलते हैं लेकिन वे गरीब है, पिछड़े हैं, छोटे हैं, पर-निर्भर हैं और अगर वे सशक्त और बड़े हैं तो आपस में झगड़ते हैं, संयुक्त राष्ट्र में एक-दूसरे के विरोध में मतदान करते हैं। दूसरे शब्दों में उनकी भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र में शक्तिबल के कारण नहीं, संख्या बल के कारण मान्यता मिली।

हिन्दी को तो पता ही नहीं, किन-किन बलों के कारण मान्यता मिलनी चाहिए। सबसे पहला कारण तो यह है कि हिन्दी को मान्यता देकर संयुक्त राष्ट्र अपनी ही मान्यता का विस्तार करेगा। उसके लोकतन्त्रीकरण की प्रतिक्रिया का यह शुभारंभ माना जाएगा। विजेता और विजित के खांचे में फंसी हुई संयुक्त राष्ट्र की छवि का परिष्कार होगा। दूसरा, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश और दुनिया के चौथे सबसे मालदार देश की भाषा को मान्यता देकर संयुक्त राष्ट्र अपना गौरव खुद बढ़ाएगा। तीसरा, हिन्दी को मान्यता देने का अर्थ है तीसरी दुनिया और गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों को सम्मान देना। भारत इन राष्ट्रों का नेतृत्व करता है। चौथा, हिन्दी विश्व की सबसे अधिक समझी और बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्त राष्ट्र की पांच भाषाओं से हिन्दी की तुलना करना बेकार है। वह उनसे कहीं आगे है। हां, चीनी से तुलना हो सकती है। चीन की अधिकृत भाषा `मेंडारिन’ है। इस भाषा को बोलने-समझने वालों की संख्या विभिन्न भाषाई-विश्वकोशों में लगभग 85 करोड़ बताई जाती है। उसे सौ करोड़ भी बताया जा सकता है। लेकिन असलियत क्या है? असलियत के बारे में बहुत-से मतभेद हैं। चीन में दर्जनों स्थानीय भाषाएं हैं। उन्हें लोग दुभाषियों के बिना समझ ही नहीं पाते।

मैं स्वयं 8-10 बार चीन घूम चुका हूं। एक-एक माह वहां रहा हूं। मुझे कई बार दो-दो तरह के दुभाषिए एक साथ रखने पड़े थे। एक तो जो हिन्दी से चीनी का अनुवाद करे और दूसरा, जो चीनी से स्थानीय भाषा में करे। अगर यह मान लें कि दुनिया में चीनी भाषाओं की संख्या एक अरब है तो भी इससे हिन्दी पिछड़ नहीं जाती। आज हिन्दी भाषियों की संख्या एक अरब से भी ज्यादा है। सिनेमा और टीवी चैनलों की कृपा से अब लगभग सारे भारत के लोग हिन्दी समझ लेते हैं और जरूरत पड़ने पर बोल भी लेते हैं। अगर मान लें कि दक्षिण भारत के 10-15 करोड़ लोगों को हिन्दी के व्यवहार में अब भी कठिनाई है तो उसकी भरपाई दक्षेस के अन्य सात राष्ट्रों में बसे लगभग 35 करोड़ लोग कर देते हैं। उनमें से ज्यादातर हिन्दी समझते हैं। उनके अलावा विदेशों में बसे दो करोड़ से ज्यादा भारतीय भी हिन्दी का प्रयोग सगर्व करते हैं। अत: संख्या बल के कोण से देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को प्रतिष्टित करना दुनिया के लगभग डेढ़ अरब लोगों को प्रतिनिधित्व देना है।

पांचवां, हिन्दी जितने राष्ट्रों की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली-समझी जाती है, संयुक्त राष्ट्र की पहली चार भाषाएं नहीं बोली-समझी जाती है। याद रहे बहुसंख्यक जनता द्वारा ! यह ठीक है कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रूसी ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें ब्रिटेन, फ्रांस और रूस के दर्जनों उपनिवेशों में बोला जाता रहा है। लेकिन ये भाषाएं उन उपनिवेशों के दो-चार प्रतिशत से ज्यादा आज भी नहीं बोलते जबकि हिन्दी भारत ही नहीं, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, मॉरिशस, ट्रिनिडाड, सूरिनाम, फीजी, गयाना, बांग्लादेश आदि देशों की बहुसंख्यक जनता द्वारा बोली और समझी जाती है। जब इस बहुराष्ट्रीय भाषा में संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियां टीवी पर सुनाई देंगी तो कल्पना कीजिए कि कितने लोगों और राष्ट्रों का संयुक्त राष्ट्र के प्रति जुड़ाव बढ़ता चला जाएगा।

छठा, यदि हिन्दी संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठित होगी तो दुनिया की अन्य सैकड़ों भाषाओं के लिए शब्दों का नया खजाना खुल पड़ेगा। हिन्दी संस्कृत की बेटी है। संस्कृत की एक-एक धातु से कई-कई हजार शब्द बनते हैं। एशियाई और अफ्रीकी ही नहीं, यूरोपीय और अमेरिकी भाषाओं में भी आजकल शब्दों का टोटा पड़ा रहता है। अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान और व्यापार के कारण रोज नये शब्दों की जरूरत पड़ती है। इस कमी को हिन्दी पूरा करेगी। सातवां, इसके अलावा हिन्दी के संयुक्त राष्ट्र में पहुंचते ही दुनिया की दर्जनों भाषाओं को भी लिबास मिलेगा। वे निर्वसन हैं। उनकी अपनी कोई लिपि नहीं है। तुर्की, इंडोनेशियाई, मंगोल, उज्बेक, स्वाहिली, गोरानी आदि अनेक भाषाएं हैं, जो विदेशी लिपियों में लिखी जाती है। मजबूरी है। हिन्दी इस मजबूरी को विश्व स्तर पर दूर करेगी। वह रोमन, रूसी और चीनी आदि लिपियों का शानदार विकल्प बनेगी। उसकी लिपि सरल और वैज्ञानिक है। जो बोलो सो लिखो और लिखो, सो बोलो। संयुक्त राष्ट्र में बैठी हिन्दी विश्व के भाषाई मानचित्र को बदल देगी।

यदि हिन्दी संयुक्त राष्ट्र में दनदनाने लगी तो उसके चार ठोस परिणाम एकदम सामने आएंगे। पहला, भारतीय नौकरशाही और नेताशाही को मानसिक गुलामी से मुक्ति मिलेगी। भारत के राज-काज में हिन्दी को उचित स्थान मिलेगा। दूसरा, भारतीय भाषाओं की जन्मजात एकता में वृद्धि होगी। तीसरा, दक्षेस राष्ट्रों में `संगच्छध्वं संवदध्वं’ का भाव फैलेगा। जनता से जुड़ाव बढ़ेगा। तीसरा, वैश्वीकरण की प्रक्रिया में अंग्रेजी का सशक्त विकल्प तैयार होगा। चौथा, स्वभाषाओं के जरिये होने वाले शिक्षण, प्रशिक्षण और अनुसंधान की गति तीव्र होगी। उसके कारण भारत दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति करेगा। सचमुच वह विश्व-शक्ति और विश्व-गुरु बनेगा।

(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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हिन्दी की बढ़ती ताकत

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