नई दिल्ली। दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukherjee) की आत्मकथा ‘द प्रेसिडेंशियल ईयर्स’ मंगलवार को बाजार में आने के बाद से सुर्खियां बटोर रही है। इसमें कई चौंकाने वाले दावे किए गए हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन-2 से ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की पार्टी टीएमसी के अलग होने को लेकर भी बातें लिखी गई हैं। अपनी किताब में प्रणब दा ने लिखा था कि अगर वो वित्त मंत्री के तौर पर काम करते रहते, तो शायद ममता बनर्जी को यूपीए-2 में बने रहने के लिए राजी कर सकते थे।
साल 2012 में ममता बनर्जी ने यूपीए-2 सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था, क्योंकि ममता बनर्जी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI), सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर और पेट्रोल-डीजल के लगातार दाम बढ़ने को लेकर यूपीए एकमत नहीं थीं। जब ममता बनर्जी ने यूपीए-2 सरकार से समर्थन वापस लिया था, तब पूर्व पीएम डॉ। मनमोहन सिंह के पास ही वित्त मंत्रालय था।
संकट के समय में नेतृत्व पर विचारों को उजागर करते हुए प्रणब मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘मेरा मानना है कि संकट के समय में पार्टी के नेतृत्व को एक अलग दृष्टिकोण से विकसित करना चाहिए। अगर मैं सरकार में वित्त मंत्री के रूप में जुड़ा होता, तो यूपीए गठबंधन में ममता बनर्जी की निरंतरता को सुनिश्चित करता।’
UPA-I और UPA-II के कार्यकाल को अलग करते हुए प्रणब मुखर्जी आगे लिखते हैं, ‘वास्तव में, UPA-I और UPA-II गठबंधन बड़ा अंतर है। 2004 में, UPA-I वाम दलों और समाजवादी पार्टी के समर्थन के बिना अस्तित्व में नहीं आ पाता। जब वाम दलों ने समर्थन वापस ले लिया, तो मनमोहन सिंह द्वारा लाया गया विश्वास प्रस्ताव मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी के समर्थन से ही लोकसभा में पारित हो पाया था।’
आत्मकथा के एक अंश में लिखा है- ‘जब यूपीए -2 का गठन हुआ, तो पहले के कई साथी जैसे वामपंथी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल गठबंधन का हिस्सा नहीं थे। ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के 19 सांसदों के साथ गठबंधन में शामिल हुईं। टीएमसी ने लंबे समय तक यूपीए -2 को अपना समर्थन जारी नहीं रखा। 2009 के लोकसभा चुनावों और 2011 के विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बाद भी ममता बनर्जी ने सितंबर 2012 में यूपीए-2 में अपना महत्वपूर्ण सदस्य होने के बावजूद समर्थन वापस ले लिया।’
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की विफलता पर प्रणब मुखर्जी ने दावा किया कि कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने ये सिद्धांत दिया था कि अगर वो पीएम चेहरा बने होते, तो हो सकता है कि पार्टी 2014 में और अच्छा प्रदर्शन करती।
प्रणब मुखर्जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा- ‘लेकिन मुझे विश्वास है कि राष्ट्रपति के रूप में मेरे उत्थान के बाद पार्टी के नेतृत्व ने राजनीतिक ध्यान खो दिया। सोनिया गांधी पार्टी के मामलों को संभालने में असमर्थ थीं। डॉ. मनमोहन सिंह की लंबे समय तक अनुपस्थिति के कारण पार्टी ने अन्य सांसदों के साथ व्यक्तिगत संपर्क को समाप्त कर दिया। राज्यसभा में अपने दिनों के दौरान मैं मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे कई नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करने में सफल रहा था।’
विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रमुखों से अपने मधुर रिश्तों के बारे में प्रणब दा अपनी किताब में लिखते हैं, ‘वास्तव में मेरे लिए मायावती की व्यक्तिगत आत्मीयता ने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उनका समर्थन सुनिश्चित किया। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की राजनीतिक निष्ठा और अहंकार ने पार्टी के भाग्य को और चोट पहुंचाई। महाराष्ट्र को लेकर सोनिया गांधी द्वारा लिए गए निर्णयों से पार्टी को नुकसान ही हुआ। अगर मुझे मौका मिलता तो शायद मैं शिवराज पाटिल या सुशील कुमार शिंदे को वापस ले आया होता। मुझे नहीं लगता कि मैंने तेलंगाना राज्य बनाने की अनुमति दी होगी।’
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