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    भारतीय ज्ञान परम्परा और भाषा को बंधक से छुड़ाने का अवसर

  • December 29, 2020

    – गिरीश्वर मिश्र

    पिछले दिनों काशी में देव दीपावली के पावन अवसर पर प्रधानमंत्री ने देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति को, जिसे तस्करी में चुराकर एक सदी पहले कनाडा की रेजिना यूनिवर्सिटी के संग्रहालय को पहुंचा दिया गया था, बंधक से छुड़ाकर देश को वापस सौंपे जाने की चर्चा की थी। तब वहां के कुलपति टामस चेज ने बड़ी मार्के की बात कही थी कि ‘यह हमारी जिम्मेदारी है कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारा जाय और उपनिवेशवाद के दौर में दूसरे देशों की विरासत को जो नुकसान पहुंचा है, उसे ठीक करने की हरसंभव कोशिश हो।’

    आशा की जाती है कि इस साल के अंत होते-होते यह मूर्ति अपने मूल स्थान पर पुन: विराजित हो जायगी। दरअसल विपन्नता की स्थिति में अपनी बहुमूल्य संपत्ति को गिरवी रखना और स्थिति सुधरने पर उसे छुड़ाकर वापस लाना कोई नई बात नहीं है और इसका दस्तूर अभी भी जारी है। भारत की समृद्ध ज्ञान संपदा और उसकी अभिव्यक्ति को भी इतिहास के एक बिन्दु पर अंग्रेजों के पास बंधक रख दिया गया। पर परेशानी यह है कि उसकी एवज में जो लिया गया या मिला, उसकी परिधि में ही शिक्षा का आयोजन हुआ और अभ्यासवश उसके मोहक भ्रम में हम कुछ ऐसे गाफिल हुए कि अपनी संपदा को अपनाना तो दूर उसे पहचानने से भी इनकार करते रहे। महान मैकाले साहब ने जो तजबीज भारत के लिए की, उसे हमने कुछ इस तरह आत्मसात कर लिया कि स्मृति-भ्रंश जैसा होने लगा और विकल्पहीन होते गए। इसके चलते अपने स्वभाव के अनुसार सोचने-विचारने पर कुछ ऐसा प्रतिबन्ध लगा कि कोल्हू के बैल की भाँति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम पराई दृष्टि के पीछे ही चलते रहे। चलने से गति का अहसास तो हो रहा था पर दृष्टि पर पड़े आवरण से दिशा-बोध जाता रहा। इसका परिणाम सामने है। आईआईएम और आईआईटी की शिक्षा के कुछ सुरम्य द्वीप के चारों ओर कुशिक्षा का समुद्र हिलोरें ले रहा है। आज डिग्रीशुदा बेरोजगारों की संख्या, गुणवत्ता की दृष्टि से कमजोर शिक्षा और भारत के स्वभाव और संस्कृति से बढ़ते अपरिचय के बीच शिक्षा जगत में बेचैनी व्याप्त है।

    प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक नामांकन जरूर बढ़ा और संस्थाओं की संख्या भी बढ़ी पर उनमें पढाई-लिखाई का स्तर कमतर होता गया और सबकुछ जटिल होता गया। आज प्राथमिक विद्यालय में बच्चे का प्रवेश हो जाना, जग जीतने का कारनामा जैसा हो गया है। इस स्तर पर जितनी विषमता व्याप्त है उसका अनुमान लगाना भी कठिन है। सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों और उनके वर्ग भेद ‘शिक्षा के अधिकार’ की धज्जियां उड़ाते हैं। उसकी ऊंची फीस और व्यवस्था अभिभावकों के लिए तनाव का बड़ा कारण बन रही है। सरकारी स्कूलों के बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि का हाल यह है कि दर्जा पांच का बच्चा दर्जा दो के स्तर का ज्ञान नहीं रखता और उसकी बुनियादी जानकारी को लेकर एक राष्ट्रीय मिशन की बात कही गई है।

    इस बात से शायद ही किसी कि असहमति हो कि शिक्षा और ज्ञान की थोपी हुई शिक्षा की दृष्टि अंग्रेजों की औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति का उपाय थी न कि यहाँ की अपनी जैविक उपज। यह बात संदेह से परे है कि अंग्रेजों ने भारत को अपने लिए आर्थिक स्रोत के रूप में लिया और यथासंभव शोषण और दोहन किया। उनकी विश्व दृष्टि के परिणाम देश को स्वतंत्रता मिलने के समय साक्षरता, शिक्षा और अर्थव्यवस्था में व्याप्त घोर विसंगतियों में देखा जा सकता है। स्वतंत्रता का अवसर वैकल्पिक व्यवस्था शुरू करने का अवसर था परन्तु राजनैतिक स्वराज के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन का विवेक कठिन सिद्ध हुआ। फलत: स्वाधीन होने पर भी देश का शासन तंत्र, उसके हाव-भाव और लक्ष्य में अंग्रेजी दौर की निरंतरता भी व्यापक रूप से कायम रही। उदासीनता, अज्ञान और आलस्य के चलते जो कुछ जैसे चल रहा था चलता रहा। अंग्रेजी शिक्षा नीति ने समाज को सदा-सदा के लिए अनपढ़, ज्ञानी और विज्ञानी आदि की ऐसी कोटियाँ बना दीं जिसने कई नई जातियां खड़ी कर दीं और वर्चस्व की नई तस्वीर रच दी। ज्ञान तक पहुँच के बीच रोड़े दर रोड़े खड़े होते गए। आज सात दशक बाद भी उच्चतम न्यायालय का दरवाजा भारत की भाषा के लिए बंद है। भाषा और ज्ञान की दृष्टि से हम जिस तरह परनिर्भर होते गए वह ज्ञान के प्रचार और प्रवाह की दृष्टि से लोकतंत्र के लिए बड़ा घातक सिद्ध हो रहा है।

    शिक्षा का उद्देश्य देश के मानस का निर्माण करना होता है और वह देश-काल और शिक्षा संस्कृति से विलग नहीं होनी चाहिए। फिर भी इस प्रश्न को छेड़ने से हम बचते-बचाते रहे और भारत की समझ की भारतीय दृष्टि की संभावना के प्रति संवेदनहीन बने रहे। राजा बदलने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर राजकाज में बहुत कुछ लगभग वैसा ही बना रहा। संभवत: औपनिवेशक दृष्टि की औपनिवेशिकता ही दृष्टि से ओझल हो गई और उसकी अस्वाभाविकता भी बहुतों के लिए सहज स्वीकार्य हो गई, मानों मात्र वही संभव हो। ज्ञान का केंद्र पश्चिम हो गया और उसी का पोषण और परिवर्धन औपचारिक शिक्षा का ध्येय बन गया। इस कार्य के लिए अंग्रेजी भाषा को भी अबाध रूप से प्रश्रय दिया गया। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक आशय से बेखबर हम उसी मॉडल को आगे बढ़ाते गए और बिना जांचे-परखे भारतीय ज्ञान परम्परा को हाशिए पर धकेलते गए।

    भाषा, जो ज्ञान का प्रमुख माध्यम है, वह ज्ञान का पैमाना बन गया। शिक्षा में स्वराज्य एक स्वप्न बनता गया। अंग्रेजी उन्नति की सीढ़ी बन गई। जो अंग्रेजी जाने वही कुलीन, पंडित और योग्य करार दिया जाने लगा। सामाजिक भेदभाव और सामाजिक दूरी ही नहीं स्वास्थ्य, कानून और न्याय आदि से जुड़े नागरिक जीवन की सामान्य सहूलियतें भी इससे जुड़ गईं। बारह-पन्द्रह प्रतिशत लोगों की अंग्रेजी अस्सी प्रतिशत से अधिक भारतीय जनों की भाषाओं पर भारी पड़ रही है। इस बाध्यता के चलते पढ़ाई-लिखाई और अध्ययन-अनुसंधान परोपजीवी होता चला गया। मौलिकता और सृजनात्मकता की जगह अनुकरण, पुनरुत्पादन और पिष्ट-पेषण की जो प्रबल धारा प्रवाहित हुई उसने जिस घोर अन्धानुकरण को बढ़ावा दिया। उसने देश-काल और संस्कृति से काटने के साथ जिस दृष्टिकोण को स्थापित और संबर्धित किया उसके चलते हम बिना किसी द्वंद्व के उस यूरो-अमेरिकी नजरिए को सार्वभौमिक मान बैठे जो मूलतः सीमित, स्थानीय और एक ख़ास तरह का ‘देसी’ ही था परन्तु आर्थिक-राजनैतिक तंत्र की बीच पश्चिम से निर्यात किया गया। यह कितना अनुदार रहा यह इस बात से प्रमाणित होता है कि इसने भारतीय ज्ञान परम्परा को अप्रासंगिक और अप्रामाणिक ठहराते हुए प्रवेश ही नहीं दिया गया या फिर उसे पुरातात्विक अवशेष की तरह जगह दी गई। उसका ज्ञान सृजन के साथ कोई सक्रिय रिश्ता नहीं बन सका।

    मुश्किल यह भी हुई कि भारतीय ज्ञान धारा में भारत का जो थोड़ा बहुत प्रवेश हुआ भी वह उसका पाश्चात्य संस्करण था, जिसमें दुराग्रहपूर्ण और गलत व्याख्याएं भी शामिल थीं। दूसरी ओर भारतीय समाज को पश्चिमी सिद्धांतों की परीक्षा के लिए नमूना (सैम्पल) माना जाता रहा। इस पूरी प्रक्रिया में हमने गांधीजी की सीख भुला दी कि हमें अपनी जमीन पर अपने पाँव जमकर टिकाए रखना है। हाँ , खिड़कियाँ जरूर खुली रखनी हैं ताकि बाहर की बयार आती जाती रहे। हम यह भी भूल गए कि शिक्षा को समग्र व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा होना चाहिए ताकि हाथ, दिल और दिमाग सभी कार्यरत रहें। हमें मानव सेवा में ईश्वर सेवा का भाव भी नहीं रहा और न मनुष्य के रूप में जीने के लिए जरूरी आत्म नियंत्रण का भाव ही रहा।

    यह संतोष की बात है कि नई शिक्षा नीति गहनता से इन विसंगतियों से रूबरू होते हुए विषयगत, प्रक्रियागत और संरचनागत बदलाव की दिशा में अग्रसर हो रही है। बंधक पड़ी सरस्वती को भी छुड़ाना आवश्यक है। भारतीय ज्ञान परम्परा और संस्कृत समेत सभी भारतीय भाषाओं को बड़े लम्बे समय से पराभव में रखा जाता रहा है। आशा है नई शिक्षा नीति उनके साथ न्याय कर सकेगी।

    (लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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