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    क्यों भारत को ही मिले मौलाना कल्बे जैसे समझदार मुस्लिम धर्मगुरु

    November 27, 2020

    – आर.के. सिन्हा

    शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक जैसे शांत और समझदार सारे मुस्लिम धर्मगुरु हो जाएं तो इस्लाम की विश्व भर में बिगड़ती छवि अवश्य सुधर सकती है। मौलाना कल्बे सादिक के निधन से हमारे देश ने ही नहीं बल्कि विश्व ने एक उदारवादी मुस्लिम धर्मगुरु खो दिया। अगर मौलाना कल्बे सादिक की सलाह को मान लिया जाता तो राम जन्मभूमि विवाद का हल दशकों पूर्व ही सभी के लिये स्वीकार करने योग्य सम्मानजनक और शांतिपूर्ण ढंग से निकल सकता था। उन्होंने कहा था कि बाबरी मस्जिद पर फैसला अगर मुसलमानों के हक में हो तो उसे शांतिपूर्वक और सम्मानपूर्वक स्वीकार करें। जहां उन्होंने मुसमलानों से उनके पक्ष में या हिन्दुओं के पक्ष में आए फैसले को शांतिपूर्वक स्वीकार करने के लिए कहा था तो उन्होंने हिंदुओं को जन्मभूमि की जमीन देने की बात भी कही थी। मतलब यह कि उनका कहना था कि विवादित स्थान पर हिन्दू भी अपना राममंदिर बना लें, जिसे वे आस्थापूर्वक रामजन्म भूमि मानते आये हैं।

    सबका दिल जीता था

    कल्बे सादिक ने कहा था कि अगर फैसला मुसलमानों के हक में न हो तो भी वे खुशी-खुशी सारी जमीन हिंदुओं को दे दें। यह बात कहकर मौलाना साहब ने सबका दिल जीत लिया था। उन्होंने एक तरह से साबित कर दिया था कि भगवान श्रीराम न मात्र हिंदुओं के हैं और न मुसलमानों के, बल्कि वे भारत की आत्मा हैं। उनकी उदारवादी सोच के कारण ही उनसे कठमुल्ले नाराज रहते थे। देखा जाए तो कठमुल्लों ने मौलाना साहब से कुछ नहीं सीखा। अगर कुछ सीखा होता तो अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास होने के बाद असदुद्दीन ओवैसी तथा आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी नासमझी के कारण आगबबूला नहीं होते। आपको याद होगा कि राममंदिर का शिलान्यास होने के बाद ये नासमझ कठमुल्ले कह रहे थे कि भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ गई है। असदुद्दीन ओवैसी तथा आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिस बेशर्मी से राममंदिर के भूमि पूजन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ज़रिये उसकी आधारशिला रखे जाने पर अनाप-शनाप बोला था, उससे मौलाना साहब दुखी जरूर हुए होंगे। मौलाना साहब ने तो हिन्दू-मुसिलम एकता के लिए जीवन भर ईमानदारी से काम किया।

    मोदी मुसलमानों के लिये अछूत नहीं

    मौलाना सादिक़ साहब को कई बार सुना तो मैं उनके विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। वे जब थे, तो लगता था जैसे वे तकरीर नहीं आपस में बातचीत कर रहे हों, बातचीत भी इस अंदाज़ से कि हर सुनने वाले को लगता था कि वे उसी से बात कर रहे हैं। निहायत इत्मीनान और सभ्य अंदाज़ में मौलाना गुफ़्तुगू करते थे। उनकी बातों में इल्म, दूरअंदेशी और गहरा ज्ञान होता था। याद करें कि मौलाना कल्बे सादिक ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कहा था कि नरेंद्र मोदी मुसलमानों के लिये अछूत नहीं हैं।

    मौलाना कल्बे सादिक़ सच बोलने से कभी डरते नहीं थे। वे इस लिहाज से बहुत निर्भीक इंसान थे। वे कई बार ऐसी बातें भी बोल देते थे, जिन्हें ज्यादातर मुस्लिम समाज एकदम से पसंद नहीं करता था I लेकिन, वे कहते थे कि जो मैं कह रहा हूँ, सच्चाई यही है। उन्होंने साल 2016 में कहा था, “मुसलमानों को ख़ुद तो जीने का सलीका नहीं पता और वो युवाओं को धर्म का रास्ता दिखाते हैं। उन्हें पहले तो ख़ुद सुधरना होगा जिससे कि मुस्लिम युवा उनकी बताई राहों पर चलें। आज मुसलमानों को धर्म से ज़्यादा अच्छी शिक्षा की जरूरत है।”

    मौलाना कल्बे सादिक़ इस बात से बहुत चिंतित रहते थे कि मुसलमान धर्मगुरु समाज की शिक्षा को लेकर गंभीर नहीं हैं। मौलाना कल्बे सादिक देश के कथित नामवर मुस्लिम लेखकों, कलाकारों और बुद्धजीवियों में से नहीं थे जो मुस्लिम समाज की कमजोरियों के संवेदनशील सवालों पर चुप्पी साध लेते हैं। वे इन बुराईयों को उजागर करने के लिए खुलकर और जमकर स्टैंड लेते थे। मुस्लिम अदीबों के साथ भारी दिक्कत यह है कि वे अपने समाज के ही गुंडों से डरते हैं। वे कभी उनसे लड़ने के लिए सामने नहीं आते। न जाने क्यों इन दबंग मुसलमानों से इतना डरते हैं ये लोग। इसलिए ये कठमुल्ले पूरे समाज में इतना आतंक मचाते हैं। पर मौलाना कल्बे कठमुल्लों को सदा ललकारते थे। इसलिए बहुत से मुसलमान उनसे नाराज भी रहते थे। पर वे एक ऐसी कमाल की शख़्सियत थे जिन्होंने सभी उदारवादी भारतीयों के दिलों में जगह बनाई थी।

    वे भी पाकिस्तानी मूल के, अब कनाडा में रह रहे प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार तारेक फ़तेह की तरह “अल्ला के इस्लाम” के पक्ष में थे और “मुल्लों के इस्लाम” के सख्त खिलाफ थे जो कठमुल्लों द्वारा प्रचारित था जिसका कुरान शरीफ या हदीस में जिक्र तक नहीं। माफ करें मैं यहां पाकिस्तान के मौलाना सईद को भी लाना चाहता हूं। वह भी कहने को तो इस्लाम का विद्वान है। पर वह असलियत में मौत के सौदागर है। वह मुंबई में 26/11 को हुए भयानक हमले के षड्यंत्र को रचने वाला था। लश्कर-ए-तैयबा का कुख्यात मुखिया हाफिज सईद की मुंबई हमलों में भूमिका जगजहिर थी। वह अजमल कसाब से भी संपर्क बनाए हुआ था। अब आप खुद सोच लें कि मौलाना कल्बे और हाफिज सईद में कितना फर्क है। दुनिया को कल्बे जैसे मौलाना चाहिए न कि सईद जैसे। कल्बे सादिक को पूरा विश्व आपसी भाईचारे और मोहब्बत का पैगाम देने वाले शिया धर्मगुरु के रूप में याद रखेगा। उन्होंने समाज के उत्थान के लिये शिक्षा के महत्व पर सदैव बल दिया। यह मानना होगा कि लगभग सभी शिया मुसलमान शिक्षा के महत्व को समझते हैं। इसलिए शिया मुस्लमान जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रहे हैं। मौलाना कल्बे सादिक की शिक्षा लखनऊ में हुई थी। वे चाहते थे कि मुसलमान अपने बच्चों को मदरसों के स्थान पर सबके साथ सबके जैसी आधुनिक शिक्षा दिलवाएं। चूंकि अब मौलाना कल्बे नहीं रहे तो मुसलमानों को उनके बताए रास्ते पर चलने से ही भला होगा। उन्हें फालतू के बहकावों में पड़े बिना अपने बच्चों की शिक्षा पर फोकस करना होगा।

    मुसलमान देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग है, पर शिक्षा के मामले में सबसे खराब हालत इनकी है। वास्तव में हैरानी तब होती है कि भारत के मुसलमानों का एक बड़ा तबका मौलाना कल्बे के स्थान पर अपने को इस्लामिक विद्वान बताने वाले ढोंगी और खुराफाती जाकिर नाईक से ज्यादा प्रभावित दिखता है। अपने विवादास्पद बयानों से समाज को बांटने का कोई भी मौका न छोड़ने वाले नाईक ने कुछ समय पहले मलेशिया में कहा था कि पाकिस्तान सरकार को इस्लामाबाद में हिन्दू मंदिर निर्माण की इजाजत नहीं देनी चाहिए। अगर यह होता है तो यह गैर-इस्लामिक होगा। देखिए मौलाना कल्बे राममंदिर बनाने की हिमायत करते थे। जबकि नाईक पाकिस्तान में मंदिर के निर्माण का विरोध करता है। इसके बावजूद उसे चाहने वाले लाखों में रहे हैं।

    नाईक सारे वातावरण को विषाक्त करता है, कल्बे साहब समाज को जोड़ते थे। नाईक एक जहरीला शख्स है। उसके खून में ही हिन्दू-मुसलमानों के बीच खाई पैदा करना है। ज़ाकिर नाइक भारत से भागकर मलेशिया में बसा हुआ है। वहां रहकर नाईक भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और हिन्दू समाज की हर दिन मीन-मेख निकालता रहता है। नाईक ने मलेशिया के हिंदुओं को लेकर भी तमाम घटिया बातें कही हैं। एकबार तो उसने कहा था कि मलेशिया के हिन्दू मलेशियाई प्रधानमंत्री मोहम्मद महातिर से ज़्यादा मोदी के प्रति समर्पित हैं। उसे शायद यह नहीं पता था कि लगभग पूरा मलेशिया दक्षिण भारत के हिन्दू मछुआरों द्वारा ही बसाया गया है। वे बाद में लालच या सत्ता के दबाव में मुसलमान बनाये गये। अब आप समझ सकते हैं कि कितना नीच किस्म का इँसान है नाईक। जबकि मौलाना कल्बे कभी किसी की निंदा नहीं करते थे। सच में भारत ही नहीं पूरे विश्व को चाहिए दर्जनों कल्बे साहब जैसे मुस्लिम धर्मगुरु।

    (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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