– योगेश कुमार गोयल
पंच पर्व महोत्सव दीवाली के बाद प्रतिवर्ष प्रकृति की पूजा का महापर्व ‘छठ’ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 20 नवम्बर को मनाया जा रहा है। बुधवार से इस पूजा की शुरुआत हो चुकी है। सूर्य को एकमात्र ऐसा भगवान माना जाता है, जो वास्तव में हर किसी को दिखाई देते हैं और छठ पर्व पर सूर्य भगवान की ही पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाए जाने वाले इस चार दिवसीय उत्सव की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है और इस दौरान श्रद्धालु 36 घंटे का कठिन व्रत रखते हैं। छठ पूजा की शुरुआत चतुर्थी के दिन ‘नहाय खाय’ से होती है। अगले दिन ‘खरना’ होता है, तीसरे दिन छठ पर्व का प्रसाद तैयार किया जाता है और स्नान कर अस्त होते सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। सप्तमी को चौथे और अंतिम दिन उगते सूर्य की पूजा-आराधना के साथ इस महापर्व का समापन होता है। चूंकि सूर्योपासना का यह महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है, इसीलिए इसे छठ कहा जाता है। सही मायने में यह आस्था और निष्ठा का अनुपम लोकपर्व है।
उत्तर भारत और विशेषकर पर बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला सूर्योपासना का यह महापर्व सूर्य, उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा, प्रकृति, जल, वायु और सूर्य की बहन छठी मैया को समर्पित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठी माता को सूर्य देवता की बहन माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठी मैया संतानों की रक्षा करती हैं और उनको लंबी आयु प्रदान करती हैं। कहा जाता है कि छठ पर्व में सूर्य की उपासना करने से वह प्रसन्न होकर घर-परिवार में सुख-समृद्धि, रोगमुक्ति, सम्पन्नता और मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। उषा तथा प्रत्यूषा को सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत माना गया है, इसीलिए छठ पर्व में सूर्य तथा छठी मैया के साथ इन दोनों शक्तियों की भी आराधना की जाती है। प्रातःकाल सूर्य की पहली किरण (उषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्ध्य देकर दोनों को नमन किया जाता है। पुराणों में पष्ठी देवी का एक नाम कात्यायनी भी है, जिनकी पूजा नवरात्र में षष्ठी को होती है। षष्ठी देवी को ही छठ मैया कहा गया है, जो निःसंतानों को संतान देती हैं और संतानों की रक्षा कर उनको दीर्घायु बनाती हैं।
छठ पर्व के प्रसाद में प्रायः ठेकुआ और चावल के लड्डू बनाए जाते हैं। बांस की टोकरी में प्रसाद तथा अनेक प्रकार के मौसमी फल सजाकर इस टोकरी की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाली महिलाएं सूर्य को अर्ध्य देने तथा पूजा के लिए तालाब, नदी अथवा घाट पर जाकर स्नान कर डूबते सूर्य की पूजा करती हैं और अगले दिन सूर्योदय के समय सूर्य को अर्ध्य देकर पूजा करने के पश्चात् प्रसाद बांटकर छठ पूजा का समापन होता है। पर्यावरणविदों के अनुसार यह पर्व सबसे ज्यादा पर्यावरण अनुकूल हिन्दू त्यौहार है, जो नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने का प्रेरणा देता है। छठ पूजा के अवसर पर नदियों, तालाबों तथा अन्य जलाशयों के किनारे पूजा की जाती है, जिससे लोगों को ऐसे जलस्रोतों के आसपास साफ-सफाई रखने की प्रेरणा मिलती है। दरअसल धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठ पूजा साफ-सुथरी नदी, तालाबों या अन्य जलस्रोतों के किनारे ही की जाती है, इसीलिए पूजा से पहले इन जलस्रोतों के आसपास पूरी साफ-सफाई करने का विधान है।
छठ व्रत के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ऐसी ही एक कथानुसार प्राचीन काल में प्रियव्रत नामक एक राजा थे, जिनकी कोई संतान नहीं थी। इससे वे बेहद दुखी और चिंतित रहा करते थे। एक दिन राजा की महर्षि कश्यप से भेंट होने पर उन्होंने अपना दुख महर्षि कश्यप के समक्ष व्यक्त किया। महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए उन्हें यज्ञ करने को कहा। राजा ने यज्ञ कराया, जिसके बाद महारानी मालिनी ने एक पुत्र को तो जन्म दिया लेकिन शिशु मृत ही पैदा हुआ। दुखी राजा ने मृत शिशु को श्मशान ले जाकर पुत्र वियोग में अपने प्राण त्यागने का भी निश्चय किया। तभी ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना ने प्रकट होकर राजा से कहा कि हे राजन्! मैं सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण षष्ठी कहलाती हूं, आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी मेरी पूजा के लिए प्रेरित करें। राजा ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। मान्यता है कि उसी के बाद छठ पूजा की परम्परा शुरू हुई।
इस पर्व की शुरुआत को लेकर कुछ मान्यताएं महाभारत काल से भी जुड़ी हैं। पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी आयु के लिए नियमित रूप से सूर्य की पूजा करने का उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार पाण्डव जब अपना सारा राजपाट जुए में हार गए थे, तब श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार द्रौपदी ने छठ व्रत रखा और छठी मैया के आशीर्वाद से उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होने पर पाण्डवों को राजपाट वापस मिला। सूर्यपुत्र कर्ण तो भगवान सूर्य के परम भक्त थे, जो प्रतिदिन घंटों तक कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्ध्य दिया करते थे। सूर्यदेव की कृपा से ही वे महान् योद्धा बने थे। माना जाता है कि सर्वप्रथम महाबली कर्ण ने ही सूर्यदेव की पूजा शुरू की थी और आज भी छठ पर्व में सूर्य को अर्ध्य देने का विशेष महत्व है।
एक मान्यता यह भी है कि देवमाता अदिति ने प्रथम देवासुर संग्राम में असुरों से देवताओं के हार जाने पर तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। छठी मैया ने उनकी आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें सर्वगुण सम्पन्न तेजस्वी पुत्र को जन्म देने का वरदान दिया, जिसके बाद अदिति ने त्रिदेव रूप आदित्य भगवान को जन्म दिया, जिन्होंने देवताओं को असुरों पर विजय दिलाई। कहा जाता है कि तभी से छठ पर्व मनाए जाने का चलन शुरू हो गया। ऐसी मान्यता है कि लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्यदेव ने ही की थी। सूर्य को ज्योतिष विधा में सभी ग्रहों का अधिपति माना गया है। इसीलिए मान्यता है कि यदि समस्त ग्रहों को प्रसन्न करने के बजाय केवल सूर्यदेव की ही आराधना की जाए तो कई लाभ मिल सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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