इंदौर। जिला प्रशासन ने प्रशासनिक कार्यों की दलाली करने वाले लोगों के ठिकानों पर छापा मारकर उनकी गतिविधियों को तो आपराधिक घोषित करते हुए न केवल प्रतिबंध लगा दिया, बल्कि उनके कामकाज को भी ठिकाने लगा दिया। लेकिन हकीकत यह है कि ये दलाल उन भूखे भ्रष्ट अधिकारियों का पेट भरने का माध्यम थे, जो बिना पैसे लिए कागज तक इधर से उधर नहीं करते। इंदौर के जिला प्रशासन का एक भी विभाग ऐसा नहीं है, जहां बिना पैसों के कोई कामकाज हो पाता हो। यहां तक कि इस कार्रवाई को अंजाम देने वाले मुखिया कलेक्टर की नाक के नीचे मौजूद तहसील कार्यालयों में नामांतरण, बटांकन, सीमांकन जैसे छोटे-छोटे कामों के लिए जहां हजारों से लेकर लाखों रुपए तक की रिश्वत मांगी जाती है, वहीं एनओसी के लिए आम आदमी के चप्पल-जूते तक घिस जाते हैं। दलालों का सफाया करने वाले कलेक्टर यदि आम आदमी को हलाल करने वाले अधिकारियों और बाबुओं पर नकेल डालते तो शायद ये दलाल पनपते ही नहीं, लेकिन अब इन दलालों के सफाए के बाद कलेक्टर ने अपना घर सुधारने की भी कोशिशें शुरू करते हुए कल ही तहसीलदार राजेश सोनी के दफ्तर पर छापा मारा।
जिला प्रशासन ने तहसील कार्यालय से लेकर टाउन एंड कंट्री प्लानिंग और इंदौर विकास प्राधिकरण के लिए लाइजनिंग का काम करने वाले शुभम जैन और बनवारी नामक व्यक्ति के ठिकानों पर छापा मारकर उनका कामकाज तो बंद करा दिया, लेकिन हकीकत यह है कि इन तीनों ही कार्यालयों में बिना पैसे दिए धेले का काम नहीं होता। शहर में रियल एस्टेट के काम के लिए इन तीनों ही विभागों के सामंजस्य की आवश्यकता होती है और यदि एक भी विभाग का कोई व्यक्ति काम में अड़ंगा डाल दे तो रियल एस्टेट के कारोबारियों को करोड़ों के ब्याज का नुकसान होता रहता है। ऐसे में वो इन दलालों के माध्यम से अपने काम कराने के लिए कुछ भी पैसा देने से पीछे नहीं हटते। चुनौती तो यह है कि कलेक्टर खुद अपने विभाग को सुधारने से शुरुआत करे और अन्य विभागों की भी जांच-पड़ताल करें।
इन-इन कामों के लिए दलालों की जरुरत
रियल एस्टेट कारोबारियों को नक्शा पास कराने से लेकर फाइल तैयार करने तक के लिए इन दलालों की आवश्यकता पड़ती थी। इनमें मुख्य किरदार जिला प्रशासन का रहता है। टाउन एंड कंट्री प्लानिंग से नक्शा पास कराने के लिए जिला प्रशासन के तहसील कार्यालय से नामांकन, बटांकन, एनओसी से लेकर विकास अनुमति तक की जरूरत पड़ती है। और दावा यह है कि बिना पैसे के यह काम जिला प्रशासन के मुखिया तक नहीं कर सकते।
स्वामित्व के दस्तावेज
राजस्व अभिलेखों में दर्ज स्वामित्व के दस्तावेज, यानी बी-1, बी-2 तक के लिए किसानों को धक्के खाना पड़ते हैं। नियम तो यह है कि आवेदन के बाद कम्प्यूटर से दस्तावेज मिल जाना चाहिए, लेकिन कम्प्यूटर पर बैठा व्यक्ति बिना पैसे के काम नहीं करता है।
नक्शा और सीमांकन
भूमि का ट्रेस मैप वैसे तो कम्प्यूटर से मिलता है, लेकिन इसे प्राप्त करना भी आसान नहीं होता। यदि नक्शा प्राप्त हो भी जाए तो सबसे बड़ा अड़ंगा सीमांकन को लेकर होता है। सीमांकन के आवेदन के बावजूद पटवारी और राजस्व निरीक्षक धक्के खिलाते हैं। जब तक सीमांकन नहीं होता टाउन एंड कंट्री प्लानिंग में आवेदन नहीं किया जा सकता।
तहसील में हजारों आवेदन सड़ रहे हैं सीमांकन के
यहां से शुरू होता है रिश्वत का बोलबाला… पटवारी और राजस्व निरीक्षक सीमांकन के लिए हजारों से लेकर लाखों तक की डिमांड करते हैं, क्योंकि कई जगह मौके पर जमीन कम होती है तो कई जगह ज्यादा। नक्शे के अनुसार आकार घटाने-बढ़ाने के लिए लाखों रुपए पटवारी, राजस्व निरीक्षक द्वारा वसूल किए जाते हैं। इस सीमांकन के बाद फील्ड बुक पर हस्ताक्षर के लिए तब दस्तावेज तहसीलदार के पास पहुंचता है तो वह अपना हिस्सा नहीं मिलने पर महीनों लोगों को धक्के खिलाता है। दलाल इन तीनों लोगों का सामंजस्य कर फील्ड बुक (सीमांकन पुस्तिका) दिलाने में मदद करते हैं।
डायवर्शन, विकास अनुमति के लिए लाखों की रिश्वत
कालोनाइजर के लिए सारे काम के उपरांत डायवर्शन और विकास अनुमति के लिए लाखों की रिश्वत ली जाती है और ये रिश्वत भी बड़ी जमीनों के लिए हेक्टेयर के मान से तो छोटी जमीनों के लिए एकड़ के मान से तय होती है।
हर काम का दाम तय… रिश्वत के बाद ही चलती है फाइल
जिला प्रशासन के विभागों की दलाली करने वाले इन लोगों द्वारा हर काम की फीस तय कर रखी थी। इन दलालों से शहर के कई अधिकारियों के व्यक्तिगत संपर्क रहे। फाइल तैयार करने के तुरंत बाद अधिकारियों से संपर्क कर उनकी फीस का भुगतान कर दिया जाता था, तब जाकर फाइल के पैर लगते थे… इससे पहले फाइल तैयार करने के लिए विभिन्न विभागों के दस्तावेज, एनओसी आदि प्राप्त करने के लिए भी तहसील कार्यालय के बाबुओं को तयशुदा रकम दी जाती थी। पैसा मिलते ही अधिकारी, बाबू, कर्मचारी तत्काल सारे काम कर डालते थे।
तहसील कार्यालय के बाद नगर एंव ग्राम निवेश में तगड़ी वसूली
तहसील कार्यालय की उलझनों से व्यक्ति निकल भी जाए तो असली वसूली टाउन एंड कंट्री प्लानिंग में होती है। यहां जमीन की स्थिति जानने के लिए नियुक्त क्षेत्रीय अधिकारी स्पाट पर जाने के बाद अप्रोच रोड से लेकर उनकी चौड़ाई सहित तमाम तरह की विसंगतियां निकालते हैं। उनका पेट भरना आम आदमी के बस की बात नहीं होती और उसके लिए दलाल सक्रिय भूमिका निभाते हैं। उसके बाद बात नक्शे पर आती है। नक्शे पर कई तरह की कनेक्टिविटी रोड की डिमांड की जाती है। प्लाटों की साइज को लेकर तकरार होती है। बगीचे के क्षेत्र से लेकर सड़कों की चौड़ाई पर बहस की जाती है। इस विभाग के अधिकारी इतने क्रूर होते हैं कि फाइल का वजन बिना पैसे के हिलता नहीं है और जैसे ही पैसा मिल जाए उनका दिमाग रास्ते निकालने में जुट जाता है और फाइल परिणाम तक पहुंच पाती है।
बंटवारे को लेकर हुआ
झगड़ा, इसलिए कलेक्टर तक पहुंची शिकायत
दलालों और लाइजनिंग करने वाले लोगों की सेवाएं आज नहीं, बल्कि बरसों से चली आ रही हैं। अधिकारी खुद कभी किसी व्यक्ति से पैसे की डिमांड नहीं करते। उन्हें भी माध्यम की आवश्यकता होती है। ऐसे में यह दलाल उनके लिए बड़े मददगार साबित होते हैं। हर अधिकारी ने अपने पसंद के दलाल चुन रखे हैं। समस्या तब होती है, जब काम कराने वाला व्यक्ति उस दलाल तक पहुंच नहीं पाता है, जिससे अधिकारी की सेटिंग नहीं होती है। ऐसे में उस अधिकारी को अपने निचले स्तर के कर्मचारी या बाबू के भरोसे रहना पड़ता था। इस बिगड़ते तालमेल के कारण अधिकारियों को यह शिकायत मिल रही थी कि उनके नाम पर वसूली तो तगड़ी हो रही है, लेकिन उन तक पैसा नहीं पहुंच रहा है। इसलिए कुछ अधिकारियों ने कलेक्टर को शिकायत कर इन दलालों पर बंदिश लगाने की पहल की, ताकि लोग रिश्वत के लिए सीधे आकर उनसे संपर्क कर सकें।
एनओसी के लिए सबसे तगड़ी डिमांड
सीमांकन, बटांकन के बाद सबसे तगड़ी वसूली एनओसी के लिए की जाती है। जिला प्रशासन ने नियम बना रखा है कि कृषि भूमि का स्वामित्व यदि वर्तमान अभिलेखों में किसान का हो भी तो उसके बंदोबस्त रिकार्ड, यानी वर्ष 1925 से लेकर आवेदन वर्ष तक का राजस्व रिकार्ड देखकर यह एनओसी दी जाए कि उक्त भूमि पर कभी शासन का नाम तो दर्ज नहीं रहा। जबकि हकीकत यह है कि प्रशासन को 1959 के पूर्व का स्वामित्व देखने का अधिकार ही नहीं है, क्योंकि भू-राजस्व संहिता के अनुसार वर्ष 1959 में यदि किसी व्यक्ति का नाम राजस्व अभिलेखों में भूस्वामी के तौर पर दर्ज है तो उसे स्वामित्व का दर्ज हासिल होता है। इसके पहले भले ही उक्त भूमि शासन के नाम पर दर्ज हो, लेकिन राज्य शासन और जिला प्रशासन द्वारा उक्त नियम बना दिए जाने के बाद 1959 के पूर्व के रिकार्ड में यदि कहीं शासन से लेकर चरनोई का भी उल्लेख हो तो एनओसी नहीं दी जाती। जबकि शासन और प्रशासन की मंशा रही है कि एनओसी देते वक्त संबंधित अधिकारी फाइल पर इस बात का उल्लेख करें कि 1959 के पहले जमीन की स्थिति क्या रही है और स्वामित्व के तौर पर किसान का नाम कब से दाखिल है, लेकिन बाबू और अधिकारी किसानों को शासकीय जमीन का डर बताकर एनओसी नहीं देते हैं और लाखों रुपए की रिश्वत छीनी जाती है।
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