हरिद्वार । कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवउठनी एकादशी व देव दीपावली भी कहा जाता है। इस वर्ष देवोत्थान एकादशी का व्रत 25 नवम्बर को किया जाएगा। देवोत्थान एकादशी के साथ चार माह से चली आ रही भगवान शिव के हाथों सृष्टि के संचालन की सत्ता पुनः भगवान विष्णु के पास चली जाएगी। इसी के साथ चार माह से चल रहे संन्यासियों का चातुर्मास भी समाप्त हो जाएगा।
पं. देवेन्द्र शुक्ल शास्त्री के मुताबिक इस दिन भगवान विष्णु चार माह की निद्रा के पश्चात जागते हैं। इसलिए इसे देवोत्थान या देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन शालीग्राम और तुलसी विवाह का विधान भी है। उन्होंने बताया कि तुलसी भगवान विष्णु की प्रिया हैं। इसलिए जब भगवान विष्णु निद्रा से जागते हैं, तो सबसे पहले तुलसी की प्रार्थना सुनते हैं, इसलिए तुलसी विवाह इस दिन किया जाता है।
पौराणिक कथा और हिन्दू पुराणों के अनुसार तुलसी एक राक्षस की कन्या थीं। जिनका नाम वृंदा था। राक्षस कुल में जन्म लेने के बाद भी वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त थीं। जब वृंदा बड़ी हुईं तो उनका विवाह जलंधर नामक पराक्रमी असुर के साथ हुआ। वृंदा के पतिव्रता व्रत के कारण उनका पति जलंधर अजेय हो गया, जिसके कारण जलंधर को अपनी शक्तियों पर अभिमान हो गया। उसने स्वर्ग पर आक्रमण कर देव कन्याओं को अपने अधिकार में ले लिया। सभी देव भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में गए और जलंधर के आतंक का अंत करने की प्रार्थना करने की परंतु वृंदा के सतीत्व के कारण जलंधर का अंत होना लगभग अंसभव था।
वृंदा का सतीत्व भंग करने के लिए भगवान विष्णु जलंधर का रूप धारण करके वृंदा के समक्ष गए। वृंदा विष्णु जी को अपना पति समझकर पूजा से उठ गई, जिससे उनका पतिव्रत धर्म टूट गया। वृंदा का पतिव्रत धर्म टूटने से जलंधर की शक्तियां कम हो गईं और उसका संहार हो गया। जब वृंदा को श्रीहरि के छल के बारे में ज्ञात हुआ उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि मैंने आजीवन आपकी आराधना की, आपने मेरे साथ ऐसा कृत्य क्यों किया? भगवान विष्णु से कहा कि आपने मेरे साथ एक पाषाण की तरह व्यवहार किया मैं आपको शाप देती हूँ कि आप पाषाण बन जाएं। उनके शाप के कारण भगवान विष्णु पत्थर बन गए। विष्णु जी के पाषाण बन जाने के कारण सृष्टि का संतुलन बिगड़ने लगा। सभी देवताओं ने वृंदा से याचना की कि वे अपना शाप वापस ले लें। वृंदा ने देवों की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने शाप को वापस ले लिया, परंतु भगवान विष्णु वृंदा के साथ हुए छल के कारण लज्जित थे। वृंदा के शाप को स्वीकार करते हुए उन्होंने अपना एक रूप पत्थर में प्रविष्ट किया, जिसे सभी शालिग्राम के नाम से जानते हैं।
भगवान विष्णु को श्राप मुक्त करने के पश्चात वृंदा जलंधर के साथ सती हो गईं। वृंदा की राख से एक पौधा उत्पन्न हुआ। उस पौधे को श्रीहरि विष्णु ने तुलसी नाम दिया और वरदान दिया कि तुलसी के बिना मैं किसी भी प्रसाद को ग्रहण नहीं करूंगा। भगवान विष्णु ने कहा कि कालांतर में शालिग्राम रूप से तुलसी का विवाह होगा।
देवताओं ने वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाए रखने के लिए भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराया। इसलिए हर वर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम के साथ कराया जाता है।
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