– हृदयनारायण दीक्षित
कला अश्लील नहीं हो सकती। सभी कलाएँ समाज में उदात्त भाव विकसित करने का संधान हैं। यूनानी दार्शनिकों ने कला को प्रकृति की अनुकृति बताया है। कलाकार प्रकृति के रूपों को देखकर नया संसार रचता है। भारतीय चिंतन में शिल्प को परम चैतन्य का प्रतिरूप बताया है-यो वै रूपम् तत् शिल्पम्। भारत का प्राचीन साहित्य सत्, चित्-आनंद की अभिव्यक्ति है। गीत-काव्य सहित सभी कलाएँ सौन्दर्यबोध का परिणाम हैं। यह सौन्दर्य प्रकृति-परम के रूप-रूप प्रतिरूप की अभिव्यक्ति है। ऋग्वेद में कहते हैं ‘‘इन्द्र ही सभी भुवनों में प्रविष्ट है। यही रूप-रूप प्रतिरूप प्रकट हो रहा है- रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूवः।‘‘
हम सबका संसार-बोध संवेदनों को जन्म देता है। संवेदन भाव जगाते हैं। भाषा संवेदन का मूर्त नहीं व्यक्त कर सकती। यह भाव को विचार रूप में प्रकट कर सकती है। शुद्ध भाव में नहीं। चित्रकला गतिशील को स्थिर रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन नाटक और सिनेमा की कला गतिशील होती है। सिनेमा गतिशील चित्रकला है। कला मनोरंजन भी करती है। समाज का मनोरंजन करना भी कला का एक उद्देश्य है। भारत के राष्ट्र जीवन में कला संस्कार भी देती रही है। सिनेमा भारतीय कला का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम है। सिनेमा के तमाम हिस्सों में व्यापक हिंसा होती है। कभी-कभी द्विअर्थी संवाद भी होते हैं। यह अश्लीलता की सीमा लाँघते हैं। बलात्कार के वीभत्स दृश्य भी होते हैं। नग्नता होती है। सिनेमा के निर्माता और निर्देशक कहानी की माँग बताकर अश्लीलता की पैरोकारी करते हैं। संस्कारवान समाज अश्लीलता पर क्षुब्ध होते हैं।
कोरोना महामारी (2020) के दौरान मुख्यधारा के सिनेमा के प्रदर्शन दीर्घकाल तक बाधित रहे। बाजार और तकनीक ने इस अवसर का लाभ उठाया। वेब-सिरीज चलाने का अभियान चलाया। वेब-सिरीज में गालियों की बौछार दिखायी पड़ी। यह भारतीय संस्कृति के प्रति जघन्य अपराध है। किसी समाज की कला, रुचि साल-दो साल का परिणाम नहीं होती है। रुचि को सुरुचि बनाने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं। कलाएँ आनन्दवर्धक होती हैं। आनन्द की सृष्टि करना कला का कर्तव्य है। गालियाँ सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हैं। भारतीय दण्ड विधान में वह अपराध हैं। वेब-सिरीज में गालियों की बौछार है। गालियों के संवाद देकर वह समाज की रुचि विकृत कर रहे हैं। कोई कह सकता है कि वेब-सिरीज की लघु फिल्मों में परोसी गयी गालियाँ भी दर्शकों का मनोरंजन करती हैं। ऐसा कहना सही नहीं है। यह समाज की रुचि को बदलने का अपराध है। कला-कर्मियों का कर्तव्य है कि वह समाज की रुचि को सुरुचि में बदलने का काम भी करें। सामाजिक सुरुचि का संवर्धन कला का मुख्य दायित्व है।
अर्थशास्त्र में माँग और पूर्ति का सिद्धान्त है। किसी वस्तु, पदार्थ या सेवा की माँग जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, उस पदार्थ, वस्तु या सेवा के आपूर्तिकर्ता वैसी ही आपूर्ति बढ़ाते जाते हैं, लेकिन संस्कृति और संस्कार के क्षेत्र में माँग और पूर्ति का यह साधारण सिद्धान्त लागू नहीं है। उदारीकृत अर्थव्यवस्था में चालाक आपूर्तिकर्ता-पूँजीपति विज्ञापन के द्वारा समाज में वस्तु, पदार्थ या सेवा की कृत्रिम माँग पैदा करता है। गाली समाज की माँग नहीं है। इसलिए गाली की आपूर्ति का कोई प्रश्न नहीं होता, लेकिन ऐसे सिने-निर्माता जबदस्ती गाली वाले संवाद ठूसते हैं। वे आमजनों के मन में गाली वाले संवाद सुनने की रुचि पैदा करते हैं। पूर्ति के माध्यम से कृत्रिम माँग बढ़ाने का कौशल प्रदर्शित करते हैं।
कला कौशल नहीं होती। सत्य, शिव और सुन्दर ही कला का अधिष्ठान है। इस त्रयी में तीनों महत्वपूर्ण हैं। सत्य ही पर्याप्त नहीं है। उसे शिव भी होना चाहिए। समाज के अल्प अंश में गालियों का चस्का होता है। यह सत्य है। लेकिन सभ्य समाज में गालियों का व्यवहार नहीं होता। इस सत्य के साथ शिव-संवाद भी प्रेमपूर्ण होना चाहिए। दुःख, शोक और क्रोध के समय भी वाणी की मर्यादा बनी रहनी चाहिए। यह समाज का शिव तत्व है। इसी तरह सत्य और शिव के साथ सौन्दर्यबोध भी जरूरी है और सौन्दर्य अश्लील नहीं होता। सौन्दर्य रूप आधारित होता है। उसका सम्बन्ध आँख से है। प्रकृति के रूप आँखों के रास्ते चित्त की गहराइयों में जाते हैं। इससे भाव-जगत में संवेदन पैदा होते हैं। रुचि के अनुसार ऐसे संवेदन सुन्दर या असुंदर प्रतीत होते हैं। कला प्रकृति के रूपों के सौन्दर्य का चित्रण करती हैं और आनन्द में वृद्धि करती हैं। सुनने की इन्द्रिय कान हैं। गालियाँ भी वाक्य होती हैं। वे कान के रास्ते चित्त में प्रवेश करती हैं। पूर्वजों ने इन्हें अपशब्द कहा है। समाज में गालियों के सम्बन्ध में सुविचारित व सुनिश्चित धारणा है। यह धारणा सामाजिक संस्कार के साथ सीधे भाषा में चली आयी है। इसी धारणा के अनुसार गाली का शिकार व्यक्ति आहत होता है, अपमानित होता है, उत्पप्त होता है, दुःखी होता है। यह हमारे समाज और संस्कृति का स्वीकृत भाग नहीं है। कला किसी रूप, गति के सापेक्ष समय-बोधक भी है। ऋग्वेद में प्रयुक्त कला शब्द के आधार पर वैदिक इंडेक्स में कला को रूप का 16वाँ भाग कहा गया है। श्रीकृष्ण में 16 कलाएँ कही गई हैं।
कला में यथार्थ का चित्रण बेशक अनिवार्य है, लेकिन इसके चित्रण-रूपान्तरण में लोक-कल्याण का उद्देश्य भी होना चाहिए। कलाएँ आदर्शोन्मुख समाज का निर्माण भी करती हैं। वैदिक साहित्य में विस्मयकारी सौन्दर्यबोध है। ऋग्वेद में उषा को अप्रतिम सौन्दर्य वाली ’पुराणी युवती’ कहा गया है। यहाँ युवती के पहले पुराणी शब्द का प्रयोग ध्यान देने योग्य है। उषा प्रतिदिन प्रातःकाल उगती है। इसलिए पुराणी है, प्राचीन है। वह उगने के समय नई हैं, इसलिए युवती हैं। इसी मंत्र में ऋषि मर्यादा के बन्धन भी लगाते हैं। कहते हैं कि ‘‘उषा के वास्तविक रूप को केवल पति ही देख पाते हैं। शेष लोग केवल वस्त्र ही देखते हैं।‘‘ मर्यादा कला का मुख्य नीति-निर्देशक तत्व है। भारतीय कला मर्यादा, संस्कार और शील की परिधि के भीतर ही अपनी प्रतिष्ठा को सँवारती रही है। लेकिन सिनेमाई आधुनिकता ने मर्यादा के बंधन तोड़े हैं। इसका सबसे पहला हमला नारी समुदाय पर हुआ है। गालियाँ नारी समाज की प्रतिष्ठा पर ही आक्रमण करती हैं। किसी पुरुष को दी गयी गाली भी उस पुरुष के लिए न होकर उसकी बहन या माता के लिए होती है। झगड़ा पुरुषों में होता है। गाली माँ या बहन को दी जाती है। गालियाँ आदर्श समाज का हिस्सा नहीं हो सकतीं। यह सामाजिक अपराध है। गालियाँ भारतीय प्राचीन परम्परा का हिस्सा नहीं हैं। हमारे दो महाकाव्य महाभारत और रामायण हैं। दोनों युद्ध-विवरण से भरे-पूरे हैं। रामायण के श्रीराम कैकेयी के षड्यंत्र से वन-गमन के लिए विवश किये गये। श्रीराम कैकेयी पर कोप नहीं करते। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लेकिन लक्ष्मण कोप करते हैं। वाल्मीकि के सृजन में कुपित लक्ष्मण भी कैकेयी के विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग नहीं करते। महाभारत भी युद्ध-कथा है यहाँ भी पात्र अपने क्रोध के कारण गालियाँ नहीं देते।
हमारे सिनेमा के एक वर्ग व वेब-सिरीज में गाली और गोली को ही क्रोध अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जा रहा है। सिनेमा सबसे लोकप्रिय कला का माध्यम है। उसी का विस्तार वेब-सिरीज है। मुख्यधारा के सिनेमा में अभी गालियों का प्रवेश नहीं हुआ है। गोलियाँ सिनेमा के शुरुआती समय से ही सिनेमा का प्रिय विषय हैं। आखिरकार यह कैसा मनोरंजन है? जो गाली और गोली को ही मुख्यधारा मानकर कला का सृजन करता है। दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति वाले देश भारत की कला-यात्रा उदात्त मार्ग छोड़कर गाली और गोली की तरफ बढ़ रही है। यह राष्ट्र के लिए चिन्ता का विषय है। प्रतिष्ठित निर्माता, निर्देशक, गीतकार और रचनाधर्मी इस पथ-विचलन का संज्ञान लेने की कृपा करें। रुचि का परिष्कार भी कलाधर्मियों का ही राष्ट्रीय कर्तव्य है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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