– हृदयनारायण दीक्षित
भारतीय राजनीति लोकमंगल का उपकरण है। सभी दल अपनी विचारधारा को देशहित का साधन बताते हैं। विचार आधारित राजनीति मतदाता के लिए सुविधाजनक होती है। भिन्न-भिन्न दल अपनी विचारधारा के आधार पर कार्यकर्ता गढ़ते हैं और कार्यकर्ताओं के माध्यम से लोकमत बनाते हैं। यह एक आदर्श स्थिति है लेकिन भारतीय राजनीति में मार्क्सवादी दल व राष्ट्रवादी भाजपा ही कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करते हैं। वे विचार आधारित लोकमत बनाने का काम करते हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस स्वतंत्रता पूर्व विचार आधारित कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर चलाती थी। राष्ट्रवाद उसका विचार था। बहुत पहले समाजवादी दल भी विचार आधारित प्रशिक्षण देते थे। धीरे-धीरे विचार आधारित राजनीति घटी। जाति, पंथ और मजहब राजनीति के उपकरण बने। अब मार्क्सवादी और भाजपा ही अपने कार्यकर्ताओं को विचार आधारित प्रशिक्षण देने वाली पार्टियाँ बची हैं। सामान्य बोलचाल में भारतीय जनता पार्टी को दक्षिणपंथी व मार्क्सवादी समूहों को वामपंथी कहा जाता है। लेकिन वामपंथ और दक्षिणपंथ सुविचारित और व्यवस्थित विभाजन नहीं है।
दक्षिणपंथ और वामपंथ दलअसल एक सांयोगिक घटना का परिणाम है। सन् 1797 में फ्रांस की क्रांति के समय नेशनल असेम्बली दो भागों में बंट गयी थी। सम्राट लुई-16 ने बैठक बुलाई। फ्रांसीसी संसद में परम्परागत राजव्यवस्था को हटाकर लोकतंत्र लाने वाले व रूढ़ियों को न मानने वाले बांई तरफ बैठे थे। परम्परा और रूढ़ि के आग्रही दाये बैठे। यह सुविचारित और व्यवस्थित विभाजन नहीं था।
मोटे तौर पर वामपंथ का विकास कार्ल मार्क्स के व्यवस्थित विचार से हुआ था। माना जाता है कि यह राजशाही और पूँजीवादी तंत्र के शासन के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक विचारधारा है। इस विचारधारा में सामाजिक वर्गों की कल्पना की गयी है। वर्ग संघर्ष को विकास का आधार बताया गया है। सर्वहारा की तानाशाही मार्क्सवाद की दृष्टि में आदर्श राजव्यवस्था है। ऐसी समाज व्यवस्था के लिए हिंसा को भी उचित ठहराया गया है। वे लोकतंत्र नहीं मानते। भारत के माओवादी रक्तपात करते हैं। 20वीं सदी में चीन में माउत्से तुंग ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा था। रूस में लेनिन और जोसेफ स्टालिन ने भी वामपंथ के आधार पर भारी नरसंहार किये थे। यह फ्रांस की राजक्रांति के बाद की बात है।
वामपंथ दक्षिणपंथ की कोई सुव्यवस्थित परिभाषा नहीं है। माना जाता है कि दक्षिणपंथी समाज की ऐतिहासिकता भाषा परम्परा और सांस्कृतिक विशिष्टता के आधार पर आदर्श समाज गढ़ने का प्रयास करते हैं। ऐसे समाज में वर्गीकरण या श्रेणीकरण नहीं होता। वामपंथी शोषण मुक्त समाज का दावा करते हैं।
फ्रांस की राजक्रांति के समय की परिभाषा आधुनिक राजनीति में लागू नहीं होती। इस परिभाषा के अधीन भारत की कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियाॅं दक्षिणपंथी कही जाती हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों के शासन में गरीबों के कल्याण की तमाम योजनाएँ चलती रही। स्वयं पंडित जवाहर लाल नेहरू वामपंथी रुझान के वरिष्ठ नेता थे। श्रीमती इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। क्या कांग्रेस को दक्षिणपंथी कहा जा सकता था। वह वामपंथी इसलिए नहीं है कि उसका चरित्र स्वाधीनता संग्राम के समय से ही राष्ट्रवादी है।
भारतीय जनता पार्टी घोषित राष्ट्रवादी है। समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान और विकास के लिए संकल्पबद्ध है। गरीब महिलाओं को निःशुल्क गैस कनेक्शन देना और बिजली कनेक्शन भी पहुंचाना दक्षिणपंथी कैसे हो सकता है? गरीबों के समर्थन में किये जा रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्य राष्ट्र सर्वपारिता से जुडे़ हैं। इनमें गरीब कल्याण की भी सर्वोपारिता है। क्या इन्हें वामपंथी कहा जा सकता है? दक्षिणपंथ और वामपंथ का विभाजन ही अपने आप में गलत है।
इंग्लैण्ड में लेबर पार्टी व कन्जरवेटिव पार्टी प्रमुख दल है। लेबर को वामपंथी और कन्जरवेटिव पार्टी को दक्षिणपंथी कहा जाता है लेकिन दोनों पार्टियाॅं अपने काम में अपने-अपने ढंग से गरीब समर्थक हैं। परिवर्तनवादी भी हैं। केवल परिवर्तनवादी विचार ही वामपंथ नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। समाज व्यवस्थाएं आदर्श नहीं होती। इसी तरह राजव्यवस्था या राजनैतिक विचारधाराएं भी आदर्श नहीं होती। समाज, राजनीति और राजव्यवस्थाओं में संशोधन की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। सोद्देश्य परिवर्तन सबकी इच्छा होती है। दुनिया की सभी सरकारें सोद्देश्य परिवर्तन के लिए प्रयास करती हैं। जड़ता पंथ-मजहब आधारित राजनीति में है। वह अपने प्रत्येक कर्म, विचार व ध्येय को मध्यकालीन पंथिक आग्रहों से जोड़ती है। वह आधुनिकता की भी विरोधी है। उनकी राजनीति के कारण सारी दुनिया में रक्तपात है। उनके संगठन सामाजिक परिवर्तन का उद्देश्य नहीं मानते। वे मध्यकाल की वापसी चाहते हैं। वे मजहबी धारणाओं के अलावा कोई भी विचार स्वीकार नहीं करते। युद्ध करते हैं। निर्दोषों का रक्तपात भी करते हैं। आतंकवाद ऐसी ही राजनैतिक विचारधारा का विस्तार है।
दक्षिणपंथ वामपंथ काल वाह्य धारणाएं हैं। व्यर्थ हैं। सोद्देश्य सामाजिक परिवर्तन के लिए सबको काम करना चाहिए। सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध भी संघर्ष की आवश्यकता है। मैं अनेक समाचार पत्रों में लिखता हूँ। हमारे लेखन की प्रशंसा और आलोचना होती है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के पत्रकार मित्रों ने मेरे लेखन की प्रशंसा करते हुए कहा कि दक्षिणपंथी खेमे में आप सर्वाधिक प्रतिष्ठित लिखते हैं। यद्यपि यह मेरे लेखन की प्रशंसा थी, लेकिन मुझे दक्षिणपंथी कहा गया। मैंने उन्हें बताया कि हमारे लेखन में जातिभेद, वर्गभेद और रूढ़ियों पर आक्रमकता रहती है। मैं वर्तमान समाज व्यवस्था में परिवर्तन के लिए कर्म और लेखन के माध्यम से संघर्षरत हूँ। बावजूद इसके मैं दक्षिणपंथी क्यों हुआ? मित्रों ने हंसते हुए कहा कि क्या फिर आप वामपंथी हैं। मैंने कहा “मैं वामपंथी नहीं हो सकता। वामपंथी मान्यताओं में हिंसा है। वे भारतीय सांस्कृति और परम्परा को लेकर भी आक्रामक हैं।” मित्रों ने कहा कि आप वामपंथी नहीं हैं और दक्षिणपंथी भी नहीं हैं तो फिर आप हैं क्या? मैंने पूछा क्या किसी राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ता का दक्षिण या वामपंथी होना जरूरी है? क्या तीसरा विकल्प नहीं है। मैंने स्वयं उत्तर दिया कि न बांये चलना, न दायें चलना, सीधे गति करना आगे बढ़ना, लोगों को आगे बढ़ने में सहायता करना यही मार्ग भारतीय परम्परा में सर्वमान्य रहा है। यह परिवर्तनकामी भी है।
महाभारत की कथा में यक्ष ने युधिष्ठिर से यही पूछा था “मार्ग क्या है- कः पंथा।” युधिष्ठिर ने बहुत सोच-समझकर उत्तर दिया- “वेद वचन भिन्न-भिन्न हैं। ऋषि अनेक हैं। तर्क से कोई बात नहीं बनती। धर्म तत्व छुपा हुआ है, इसलिए महापुरुषों द्वारा अपनाया गया पंथ ही श्रेष्ठ है। युधिष्ठिर के उत्तर में वामपंथ या दक्षिणपंथ नहीं है। पूर्वजों ने अपने अनुभव के आधार पर जो मार्ग चुना है वही हमारा मार्ग है। क्या यह कथन पुराना होने के कारण दक्षिणपंथी है। इस कथन में आगे बढ़ने का संकल्प है।
ऋग्वेद के ऋषि ने भी गतिशील रहने के लिए प्रार्थना की थी, ’’संगच्छध्वं संवदध्वं सं वोमनासि जानंताम्’’ हम साथ-साथ चलें। साथ-साथ वार्तालाप करते चलें। साथ-साथ मन मिलाकर चलें। ऐसा ही हमारे पूर्वज करते आये हैं। परस्पर विचार-विमर्श करते हुए प्रस्थान। चरैवेति। चरैवेति।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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