– डॉ. रामकिशोर उपाध्याय
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध के नाम पर राजधानी दिल्ली में शाहीन बाग को घेरकर लगभग सौ दिनों तक मार्ग अवरुद्ध करने वालों को झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस प्रकार के जमावड़े को अवैध एवं अस्वीकार्य माना है। शाहीन बाग का धरना-प्रदर्शन जिसे संविधान बचाने का प्रतीक बताया जा रहा था, जिसकी परिणति दिल्ली के भयंकर दंगों के रूप में हुई और सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने का काम किया गया। उसी धरने-प्रदर्शन को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आम जनता के अधिकारों का अतिक्रमण ठहराया है। न्यायालय के आदेश के बाद भविष्य में कोई व्यक्ति, संगठन या दल अपने एजेंडे के लिए किसी सार्वजनिक स्थल या सड़क को जाम नहीं कर पाएगा।
इस निर्णय से स्पष्ट हो गया है कि संविधान की पुस्तक और बाबा साहब अम्बेडकर के चित्र हाथ में लेकर, शाहीन बाग पर बैठे धरने पर बैठे लोग, लाखों लोगों का मार्ग अवरुद्ध कर स्वयं दूसरों के अधिकारों की अवहेलना कर रहे थे। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया है कि विरोध-प्रदर्शन के लिए जो स्थान सरकार द्वारा तय हैं, केवल उन्हीं चिह्नित या निर्दिष्ट स्थानों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
कोर्ट के निर्णय के बाद शाहीन बाग़ को घेरना गैरकानूनी कृत्य सिद्ध हो गया है। दिल्ली के लोगों को इस सड़क पर सौ दिनों तक चले व्यवधान से घोर परेशानी झेलनी पड़ी। वे समय पर कार्यालय नहीं पहुँच पाए या जिनको महीनों सड़क जाम के कारण उपचार आदि में भारी कष्ट उठाना पड़ा। शाहीन बाग सड़क दिल्ली से नोएडा और कई विश्वविद्यालयों को जोड़ने वाली प्रमुख सड़क है, इसे घेरकर लाखों लोगों को तीन-चार महीने तक जो परेशान किया गया, कष्ट दिया गया इसके लिए प्रत्येक उस व्यक्ति को दिल्ली-वासियों से क्षमा माँगनी चाहिए, जो वहाँ भाषण देने गये और जो लोग शाहीन बाग में धरना समाप्त होने पर दुःख व्यक्त कर रहे थे। क्या टाइम्स मैगजीन शाहीन बाग की दादी का महिमामंडित चित्र प्रकाशित करने पर खेद प्रकट करेगी?
न्यायालय ने सरकार और स्थानीय प्रशासन के लिए भी टिप्पणी की है कि उन्हें ऐसे धरने तत्काल हटा देने चाहिए थे। इस टिप्पणी से आम आदमी पार्टी भी रेखांकित हो गई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इस धरने को बड़ी चतुराई से अपने सहयोगियों के माध्यम से अप्रत्यक्ष समर्थन दिया था। यह निर्णय अपने आप में ऐतिहसिक है क्योंकि अभी धरने-प्रदर्शन के नाम पर कोई भी व्यक्ति या संगठन सार्वजनिक स्थान को घेरकर बैठ जाता है। अब सरकार के लिए यह गाइड लाइन बन जाएगी कि वह सार्वजनिक स्थानों और मार्गों पर होने वाले प्रदर्शन तत्काल रोके, कोर्ट के आदेश की प्रतीक्षा न करे। कोर्ट ने इस बात को भी उद्धृत किया है कि “असहमति एवं लोकतंत्र साथ-साथ चलने चाहिए” किन्तु असहमति के नाम पर किसी भी सार्वजनिक स्थान को घेरकर लाखों लोगों के जीवन को कष्ट में डाल देना तो लोकतंत्र का गला दबाने जैसा ही है।
आश्चर्य की बात है कि स्वयं को जनता का सेवक कहने वाले राजनेता प्रदर्शन के नाम पर उसी जनता को दारुण दुःख देने में संकोच नहीं करते। धरना-प्रदर्शन हो, रैली, स्वागत, लोकार्पण या भूमि पूजन, आम आदमी के आवागमन को बाधा पहुँचाए बिना संपन्न क्यों नहीं हो पाते? आजकल कोई भी विरोध-प्रदर्शन शासकीय संपत्ति को क्षति पहुँचाये बिना या निजी वाहनों में तोड़फोड़ और हुडदंग के बिना संपन्न क्यों नहीं हो पाते? लोकतंत्र बचाने के नाम पर किये जाने वाले आन्दोलन अलोकतांत्रिक ढंग से संचालित किये जाते हैं क्यों? जबतक इस प्रकार के उग्र प्रदर्शनों पर कठोर दण्ड का विधान नहीं होगा तबतक आम जनता यों ही कष्ट और दुःख झेलती रहेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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