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    सबसे बड़ी प्राण की सत्ता

  • October 04, 2020

    – हृदयनारायण दीक्षित

    प्राण से जीवन है। प्राण नहीं तो जीवन नहीं। शरीर में प्राण के संचरण से ही सभी कर्म सम्पन्न होते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद में प्राण को ही सभी जीवों की आयु बताया गया है। यहाँ ध्यान देने योग्य एक बात भी कही गयी है कि प्राणों से ही देवता, मनुष्य और पशु जीवित रहते हैं। उपनिषद के तीसरे अनुवाक में प्रारम्भ का कथन ध्यान देने योग्य है। कहते हैं – प्राणं देवा अनु प्राणन्ति। मनुष्यः पशवश्च ये। यहाँ देवताओं, मनुष्यों और पशुओं को प्राण का अनुसरणकर्ता बताया गया है। बड़ी बात है कि देवता भी प्राण पर निर्भर हैं। प्राण ही आयु है। प्राण के अभाव में शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है।

    उत्तर वैदिककाल में अन्न को मनुष्य जीवों का आधार कहा गया है। इसी उपनिषद में अन्न की निंदा न करने को महत्वपूर्ण व्रत कहा गया है कि अन्न ही प्राण है। शरीर प्राण के आधार पर ही प्रतिष्ठित हो रहा है। प्राण या अन्न की श्रेष्ठता पर संभवतः विवाद था। एक विचार था कि अन्न न खाया जाए तो प्राण साथ छोड़ देते हैं। इस तरह अन्न प्राण से बड़ा हो गया है। दूसरा विचार था कि अन्न भी प्राण के कारण जीवित होते हैं। प्राण साथ न दे तो अन्न सड़ जाता है। सो पूर्वजों ने प्राण की ही तरह अन्न की प्रशंसा की है और अन्न की निंदा करने को गलत बताया है। इसी उपनिषद के आठवें अनुवाक में अन्न की अवहेलना न करने का उपदेश दिया गया है। यहाँ जल और प्रकाश को भी अन्न रूप बताया गया है। आगे नवम अनुवाक में कहते हैं कि, ‘‘अन्न सम्पदा को बढ़ाया जाए- अन्नं बहु कुर्वीत।’’ कहा गया है कि, ‘‘यह पृथ्वी अन्न का आधार है। पृथ्वी में अन्न प्रतिष्ठित है और अन्न में पृथ्वी। जो यह बात जानते हैं वह अन्न सम्पन्न होते हैं।” अन्न से जीवन है और जीवन का आधार प्राण है।

    प्राण का तत्व जानने में पूर्वजों की रुचि गहरी थी। अन्न का उपयोग और महिमा सर्वविदित थी। प्रश्नोपनिषद में अश्वलायन ने ऋषि पिपलाद से कुल छह प्रश्न पूछे। पहला प्रश्न है कि ‘‘प्राण किससे उत्पन्न होता है?’’ दूसरा प्रश्न है ‘‘वह मनुष्य शरीर में कैसे प्रवेश करता है?’’ तीसरा प्रश्न है ‘‘वह स्वयं को शरीर के भीतर किस प्रकार विभाजित करता है और शरीर में रहता है?’’ चौथा प्रश्न है ‘‘प्राण एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में किस प्रकार जाता है?’’ पाँचवां प्रश्न है कि, ‘‘वह किस प्रकार जगत को धारण करता है।?’’ छठा प्रश्न है ‘‘यह मन और इन्द्रिय आदि आन्तरिक जगत को कैसे धारण करता है?’’ सभी प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हैं। उपनिषद में सबके ब्यौरेवार उत्तर दिये गये हैं। पहले प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि, ‘‘यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है।’’ गीता प्रेस के अनुवाद में आत्मा का अनुवाद परमात्मा किया गया है। यह सर्वात्मवाद है। वैसे प्राण प्रकृति का भाग है। इसे वायु भी कहा गया है।

    ईशावास्योपनिषद में सम्पूर्ण प्रकृति में व्याप्त वायु को ‘अनिल’ कहा गया है और मनुष्य शरीर के भीतर प्रवाहित वायु को ‘प्राण’। प्राण प्रकृति की संजीवनी शक्ति है। दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि, ‘‘मन द्वारा किए गए संकल्प से वह शरीर में प्रवेश करता है।’’ यहाँ प्राण और शरीर को अलग-अलग देख गया है और प्राण का एक मन भी बताया गया है। प्राण अपने मन के संकल्प के अनुसार शरीर में जाता है। यहाँ प्राण का मन न कहकर प्राणी का मन कहना ज्यादा ठीक होगा। आगे तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि, ‘‘प्राण भी शरीर के भीतर के पृथक-पृथक अणु में विद्यमान प्राण को अलग-अलग काम देता है।’’ आगे सूर्य को सबका बाह्य प्राण बताया गया है, ‘‘प्राण सूर्य रूप में उदित होता है। सभी अंगों को पुष्ट करता है। देखने की शक्ति देता है।”

    प्राण की गतिविधि रहस्यपूर्ण है। इसकी जानकारी की प्रशंसा की गयी है। प्रश्नोपनिषद में कहते हैं कि, ‘‘प्राण रहस्य का जानकार इस रहस्य और महत्व को समझकर प्राण की अवहेलना नहीं करता। वह अद्भुत शक्ति सम्पन्न हो जाता है।’’ प्रकृति प्राणों के कारण ही सतत् सृजनशील है। प्राण का किसी शरीर में प्रवेश और उससे निकलकर दूसरे में प्रवेश की बातें पुनर्जन्म के सिद्धान्त से जुड़ी हैं। प्राचीन भारतीय चिन्तन में पुनर्जन्म को स्वीकार किया गया है। यह विषय प्रत्यक्ष सिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक प्रयासों की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

    तैत्तिरीय उपनिषद में कथा है। भृगु ऋषि ने पिता वरुण से प्रार्थना की, ‘‘मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ।‘‘ पिता वरुण ने पुत्र भृगु से कहा, ‘‘अन्न, प्राण, नेत्र, कान, मन और वाणी ये सभी ब्रह्म की उपलब्धि के द्वार हैं। इनमें ब्रह्म की सत्ता प्रकट हो रही है। ये प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले सब प्राणी जिनसे उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होकर जिनका बल पाकर जीते हैं उनको जानना चाहिए। वही ब्रह्म है।’’ यहाँ ब्रह्म की उपलब्धि के प्रत्यक्ष द्वार अन्न, प्राण, आँख, कान, मन और वाणी बताए गए हैं। यह सब प्रत्यक्ष भौतिक हैं। अर्थ यह हुआ कि ब्रह्म की प्राप्ति के लिए भी प्रत्यक्ष भौतिकवादी तत्वों की सहायता जरूरी है। भृगु ने पिता के उपदेश के अनुसार अन्न को ब्रह्म जाना। समस्त प्राणी अन्न से जीवित हैं। अन्न से जीवन सुरक्षित है। वह मृत्यु के बाद अन्न स्वरूप व्याप्त पृथ्वी में ही चले जाते हैं। भृगु अन्न को ब्रह्म जानने का निश्चय करते हुए पिता के पास पहुंचे। पिता ने सोचा कि पुत्र को ब्रह्म के स्थूल की ही समझ मिली है। अभी और प्रयास की आवश्यकता है। भृगु ने पिता से पूछा कि यदि मेरे निष्कर्ष गलत हैं तो आप ही मूल तत्व का उपदेश देने का कष्ट करें। पिता ने कहा कि मूलतत्व को समझना चाहिए और तप करना चाहिए। यहाँ तप कठिन परिश्रम का पर्यायवाची है और कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं।

    जिज्ञासु भृगु ने तप किया। निश्चय किया कि प्राण ही ब्रह्म है। समस्त प्राणी प्राण आश्रित हैं। प्राणी से ही उसी जैसा दूसरा प्राणी पैदा होता है। प्राण द्वारा अन्न ग्रहण न किया जाए तो कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता। मरने के बाद सभी प्राणी प्राण में ही लौट जाते हैं। पिता फिर भी संतुष्ट नहीं थे। पुत्र ने फिर प्रयास किया और मन को ब्रह्म बताया। पिता संतुष्ट नहीं थे। फिर पुत्र ने विज्ञान को ब्रह्म जाना। पिता फिर भी संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने फिर तप किया और आनन्द को ब्रह्म जाना। आनन्द परम है। शेष ब्रह्म के आंशिक लक्षण हैं। यहाँ आनन्द गहन आत्मीय अनुभूति है। शेष प्रारम्भिक तत्व अन्न, प्राण, मन, विज्ञान प्रत्यक्ष भौतिक यथार्थ हैं लेकिन इन सबमें प्राण की सत्ता बड़ी है। आनन्द के अभाव में जीवन की गतिविधि संभव है। मन की गड़बड़ी में भी जीवन यात्रा चलती है, लेकिन प्राण के साथ छोड़ते ही सबकुछ समाप्त हो जाता है। प्रत्यक्ष प्रकृति प्राण की शक्ति के कारण ही सतत् गतिशील है, परिवर्तनशील है, रूपों-रूपों में प्रकट होती है और जीवमान है। प्राण ध्यान, धारणा और उपासना के योग्य है।

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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